अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: 30 साल बाद सामाजिक न्याय की राजनीति का हश्र

By अभय कुमार दुबे | Published: August 26, 2020 09:43 AM2020-08-26T09:43:40+5:302020-08-26T09:43:40+5:30

चमकदार राजनीतिक सफलता के बावजूद ऐसा नहीं हुआ. 2015 तक स्थिति यह थी कि केंद्र सरकार के अ-वर्ग की नौकरियों में केवल 12 फीसदी ही पिछड़े थे. ब-वर्ग में उनका प्रतिशत केवल 12.5 फीसदी ही था. यहां तक कि स-वर्ग के कर्मचारियों में उनका प्रतिशत केवल 19 फीसदी तक ही पहुंच पाया था.

Abhay Kumar Dubey blog over reservation: The fate of social justice politics after 30 years | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: 30 साल बाद सामाजिक न्याय की राजनीति का हश्र

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: 30 साल बाद सामाजिक न्याय की राजनीति का हश्र

तीस साल पहले सात अगस्त को मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा होते ही ऊंची जातियों की तरफ से एक जबरदस्त आरक्षण विरोधी आंदोलन शुरू कर दिया गया था. सड़कों पर उत्तेजित होकर दौड़ते हुए आरक्षण विरोधी और कुछ नासमझ युवकों की देह से फूटती हुई लपटों ने जो माहौल बनाया- वह भारतीय इतिहास के सर्वाधिक अप्रिय नजारों में से एक साबित हुआ.

उसे आज कोई याद नहीं करना चाहता. जब ऊंची जातियां हमलावर अंदाज में आरक्षण विरोधी लामबंदी कर रही थीं, उस समय पिछड़ी और अनुसूचित जातियों के युवक मुकाबले की लामबंदी करने के बजाय एक रणनीतिक चुप्पी साधे हुए थे.

आरक्षण के समर्थन में न कोई आंदोलन चला, न ही जुलूस निकाले गए. दरअसल, इस खामोशी के गर्भ में एक राजनीतिक परिवर्तन पक रहा था. इसी बदलाव को भारतीय राजनीति के फ्रांसीसी विद्वान क्रिस्टोफ जैफ्रेलो ने ‘मौन क्रांति’ की संज्ञा दी है. राजनीतिक परिवर्तन का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि नब्बे के दशक में संसद के लिए चुने जाने वाले पिछड़ी जाति के उम्मीदवारों में तकरीबन सौ फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई.

दूसरी तरफ ऊंची जाति के सफल उम्मीदवारों की संख्या घटती चली गई. जाहिर था कि ऊंची जातियां शोर मचा सकती थीं, लेकिन वोट की ताकत तो पिछड़ों और दलितों के पास ही थी.

मंडल के बाद के हालात में इन बहुसंख्यक जातियों के मतदाताओं ने ऊंची जातियों के उम्मीदवारों के बजाय अपने बीच से निकले नेताओं और संगठनों में दिलचस्पी दिखाई.लेकिन, इस बदली हुई राजनीति का मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि इसके परिणामस्वरूप पिछड़ी जातियों को 27 फीसदी नौकरियां मिल गई होंगी.

दरअसल, चमकदार राजनीतिक सफलता के बावजूद ऐसा नहीं हुआ. 2015 तक स्थिति यह थी कि केंद्र सरकार के अ-वर्ग की नौकरियों में केवल 12 फीसदी ही पिछड़े थे. ब-वर्ग में उनका प्रतिशत केवल 12.5 फीसदी ही था. यहां तक कि स-वर्ग के कर्मचारियों में उनका प्रतिशत केवल 19 फीसदी तक ही पहुंच पाया था. यानी 27 फीसदी नुमाइंदगी पाने से ये जातियां आज भी बहुत पीछे हैं.

उल्लेखनीय यह है कि पिछड़ी जातियों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली पार्टियों की तरफ से इस कमी की भरपाई करने के लिए कोई प्रभावकारी मांग नहीं की जा रही है. न ही यह याद आता है कि पिछले दस साल में इस प्रश्न पर इन राजनीतिक ताकतों ने कभी कोई आंदोलन चलाया हो. आखिर इस विरोधाभास का कारण क्या है?

पहली नजर में लगता यह है कि पिछड़ी जातियों का नेतृत्व करने वाली ताकतों की दिलचस्पी अपने समाज के युवकों को नौकरियां दिलाने से ज्यादा राजनीतिक सत्ता के लिए उनकी गोलबंदी करने में है. शायद शुरू से उनकी प्राथमिकता यही थी.

उन्होंने मंडल कमीशन की सिफारिशों के लागू होने के खिलाफ चले आंदोलन की प्रतिक्रिया में अपने समाजों की राजनीतिक गोलबंदी तो कर ली, लेकिन उसका इस्तेमाल केवल विधायिकाओं में अपनी संख्या बढ़ाने और सत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त करने में किया. निश्चित रूप से यह भी एक वेधने लायक लक्ष्य था, लेकिन क्या इसकी कीमत नौकरियों में पिछड़ों की दावेदारी छोड़ने या नजरअंदाज करने के रूप में चुकाई जानी चाहिए थी?

इसका जवाब स्वयं को पिछड़े वर्ग का नेता मानने और सामाजिक न्याय की पैरोकारी करने वालों को देना चाहिए. दूसरी तरफ स्थिति यह है कि भाजपा के नेतृत्व में हिंदुत्व की राजनीति के उभार ने इस ‘मौन क्रांति’ को भीतर से पलटना शुरू कर दिया है.

विधायिकाओं में पिछड़े वर्ग के सदस्यों की कीमत पर ऊंची जातियों की संख्या बढ़ने लगी है. अगर इस तथ्य को सामाजिक न्याय की राजनीति की नुमाइंदगी करने वाली पार्टियों की लगातार चुनावी नाकामी की रोशनी में देखा जाए तो स्पष्ट होने लगता है कि सात अगस्त, 1990 को जिस राजनीतिक परिवर्तन का आगाज हुआ था, वह अपनी शक्ति खो चुका है.

वस्तुस्थिति यह है कि पिछले तीस साल में कई-कई बार सत्ता में चुन कर आने के बावजूद यह शक्तियां प्रशासनिक, विकास और राजनीतिक विकास के पैमाने पर ऐसे किसी मूल्य की स्थापना नहीं कर पाई हैं जो ऊंची जातियों के नेताओं द्वारा स्थापित राजनीति से भिन्न हो. जिस तरह द्विज जातियों के नेता और पार्टियां अपनी हथकंडेबाजियों, भ्रष्टाचार और प्रशासनिक विफलता के लिए ‘बहुचर्चित’ थे, उसी तरह ये नेता भी जाने जाते हैं.

एक तरह से देखा जाए तो ये नेता और उनकी पार्टियां कई विफलताओं में द्विजों से भी आगे हैं. इनकी मौजूदा राजनीतिक साख चमकदार नहीं है. ये अपने ही समुदायों की छोटी और कमजोर जातियों की हमदर्दी खो चुके हैं. यह तर्क बहुत प्रभावी नहीं कि अगर सरकारी नौकरियों में अपना पूरा कोटा पाने के लिए राजनीतिक गोलबंदी की जाए तो सामाजिक न्याय की राजनीति वापसी कर सकती है.

हम देख चुके हैं कि नौकरियों में अपनी संख्या बढ़ाना पिछड़े नेताओं की प्राथमिकता कभी नहीं रही. वे तो सत्ता चाहते थे, वह उन्हें मिली भी. लेकिन, अपनी कमजोरियों के चलते वह उनके पास नहीं रह पाई. आज पिछड़ों का ज्यादा बड़ा नेतृत्व उनके नहीं, बल्कि भाजपा के पास है.

Web Title: Abhay Kumar Dubey blog over reservation: The fate of social justice politics after 30 years

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