अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: रुके हुए लोग बनाम चलते हुए लोग
By अभय कुमार दुबे | Published: April 2, 2020 01:59 PM2020-04-02T13:59:46+5:302020-04-02T13:59:46+5:30
कोरोना महामारी का मुकाबला करने के लिए केंद्र और राज्य समेत हमारी सभी सरकारें अपनी क्षमता और दायरे में बेहतरीन काम कर रही हैं. लेकिन, जो बात सरकार नहीं सोच पाई, वह बात हममें से कोई भी नहीं सोच पाया. कोरोना के डर और उससे उपजी परिस्थिति के कारण हो रहा शहरों से गांवों की ओर पलायन का प्रकरण बताता है कि सरकार और हमारा बौद्धिक मानस एक ही किस्म का है. गलती केवल सरकारी कल्पनाशीलता की ही नहीं है, हमारी समूची बौद्धिक कल्पनाशीलता ही दोषपूर्ण है. बजाय इसके कि पिछले रविवार को मुंबई-दानापुर एक्सप्रेस में खचाखच भरे, घर जाने के लिए व्याकुल बिहारी मजदूर हमें कोई संदेश देते और उनकी बेचैनी के आईने में हम चार-पांच दिन के भीतर आने वाली दिक्कत को देख सकते, अगले दिन ही रेलवे ने अपनी सेवाएं मुल्तवी कर दीं और हम सब हाथ पर हाथ रख कर बैठ गए.
यहां हम खुद को दो तरह की समस्याओं का सामना करते हुए देख रहे हैं. पहली, कोरोना से लड़ने की हमारी फौरी रणनीति जिसके तहत टीवी और अन्य मीडिया मंचों पर लगातार कहा जा रहा है- ‘जीता वही है जो रुक गया’. जिसे हम प्रचलित भाषा में ‘लॉकडाउन’ कह रहे हैं, उसकी बुनियादी थीसिस यही है. कोरोना के भयावह परिदृश्य ने हमें और सरकार को एक खास मन:स्थिति में धकेल दिया जिसके कारण हम ‘रुक जाने’ को ही कोरोना के खिलाफ एकमात्र हथियार समझ बैठे. ‘रुक जाने’ की रणनीति के दबाव में हम यह सोच भी नहीं पाए कि हमसे अलग बहुत से लोगों को अभी ‘चल पड़ने’ की आवश्यकता है. हम यह भूल गए कि हमारे समाज और अर्थव्यवस्था के एक बहुत बड़े हिस्से को ‘रुक जाने’ की नहीं बल्कि ‘नियोजित गति’ की आवश्यकता है. यह हिस्सा है अनौपचारिक क्षेत्र का, जो सरकारी आंकड़ों से लेकर सार्वजनिक जीवन की बहसों तक में कमोबेश अदृश्य ही रहता है.
मुंबई-दानापुर एक्सप्रेस हो या दिल्ली-उ.प्र. की सीमा हो, वहां पाया जा रहा हुजूम अनौपचारिक क्षेत्र का ही सदस्य है. हम भले ही ‘लॉकडाउन’ के कारण रुक गए हों या रुक जाने में ही अपनी भलाई समझ रहे हों, लेकिन यह अनौपचारिक क्षेत्र रुक जाने के बजाय पैदल ही चल दिया और उस समय तक चलता रहेगा जब तक यह दूसरी समस्या दूरगामी है. नीतिगत रूप से और बौद्धिक रूप से सरकार समेत हम सब लोग औपचारिक क्षेत्र के हैं. हमें बंधी-बंधाई तनख्वाहें मिलती हैं, हम ईएमआई देते हैं, हमारे पास कुछ बचत है, औपचारिक क्षेत्र ने हमें हमारे सिर पर एक स्थायी छत प्रदान कर दी है- मुख्य तौर पर हम आर्थिक-सामाजिक रूप से सुरक्षा-संपन्न हैं. हमारे जैसे लोग यानी औपचारिक क्षेत्र के लोग ज्यादा से ज्यादा पचास से साठ फीसदी ही हैं. बाकी सभी उस अनौपचारिक क्षेत्र के हैं जो रुक जाने के बजाए चल पड़ा है. क्यों? इसलिए कि उसके पास हमारी जैसी सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा नहीं है, इसलिए कि उसकी फैक्टरी के मालिक ने उसकी पगार बंद कर दी है, इसलिए कि उसके मकान मालिक ने उससे कमरा खाली करने के लिए कह दिया है, इसलिए कि उसके पास भोजन खरीदने के लिए पैसा नहीं है.
यह एक भीषण बौद्धिक त्रासदी है कि रुके हुए लोग इन चलने वाले लोगों को कोरोना के संभावित वाहक के रूप में देख रहे हैं. मेरे विचार से (और मैं पूरी तरह से गलत भी हो सकता हूं) अगर कोरोना से संक्रमित भारतवासियों (जिनकी संख्या अभी हजार-डेढ़ हजार के बीच ही है), इलाज से ठीक हुए लोगों और दिवंगत हुए लोगों के ‘सोशल प्रोफाइल’ की जांच की जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि इनमें गरीबों की संख्या या तो है ही नहीं, या न के बराबर है. ग्रामीण पृष्ठभूमि के गरीब लोग न तो हाथ मिलाते हैं, न ही गले लगते हैं, न ही गाल से गाल मिला कर ‘पुच-पुच’ की ध्वनि निकालते हैं. इस संस्कृति से उनका कोई वास्ता नहीं है. इन लोगों के अधिकतर हिस्से का पर्यटकों से कोई ताल्लुक नहीं होता. ये लोग विदेश जाने-आने वालों के संपर्क में नहीं रहते. ये अपने कारखानों में काम करते हैं और या तो कारखाने में या वहीं-कहीं सो जाते हैं. सप्ताह में एक बार लगने वाले बाजार में जा कर जरूरत की सस्ती-मद्दी चीजें खरीद लेते हैं. कोरोना फैलते ही इन लोगों को यह भी लगा कि वे खुशहाल और गतिशील लोगों की इस बीमारी के शिकार हो जाएंगे.
विख्यात अर्थशास्त्री अरुण कुमार द्वारा लगाए गए तखमीने के अनुसार इस साल अर्थव्यवस्था की बुरी हालत के कारण (कोरोना मिला कर) लोगों की आमदनी में करीब बीस लाख करोड़ रुपए की कमी होगी. इस बीस लाख करोड़ में 45 फीसदी आमदनी गरीबों की होगी यानी नौ लाख करोड़. सरकार ने 1.70 लाख करोड़ रुपए का राहत पैकेज घोषित किया है. यह हमारे कुल घरेलू उत्पाद का मात्र 0.85 प्रतिशत है, जबकि अमेरिका ने दो सौ लाख करोड़ रुपए (दो अरब डॉलर) का राहत पैकेज घोषित किया है जो उसके कुल घरेलू उत्पाद का दस फीसदी है. जाहिर है कि हमारे और उनके राहत पैकेजों में कोई मुकाबला नहीं किया जा सकता.
मेरा मानना है कि कोरोना महामारी से हमें सबसे बड़ा सबक अपनी चिंतन और नीति-निर्माण की प्राथमिकताओं को बदलने का लेना चाहिए. असंगठित क्षेत्र भी हमारा है, हमारे देशवासी उसमें काम करते हैं, भले ही वे ईएमआई देने की हैसियत न रखते हों. अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमें नई मानवीय त्रसदियों के लिए तैयार रहना होगा.