अभिषेक कुमार सिंह का ब्लॉग: मौसम की मार से मिलकर निपटना होगा
By अभिषेक कुमार सिंह | Published: August 19, 2020 02:41 PM2020-08-19T14:41:40+5:302020-08-19T14:41:40+5:30
पांच साल पहले मार्च-अप्रैल 2015 में देश के इतने बड़े हिस्से में इतनी तेज और कई दिनों तक चली बारिश को मामूली घटना नहीं माना गया था.
देश के कई हिस्से इन दिनों बाढ़ की आपदा ङोल रहे हैं. अतिशय बारिश के कई किस्से देश के अलग-अलग हिस्सों की किस्मत में बंधे दिखते हैं. पिछले कुछ वर्षो में केदारनाथ, जम्मू-कश्मीर, चेन्नई में हुई बारिश ने काफी तांडव मचाया है.
असल में, इस तरह से मौसम हमें चौंकाता है और यह सिलसिला पिछले कुछ सालों से बढ़ता ही जा रहा है. अतिवृष्टि और अनावृष्टि तो जब-तब मुसीबत के रूप में धमकती ही रहती थीं, बारिश का बदलता चक्र अब अलग तरह की परेशानियां ला रहा है.
पांच साल पहले मार्च-अप्रैल 2015 में देश के इतने बड़े हिस्से में इतनी तेज और कई दिनों तक चली बारिश को मामूली घटना नहीं माना गया था. इसके बारे में मौसम विभाग समेत मौसम वैज्ञानिक जिस पश्चिमी विक्षोभ का हवाला दिया था, बताते हैं कि उसकी व्यापकता इतनी थी कि उसने बंगाल की खाड़ी और अरब सागर, यानी देश के पूर्वी और पश्चिमी दोनों छोरों से नमी उठाई थी.
इसी से इतनी अधिक बारिश हुई. इसी तरह वर्ष 2014 में जम्मू-कश्मीर में भी भारी बारिश ने पूरे राज्य में बाढ़ के गंभीर हालात पैदा किए थे और उससे पहले 16-17 जून 2013 को उत्तराखंड के केदारनाथ में भारी बारिश से तबाही हुई थी.
यह ध्यान रखना होगा कि पिछले डेढ़-दो दशकों में मौसम की अतिवादी करवटें (एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट्स) पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्न में दर्ज की गई हैं. कभी भारी बारिश से बाढ़, सूखे और भारी बर्फबारी के हालात पैदा हो रहे हैं तो कहीं तूफान-चक्रवात बड़े पैमाने पर तबाही मचा रहे हैं.
मौसम की अतिवादी स्थितियों के बारे में सबसे विशेष बात यह है कि आज भी दुनिया में ऐसा कोई भी मौसमी मॉडल नहीं है, जो तूफानी बारिश की तीव्रता के बारे में सटीक जानकारी दे सके.
मौसम की भविष्यवाणियां चाहे कुछ कहें, लेकिन अगर ये घटनाएं मौसम के बदलते मिजाज को जाहिर कर रही हैं तो यह ध्यान रखना होगा कि इस इलाके के सारे देशों की खेती-बाड़ी, रहन-सहन, उद्योग-धंधे काफी हद तक मौसम पर ही निर्भर करते हैं.
ऐसे में कहा जा सकता है कि मौसम की बड़ी तब्दीलियों को दर्ज करने की जिम्मेदारी सिर्फ मौसम विभाग पर नहीं छोड़ी जानी चाहिए बल्कि इसमें इसरो जैसी संस्थाओं के वैज्ञानिकों को भी अपना योगदान देना चाहिए. इसी से मौसम के अनुमान ज्यादा धारदार बन सकेंगे और आपदाओं के असर को कुछ कम किया जा सकेगा.
यही नहीं, इस बारे में सभी दक्षिण-एशियाई देशों को आपस में कोई तालमेल बनाना होगा. उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि कोई बड़ा मौसमी बदलाव यदि पड़ोसी मुल्क के संदर्भ में हो रहा है, तो वे खुद भी उसके असर से अछूते नहीं रह सकेंगे. यदि चीन-तिब्बत में भारी बर्फबारी होगी, तो ब्रह्मपुत्र का पानी भारत में तबाही मचाएगा.