अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: ढीले-ढाले गठजोड़ और कमजोर इच्छा-शक्ति

By अभय कुमार दुबे | Published: May 29, 2019 05:32 AM2019-05-29T05:32:53+5:302019-05-29T05:32:53+5:30

सबसे पहले कर्नाटक में कांग्रेस-जनता दल (एस) के गठजोड़ पर गौर करें. अगर कागज पर देखें तो इन दोनों पार्टियों के वोटों को जोड़ देने से भाजपा का सूपड़ा साफ हो जाना चाहिए था. लेकिन, हुआ उल्टा. क्यों? दरअसल, ये दोनों पार्टियां आपस में मिल कर भाजपा से लड़ने के बजाय एक-दूसरे से लड़ रही थीं.

Abhay Kumar Dubey Blog: Indian politics gives Narendra Modi a weak and Tactless opposition | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: ढीले-ढाले गठजोड़ और कमजोर इच्छा-शक्ति

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। (फाइल फोटो)

चुनाव-परिणामों के इस विश्लेषण के केंद्र में मेरा एक दावा है: भारतीय राजनीति ने नरेंद्र मोदी को शुरू से ही एक कमजोर और रणनीतिविहीन विपक्ष तोहफे के तौर पर दिया है. चुनावी मुहिम के दौरान धीरे-धीरे यह दिखाई देने लगा था कि विपक्ष में लोकसभा चुनाव जीतने की इच्छा-शक्ति उतनी प्रबल नहीं है, जितनी भाजपा में दिखाई पड़ रही थी. खासकर विपक्ष का गठजोड़-प्रबंधन बहुत खराब था. इसके तीन उदाहरणों पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाएगी. 

आइए, सबसे पहले कर्नाटक में कांग्रेस-जनता दल (एस) के गठजोड़ पर गौर करें. अगर कागज पर देखें तो इन दोनों पार्टियों के वोटों को जोड़ देने से भाजपा का सूपड़ा साफ हो जाना चाहिए था. लेकिन, हुआ उल्टा. क्यों? दरअसल, ये दोनों पार्टियां आपस में मिल कर भाजपा से लड़ने के बजाय एक-दूसरे से लड़ रही थीं. कांग्रेस पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के नेतृत्व में सुनिश्चित करने में जुटी हुई थी कि देवेगौड़ा की पार्टी चुनाव में हार जाए. सिद्धारमैया इस बात को छिपा भी नहीं रहे थे. उनकी तरफ से बार-बार अपने और देवेगौड़ा परिवार के बीच पुरानी राजनीतिक अनबन की चर्चा की जा रही थी. कांग्रेस आलाकमान के सामने साफ था कि कर्नाटक में क्या हो रहा है. पर उसने अपनी प्रादेशिक इकाई पर सहयोगी दल के साथ मिल कर चुनाव लड़ने के लिए कोई दबाव नहीं डाला. जो हो रहा था, उसे होने दिया गया. नतीजा यह निकला कि दोनों बुरी तरह हार गए. 2014 से भी ज्यादा बुरी तरह.  

अब आइए, उत्तर प्रदेश पर. सपा-बसपा-रालोद गठजोड़ से हर राजनीतिक पंडित को उम्मीद थी वह भाजपा को कड़ी टक्कर ही नहीं देगा, बल्कि उसे खासा नुकसान पहुंचाएगा. ऐसा क्यों नहीं हो सका? भाजपा समर्थकों को उम्मीद थी कि समाजवादी पार्टी के यादव समर्थन-आधार के वोट बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवारों को अपेक्षा के मुताबिक नहीं मिलेंगे. उन्हें यह भी उम्मीद थी कि शिवपाल यादव की नवगठित पार्टी यादव वोटों को काट लेगी, एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमान और जाट एक जगह वोट नहीं करेंगे.

भाजपा समर्थक यह भी चाहते थे कि कांग्रेस के उम्मीदवार कुछ मुसलमान वोटों को काट कर गठजोड़ को कमजोर कर दें. लेकिन, भाजपा की जीत इन दोनों कारणों से नहीं हुई.

दोनों पार्टियों (एक तरह से तीनों) के वोट आम तौर पर एक-दूसरे के उम्मीदवारों को मिले. इसीलिए उनका प्रतिशत चालीस के करीब पहुंच पाया. जो नहीं हुआ, वह दरअसल कुछ और ही, और कुछ जटिल किस्म का है. यह गठजोड़ तीन प्रभुत्वशाली जातियों (यादव, जाटव और जाट) की नुमाइंदगी करने वाली पार्टियों का था. ये समझती थीं कि अगर ये तीन समुदाय आपस में मिल जाएं, और भाजपा का विरोध करने वाले मुसलमान भी उनका एकमुश्त साथ दे दें तो वे चुनाव जीत लेंगे.

ऐसा मोटे तौर पर हुआ भी, लेकिन फिर भी मनचाहा परिणाम नहीं निकला. कुल मिला कर इन पार्टियों ने बाकी हिंदू समाज के वोट पाने की कोशिश नहीं की, और भाजपा के लिए खुला मैदान छोड़ दिया. दूसरे, 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने जो सामाजिक गठजोड़ (ऊंची जातियां, गैर-यादव पिछड़ी जातियां और गैर-जाटव दलित जातियां) बनाया था, उसे तोड़ने का महागठबंधन ने कोई प्रयास नहीं किया.

गोरखपुर का उपचुनाव जिस निषाद पार्टी के दम पर जीता गया था, उसे भी नाराज करके भाजपा के पाले में धकेल दिया गया. राजभरों के नेतृत्व के बीच पाई जाने वाली भाजपा विरोधी भावना को भी महागठबंधन ने भुनाने का प्रयास नहीं किया. अंत में ओम प्रकाश राजभर ने जो विद्रोह किया, वह अपने दम पर व देर से किया. इसलिए खास असर नहीं पड़ा.

तीसरा उदाहरण बिहार का है. राष्ट्रीय जनता दल की अगुवाई में बनाया गया भाजपा विरोधी गठजोड़ कागज पर तो भाजपा-नीतीश-पासवान गठजोड़ से कमजोर था ही, वह आपसी एकता के मामले में बहुत बुरी स्थिति में साबित हुआ. लालू यादव के परिवार में जो आपसी कलह था, वह 2017 में उ.प्र. के ‘समाजवादी’ परिवार के आपसी कलह की याद दिला देता था. सीटों के बंटवारे के सवाल पर यह गठजोड़ लगातार संकट का सामना करता रहा. जब बंटवारा हुआ भी तो देखने से ही लग रहा था कि इसके पीछे कोई सटीक सोच-विचार नहीं है.

मसलन, राजग छोड़ कर आए उपेंद्र कुशवाहा को चार सीटें दे दी गईं जबकि उनके पास लड़ाने के लिए चार उम्मीदवार नहीं थे और वे खुद दो सीटों पर लड़ रहे थे. इसके उलट भाजपा ने दूरंदेशी दिखाते हुए नीतीश और पासवान को अपने खाते से सीटें दीं, फायदा उठाया और चुनावों पर जबर्दस्त झाड़ मारी. 

कमोबेश इससे मिलती-जुलती स्थितियां सारे देश में भाजपा विरोधी शक्तियों की थीं. उनके गठजोड़ बिखरे हुए, कमजोर और एक हद तक दिशाहीन रणनीतियों और कार्यनीतियों की चुगली खा रहे थे. यह ठीक है कि पुलवामा और बालाकोट ने नरेंद्र मोदी को राष्ट्रवादी जज्बात उभारने का मौका दे दिया था. लेकिन, विपक्ष ठीक से लड़ता तो भाजपा भले ही जीत जाती,  चुनाव-परिणाम एकतरफा न होकर नजदीकी होते.  

Web Title: Abhay Kumar Dubey Blog: Indian politics gives Narendra Modi a weak and Tactless opposition