अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: जमीन से आती आवाज और पार्टियों के कान

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: May 1, 2019 07:09 IST2019-05-01T07:09:31+5:302019-05-01T07:09:31+5:30

तीन चरणों के मतदान के बाद संघ ने मान लिया कि उसकी यह थर्ड पार्टी कैम्पेन उतनी कामयाब नहीं रही, जितना उसने सोचा था.

Abhay Kumar Dubey's blog: The sound coming from the ground and the ears of the parties | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: जमीन से आती आवाज और पार्टियों के कान

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: जमीन से आती आवाज और पार्टियों के कान

सत्रहवीं लोकसभा के लिए जारी चुनाव-प्रक्रिया रणनीतिक लिहाज से उत्तरोत्तर जटिल होती जा रही है. कोई एक पार्टी नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक दल इन नित नई पेचीदगियों का सामना कर रहे हैं. कारण यह है कि सात चरणों में और डेढ़ महीने लंबा चलने वाला यह चुनाव राजनीतिक जमीन के ऊपर किसी ऐसे स्पष्ट लक्षण या रुझान का प्रदर्शन नहीं कर पा रहा है जिससे पार्टियों को अपने निकटवर्ती भविष्य का पूर्वानुमान लग सके. 

इसीलिए पार्टियों को बीच चुनाव में रणनीति-परिवर्तन करने पर विचार करना पड़ रहा है. इसका एक नमूना तब सामने आया जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी राजनीतिक भुजा भाजपा से कहा कि वह पुलवामा-बालाकोट के घटनाक्रम से निकाली जा सकने वाली राष्ट्रवादी छवियों और प्रधानमंत्री के लोकप्रिय व्यक्तित्व पर ज्यादा भरोसा करने के बजाय स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करे. संघ को पहले से लग रहा था कि इस चुनाव में वोटरों को घर से निकालना थोड़ा मुश्किल होगा, इसलिए उसने अपने समर्थन-आधार से सौ फीसदी मत डालने की अपील की थी . इसे संघ के भीतरी हल्कों में ‘थर्ड पार्टी कैम्पेन’ का नाम दिया गया था. 

तीन चरणों के मतदान के बाद संघ ने मान लिया कि उसकी यह थर्ड पार्टी कैम्पेन उतनी कामयाब नहीं रही जितना उसने सोचा था. संघ ने यह भी सुझाव दिया कि भाजपा के उम्मीदवारों को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की भाषण देने की क्षमताओं का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना चाहिए. दरअसल, संघ मानता है कि भाजपा के पास प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष शाह के अलावा प्रभावशाली वक्ताओं की कमी है. 

क्या मोदी और शाह संघ की इस राय को मानेंगे? कोई जरूरी नहीं, पर इस राय के बाद प्रधानमंत्री का स्वर कुछ तो बदला हुआ सा लग रहा है. फिल्म स्टार अक्षय कुमार को दिए गए गैर-राजनीतिक इंटरव्यू से इस बदलाव की शुरुआत हुई और बनारस में पर्चा भरने से पहले एक पांच सितारा होटल में कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए यह बदलाव अपने पूरे रंग में दिखा. यह बदलाव था विपक्ष के सामने अपना ‘दल नहीं दिल जीतने वाला’ मित्रतापूर्ण चेहरा पेश करना. ध्यान रहे कि 2014 के पूरे चुनाव में और इस चुनाव के पहले तीन चरणों तक प्रधानमंत्री ने अपने इस दोस्ताना चेहरे को छिपाना पसंद किया. 

कांग्रेस भी अपनी रणनीति पर पूरी तरह से कायम नहीं है. इसका सबूत प्रियंका गांधी की शख्सियत के इर्दगिर्द होने वाली राजनीति से लगाया जा सकता है. जिस दिन से वे मैदान में उतरी हैं, पार्टी की तरफ से इस तरह के संकेत छोड़े जा रहे थे कि वे बनारस में मोदी को टक्कर देंगी. मोटे तौर पर माना जा रहा था कि अगर प्रियंका विपक्ष की संयुक्त उम्मीदवार बनती हैं, तो मोदी के मुकाबले मिलने वाली अवश्यंभावी पराजय भी उनके राजनीति कद को बहुत बढ़ा देगी. लेकिन, ऐन मौके पर पार्टी ने प्रियंका को पीछे खींच लिया. लगता है पूरी पेशबंदी करने के बाद कदम वापसी के पीछे ऐसा कुछ है जो बीच रास्ते में रणनीति-परिवर्तन का संकेत दे रहा है. 

यह दावा करना आसान है कि किसी के पक्ष या विपक्ष में लहर चल रही है, पर ऐसा दावा करने वाले खुद भी उस लहर को परिभाषित करने के नाम पर एकमत नहीं हैं. अगर पक्ष या विपक्ष की कोई लहर है तो क्या वह ‘मुखर’ है या ‘मौन’? वह लहर है या कोई ‘अंडर करेंट’ या अंतर्धारा? जो कुछ है वह मतदाता के मन में है, और उसके भीतर झांकने में कोई भी कामयाब नहीं है. 

Web Title: Abhay Kumar Dubey's blog: The sound coming from the ground and the ears of the parties

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