ब्लॉग: भारतीय भाषाओं में कानूनी पढ़ाई की वकालत पकड़ रही जोर

By उमेश चतुर्वेदी | Updated: August 3, 2024 10:10 IST2024-08-03T10:08:57+5:302024-08-03T10:10:40+5:30

हिंदी या भारतीय भाषाओं के जरिये न्याय हासिल करने की राह में सबसे बड़ी बाधा संविधान के अनुच्छेद 348 की व्यवस्था है, जिसके तहत अगर संसद कानून नहीं बनाती तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट अंग्रेजी में ही सुनवाई करेंगे।

Advocacy for legal studies in Indian languages ​​gaining momentum | ब्लॉग: भारतीय भाषाओं में कानूनी पढ़ाई की वकालत पकड़ रही जोर

ब्लॉग: भारतीय भाषाओं में कानूनी पढ़ाई की वकालत पकड़ रही जोर

1967 में वाराणसी से शुरू हुआ हिंदी आंदोलन भले ही राजनीति की भेंट चढ़ गया हो, लेकिन उस आंदोलन के साथ हिंदी केंद्रीय विमर्श का हिस्सा जरूर बन गई। इस आंदोलन को हिंदी विरोधियों ने जितना नुकसान नहीं पहुंचाया, उससे कहीं ज्यादा नुकसान अंग्रेजी समर्थकों ने पहुंचाया। लेकिन अब स्थितियां बदलने लगी हैं। आंदोलन के रूप में हिंदी के प्रति जो सोच मानस में रोपी गई, अब वह पल्लवित और पुष्पित होते हुए नजर आने लगी है। इसका ही असर है कि अब भारत के प्रधान न्यायाधीश भी स्वीकार करने लगे हैं कि हिंदी माध्यम से कानून की पढ़ाई होनी चाहिए।

14 जुलाई को लखनऊ के राम मनोहर लोहिया लॉ कॉलेज के दीक्षांत समारोह में बतौर अतिथि न्यायपालिका के अगुआ डीवाई चंद्रचूड़ का यह कहना मामूली घटना नहीं है कि कानून की पढ़ाई हिंदी में भी होनी चाहिए। यह नहीं कहा जा सकता कि प्रधान न्यायाधीश सबसे ज्यादा हिंदीभाषी जनसंख्या वाले राज्य की राजधानी के कॉलेज में थे, इसलिए उन्होंने हिंदी के समर्थन की बात की। अरसे से न्यायपालिका में हिंदी समेत भारतीय भाषाओं में कामकाज किए जाने की मांग उठ रही है। भारतीय भाषा आंदोलन और शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास जैसी संस्थाएं पुरजोर तरीके से ऐसी मांग करती रही हैं।

बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश के हाईकोर्ट में हिंदी में अपील करने की छूट के बावजूद वहां नियुक्त होने वाले जज अक्सर हिंदी वाली याचिकाओं की अंग्रेजी प्रति मांगते रहे हैं। या फिर कुछ हाईकोर्ट में ऐसी व्यवस्था है कि अंग्रेजी प्रति देनी ही होगी। इस वजह से हिंदी ही क्यों, भारतीय भाषाओं में न्याय मिलने का लक्ष्य लगातार पीछे जाता रहा. पर लगता है अब न्यायपालिका भी इस दिशा में सचेत हो रही है। उसे भी इसका भान हो रहा है कि देसी भाषाओं में न्याय देने का वक्त आ गया है।

न्यायपालिका की सोच में ऐसा बदलाव पहली बार नहीं दिख रहा है। भारत के न्यायाधीश रहते न्यायमूर्ति नजीर ने 27 दिसंबर, 2021 को हैदराबाद के एक कार्यक्रम में कहा था कि भारतीय न्यायिक प्रक्रिया का अब भारतीयकरण होना चाहिए। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ इसी बात को अब कहीं ठोस नजरिये से आगे बढ़ा रहे हैं। हिंदी या भारतीय भाषाओं के जरिये न्याय हासिल करने की राह में सबसे बड़ी बाधा संविधान के अनुच्छेद 348 की व्यवस्था है, जिसके तहत अगर संसद कानून नहीं बनाती तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट अंग्रेजी में ही सुनवाई करेंगे।

ऊपर से देखने में लगता है कि अगर संसद चाहे तो वह आसानी से ऐसे प्रावधान कर सकती है। वैधानिक नजरिये से यह राह आसान लगती है, लेकिन मौजूदा राजनीतिक हालात को देखिए तो यह बात इतनी आसान भी नहीं है। अगर संसद में बिना राजनीतिक सहमति के इस प्रावधान के संशोधन का प्रस्ताव आता है तो राजनीतिक वितंडा खड़ा होने से कोई नहीं रोक सकता।

Web Title: Advocacy for legal studies in Indian languages ​​gaining momentum

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