अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: महाराष्ट्र में सत्ता के नए संतुलन की तलाश

By अभय कुमार दुबे | Published: November 6, 2019 06:15 AM2019-11-06T06:15:06+5:302019-11-06T06:15:06+5:30

शिवसेना की तरफ से यह बात खुलेआम कही जाती रही कि इस बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बालासाहब का सपना पूरा करने के लिए एक शिवसैनिक को बैठाना है. क्या भाजपा तब इस बात को नहीं सुन रही थी? यह बात इतने बार और इतने जोर से कही गई, कि भाजपा का माथा ठनक जाना चाहिए था. दरअसल, अगर शिवसेना नतीजों के बाद मुख्यमंत्री पद की दावेदारी न करती तो उसकी राजनीतिक साख खतरे में पड़ जाती.

Abhay Kumar Dubey Blog: Maharashtra Seeks new balance of power | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: महाराष्ट्र में सत्ता के नए संतुलन की तलाश

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे की इस तस्वीर का इस्तेमाल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है।

पिछले हफ्ते के घटनाक्रम से यह साबित होता जा रहा है कि केवल सरकार बना लेना जीत नहीं होता. जीत तो वह होती है जब कोई पार्टी अपने मन की सरकार बनाती है. महाराष्ट्र में सरकार बनाने के ही नहीं, भाजपा और शिवसेना के बीच हुआ चुनाव-पूर्व गठजोड़ बचाने के लाले पड़े हुए हैं. भाजपा की सीटें शिवसेना से दुगुने के करीब हैं, फिर भी गतिरोध है कि टूटने का नाम नहीं ले रहा है.

आम तौर पर होता यह है कि चुनाव-पूर्व गठजोड़ में होने वाले मुख्यमंत्री का चेहरा साफ होता है. भाजपा सीटें भी ज्यादा लड़ रही थी, और पिछली बार मुख्यमंत्री पद भी उसी के पास था. उसका कहना था कि देवेंद्र फडणवीस ही मुख्यमंत्री बनेंगे. लेकिन शिवसेना ने गठजोड़ में लड़ने के बावजूद भाजपा की यह बात कभी नहीं मानी. पूरी चुनावी मुहिम में मुख्यमंत्री पद के दो उम्मीदवार रहे. एक भाजपा का, और एक शिवसेना का.

शिवसेना की तरफ से यह बात खुलेआम कही जाती रही कि इस बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बालासाहब का सपना पूरा करने के लिए एक शिवसैनिक को बैठाना है. क्या भाजपा तब इस बात को नहीं सुन रही थी? यह बात इतने बार और इतने जोर से कही गई, कि भाजपा का माथा ठनक जाना चाहिए था. दरअसल, अगर शिवसेना नतीजों के बाद मुख्यमंत्री पद की दावेदारी न करती तो उसकी राजनीतिक साख खतरे में पड़ जाती.

लेकिन, क्या यह सिर्फ साख बचाने के लिए किया जाने वाला दावा है? क्या सात नवंबर से पहले शिवसेना भाजपा से समझौते की कोई व्यावहारिक जमीन निकाल लेगी? इन प्रश्नों का उत्तर ‘हां’ में दिया जा सकता है, क्योंकि शिवसेना सत्ता का भोग भाजपा के साथ ही ज्यादा बेहतर तरीके से कर पाएगी.

एक भीतरी खबर यह है कि अमित शाह शिवसेना को उपमुख्यमंत्री पद देने के लिए भी तैयार नहीं हैं. यह एक तरह का उल्टा दबाव है जो शिवसेना महसूस कर रही होगी. अगर उपमुख्यमंत्री पद भी नहीं मिला तो बचीखुची साख भी पानी में जाएगी. इस लिहाज से भी शिवसेना की रणनीति को समझा जा सकता है कि मुख्यमंत्री का दावा करते रहो, और आखिर में उपमुख्यमंत्री पद लेकर समझौता कर लो. लेकिन, लोकतांत्रिक मर्यादा क्या कहती है? इस मर्यादा के अनुसार इस गठजोड़ में शिवसेना को बराबर के मंत्रलय नहीं मिलने चाहिए.

विधायकों की संख्या के हिसाब से भाजपा का हिस्सा सरकार में शिवसेना के मुकाबले दुगुना होना चाहिए. अगर ठाकरे परिवार की मांगों के सामने भाजपा झुकी, तो उससे गठजोड़ राजनीति के अलिखित लेकिन स्थापित नियमों का कोई महत्व नहीं रह जाएगा.

अगर इतिहास में जाएं तो दिखाई पड़ता है कि भाजपा किसी अन्य लक्ष्य को वेधने के लिए अधिक संख्या होते हुए भी छोटी पार्टियों को सत्ता देती रही है. उत्तर प्रदेश में उसने मुलायम सिंह को सत्ता में आने से रोकने के लिए मायावती को एकाधिक बार मुख्यमंत्री बनाया, जबकि उसके पास 170 के आसपास विधायक होते थे, और मायावती के पास पचास-साठ. लेकिन, उस राजनीति का नुकसान यह हुआ कि भाजपा पंद्रह साल के लिए प्रदेश की सत्ता से बाहर हो गई.

महाराष्ट्र की राजनीति में इसका उल्टा इतिहास दिखता है. 1999 में कमजोर चुनावी प्रदर्शन के बाद गोपीनाथ मुंडे ने शिवसेना के सामने ढाई-ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद के बंटवारे का प्रस्ताव रखा था. पर उस समय शिवसेना ने नहीं माना, और नतीजे के तौर पर लंबे अरसे के लिए दोनों पार्टियां सत्ता से बाहर हो गईं.

इस बार अगर यह गठजोड़ टूटा तो सबसे ज्यादा नुकसान शिवसेना को होगा. भाजपा विपक्ष में बैठेगी, और शिवसेना कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ एक अस्थिर और कमजोर सरकार चलाएगी. अगला चुनाव कभी भी हो सकता है, और तब भाजपा को अकेले दम पर सत्ता में आने से रोक पाना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं होगा. शायद यह भी एक नजारा है जिसे देखते हुए शिवसेना गठजोड़ तोड़ने की नौबत नहीं आने देगी.

दरअसल, यही है वह क्षण जब कोई पार्टी अपने फौरी लक्ष्यों और दूरगामी संभावनाओं के बीच एक नाजुक संतुलन तलाश करती है. महाराष्ट्र की चारों पार्टियां इस समय इसी ऊहापोह में लगी हुई हैं. चारों का वर्तमान ही नहीं, भविष्य भी दांव पर है. इस चुनाव में भले ही झटका लगा हो, पर भाजपा उछाल पर है, और प्रदेश में उसका लगातार विस्तार हो रहा है. पवार की राकांपा ने दिखाया है कि उसमें अभी बहुत जान बाकी है.

कांग्रेस को बिना प्रयास किए हुए वोट मिल गए हैं, इसलिए वह उन वोटों के आधार पर वापसी का एक नियोजित प्रयास कर सकती है. लेकिन, इनमें सबसे ज्यादा नाजुक स्थिति शिवसेना की है. जरा सी चूक होने पर अगले चुनावों में उसकी संभावनाओं पर असर पड़ सकता है.

हरियाणा और महाराष्ट्र में सरकारें कैसी भी चलें, इन चुनावों में दरअसल किसी की भी जीत नहीं हुई है. भाजपा के केंद्रीय आलाकमान को वोटरों का यह संदेश सुनाई दे गया होगा. बेरोजगारी बढ़ रही है. अर्थव्यवस्था की सुस्ती भी बढ़ती जा रही है. हर आंकड़ा नकारात्मक है. केवल स्टॉक एक्सचेंज उछाल पर दिख रहा है, और दूसरी ओर पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवाद की डुगडुगी भी पिट रही है. ये दोनों पहलू एक दूसरे को काट रहे हैं. लोकतंत्र एक नए मोड़ की प्रतीक्षा में है.

Web Title: Abhay Kumar Dubey Blog: Maharashtra Seeks new balance of power

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