अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: देश में लामबंद होने लगी हैं कटृरपंथी ताकतें

By अभय कुमार दुबे | Updated: March 5, 2020 06:11 IST2020-03-05T06:11:14+5:302020-03-05T06:11:14+5:30

इन दंगों के बारे में समाज-वैज्ञानिक विश्लेषकों की प्रतिक्रियाओं के बीच भी काफी विरोधाभास है. मसलन, ज्यां द्रेज जैसे बुद्धिजीवी-एक्टिविस्ट मानते हैं कि दिल्ली के पटल पर जो कुछ घटित हो रहा है, वह द्विज जातियों (ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया) की तरफ से हिंदुत्व की नुमाइंदगी करने वाली आक्रामक अभिव्यक्ति है. शायद वे कहना यह चाहते हैं कि इसका निशाना कमजोर जातियों और मुसलमानों की सीएए विरोधी आंदोलनकारी एकता है.

Abhay Kumar Dubey blog: radical forces are starting to mobilize in the country | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: देश में लामबंद होने लगी हैं कटृरपंथी ताकतें

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)

दिल्ली के मुसलमान बहुल उत्तर-पूर्वी इलाकों में हुई सांप्रदायिक हिंसा अब शांत होने की तरफ है और बहस इस बात पर चल रही है कि इसका जिम्मेदार किसे ठहराया जाना चाहिए. ध्यान रहे कि दिल्ली को हिंदू-मुसलमान सांप्रदायिक हिंसा के संदर्भ में संवेदनशील शहर की श्रेणी में नहीं रखा जाता रहा है. 1950 से 1995 तक पूरे पैंतालीस सालों में इस महानगर में इस तरह की हिंसा के कारण केवल पचास लोग ही मारे जाने का तथ्य रिकॉर्ड पर दर्ज है. लेकिन दूसरी तरफ यह भी एक सच्चाई है कि नब्बे के दशक से ही इस शहर में मुसलमानों की रिहाइशें हिंदुओं से अलग-थलग होती जा रही हैं और धीरे-धीरे मिली-जुली रिहाइशों की बस्तियां न के बराबर ही रह गई हैं.

ऐसी परिस्थितियों में सांप्रदायिक वारदातें न होने की उपलब्धि मुख्य रूप से एक धार्मिक अलगाव की देन होती है, न कि धार्मिक मिश्रण के बावजूद सौहार्द्र की. सांप्रदायिक हिंसा के मौजूदा संदर्भ में भाजपा के समर्थकों का स्पष्ट आरोप है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत दौरे पर उनका ध्यान खींचने के लिए नए नागरिकता कानून के विरोधियों (भाजपा की भाषा में इसका मतलब होता है विपक्षी दल और मुसलमान समुदाय) ने जाफराबाद, मौजपुर, चांदपुर और खजूरी खास जैसी जगहों पर योजनाबद्ध ढंग से सांप्रदायिक तनाव की परिस्थितियां बनार्इं. सबूत के तौर पर वे पिस्तौल लहराते हुए शाहरुख नामक युवक और कथित तौर से आम आदमी पार्टी के एक पार्षद के घर में हुई इंटेलिजेंस ब्यूरो के एक कांस्टेबल की हत्या को पेश करते हैं.

दूसरी तरफ भाजपा और संघ परिवार के समर्थकों को छोड़ कर बाकी सभी राजनीतिक ताकतों (इनमें अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल, राष्ट्रीय लोकजनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान जैसे भाजपा के सहयोगी भी शामिल हैं) की मान्यता है कि यह सब भाजपा का किया धरा है. हिंदू राष्ट्रवादी इस क्षेत्र के मुसलमान बाशिंदों को सबक सिखाना चाहते थे क्योंकि उन्होंने चुनाव में कटिबद्ध हो कर भाजपा विरोधी वोट किया था और इसीलिए भाजपा के उम्मीदवार थोड़े-थोड़े अंतरों से चुनाव हार गए थे.

इस पक्ष के पास भी अपनी बात को सही साबित करने के लिए सबूतों की कमी नहीं है. दरअसल, इसके पास बहुत से सबूत हैं जिनमें प्रमुख है चुनाव में बुरी तरह पराजित हो चुके कपिल मिश्रा की खुली धमकी, जहरबुझा भाषण, बजरंग दल के लोगों द्वारा इलाके में दो ट्रक भर कर पत्थर लाना, और दिल्ली पुलिस का वह रवैया जिसके तहत वह आगजनी, पत्थरबाजी और हिंसा करने वाले सीएए समर्थकों के सड़कों पर उतरते ही निष्क्रिय होकर किनारे खड़ी हो जाती थी.

इन दंगों के बारे में समाज-वैज्ञानिक विश्लेषकों की प्रतिक्रियाओं के बीच भी काफी विरोधाभास है. मसलन, ज्यां द्रेज जैसे बुद्धिजीवी-एक्टिविस्ट मानते हैं कि दिल्ली के पटल पर जो कुछ घटित हो रहा है, वह द्विज जातियों (ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया) की तरफ से हिंदुत्व की नुमाइंदगी करने वाली आक्रामक अभिव्यक्ति है. शायद वे कहना यह चाहते हैं कि इसका निशाना कमजोर जातियों और मुसलमानों की सीएए विरोधी आंदोलनकारी एकता है.

दूसरी तरफ क्रिस्टोफ जैफ्रलो जैसे भारतविद् दिखा रहे हैं कि यह ‘गैर-ब्राह्मणवादी हिंदुत्व’ की ताकतों का किया-धरा है. जैफ्रलो ने सुधा पै और सज्जन कुमार द्वारा लिखित एक पुस्तक ‘एवरीडे कम्युनलिज्म : रॉइट्स इन कंटेपरेरी उत्तर प्रदेश’ के निष्कर्षों का हवाला देते हुए दलील दी है कि हिंदू बहुसंख्यकवाद की नई रणनीति के दो पहलू हैं- पहला, अब वह कभी-कभार आयोजित किए जाने वाले बड़े पैमाने के दंगों में विश्वास नहीं करता, और सांप्रदायिक हिंसा के कढ़ाव के नीचे धीमी-धीमी आग सुलगाए रहने की रणनीति पर चलता है ताकि सांप्रदायिक तनाव हमेशा खदबदाता रहे और परिणामस्वरूप हिंदुत्ववादी चेतना पर लगातार सान चढ़ाई जाती रहे.

दूसरा, इस सांप्रदायिक रणनीति के केंद्र में मुख्य तौर पर ओबीसी और अन्य कमजोर जातियों से आने वाले तत्व हैं. इन लोगों की गौ-रक्षा, घर वापसी और लव जिहाद जैसी बीच में फूट पड़ने वाली सांप्रदायिक मुहिमों के जरिये लगातार लामबंदी होती रहती है. पिछले साढ़े पांच साल में संघ परिवार की इस ‘लो इंटेसिटी स्टैÑटिजी’ से हिंदू समाज में हिंदुत्ववादी चेतना बहुत मजबूतहुई है.

एक तीसरा विश्लेषण स्वामीनाथन अय्यर का है. वे मानते हैं कि दिल्ली के दंगों ने मोदी सरकार के ‘गुड गवर्नेंस’ के दावे की धज्जियां उड़ा दी हैं, और इस प्रकरण की 1984 की दिल्ली की सिख विरोधी हिंंसा तथा 2002 की गुजरात की मुसलमान विरोधी हिंंसा की याद दिला दी है.

दिलचस्प बात यह है कि स्वामीनाथन शाहीन बाग के धरने के लोकतांत्रिक चरित्र की प्रशंसा करते हुए भी उसके आंदोलनकारी मॉडल को कुछ आड़े हाथों लेते हैं. वे मानते हैं कि अगर इस धरने को पहले ही सड़क से हटा कर साथ में लगे ओखला पक्षी अभयारण्य में कर दिया जाता, तो इसके दो लाभ होते. भाजपा इसे सांप्रदायिक तनाव के एक स्रोत की तरह इस्तेमाल न कर पाती, और हजारों-लाखों लोगों को ट्रैफिक की समस्या का सामना न करना पड़ता.

इन विश्लेषणों की रोशनी में नागरिक समाज को सांप्रदायिकता का मुकाबला करने के लिए अपनी भविष्य की रणनीतियों पर ठंडे दिमाग से सोचना-विचारना चाहिए. निकट भविष्य में शाहीन बाग जैसी घटनाएं भी और होंगी, साथ ही देश में न जाने कितनी जगहों पर उत्तर-पूर्वी दिल्ली की कहानी बार-बार घटित होगी

Web Title: Abhay Kumar Dubey blog: radical forces are starting to mobilize in the country

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