अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: दो नहीं, कई धार हैं इस नागरिकता कानून में
By अभय कुमार दुबे | Updated: December 18, 2019 07:03 IST2019-12-18T07:03:05+5:302019-12-18T07:03:05+5:30
उत्तर भारत और मध्य भारत में यह कानून मुस्लिम समाज में आंदोलनकारी बेचैनियां पैदा कर रहा है. अलीगढ़ विश्वविद्यालय और दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों के आंदोलन इसकी शुरुआती अभिव्यक्ति हैं.

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: दो नहीं, कई धार हैं इस नागरिकता कानून में
पहले मैं समझता था कि नया नागरिकता कानून दोधारी तलवार साबित होगा. लेकिन, जिस तरह घटनाक्रम चला है, उससे मैं यह सोचने पर मजबूर हो गया हूं कि शायद यह कानून एक ऐसी तलवार है जिसकी दो नहीं बल्कि कई धारें हैं. किस धार से यह कहां और किसको काटेगा, इसका अंदाजा लगाना अभी मुश्किल है.
उत्तर भारत और मध्य भारत में यह कानून मुस्लिम समाज में आंदोलनकारी बेचैनियां पैदा कर रहा है. अलीगढ़ विश्वविद्यालय और दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों के आंदोलन इसकी शुरुआती अभिव्यक्ति हैं. लेकिन, उत्तर-पूर्व में इस कानून के खिलाफ जो लोग सड़कों पर उतर पड़े हैं, वे वहां के मुसलमान न हो कर हिंदू हैं. वही हिंदू शहरी जिन्होंने और जिनकी पिछली पीढ़ियों ने वहां बहिरागतों के विरुद्ध अस्सी के दशक में एक लंबा जुझारू आंदोलन चलाया था.
दक्षिण भारत में भी इस कानून का विरोध हो रहा है, लेकिन वहां इसका आधार यह है कि श्रीलंका के तमिलों को शरण देने का प्रावधान इसमें क्यों नहीं है. जल्दी ही इस कानून के कुछ और पहलू भी सामने आएंगे, जिनके बारे में हम अभी अनुमान भी नहीं लगा सकते.
इस कानून का एक ऐसा चेहरा भी है जिसके नाक-नक्श तब नुमाया होंगे, जब इसके साथ नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजनशिप (एनआरसी) का राष्ट्रीय संस्करण भी जुड़ जाएगा. रक्षा मंत्री और गृह मंत्री पूरी जोरदारी से बार-बार यह दावा कर रहे हैं, इसलिए यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि ऐसा न केवल हो कर रहेगा, बल्कि जल्दी ही होता दिखाई देगा.
असम में एनआरसी का हाल हम देख ही चुके हैं. मुङो तो यह सोच कर ही उलझन होने लगती है कि जब दिल्ली और उत्तर प्रदेश के साथ-साथ देश के अन्य हिस्सों में एनआरसी लागू होगा तो क्या होगा? मेरे जैसे लोग हों (जिनके बाप-दादों ने आजादी की लड़ाई में अपनी जिंंदगी खपा दी) या कोई भी और हो, सभी को इस रजिस्टर में अपना नाम दर्ज करवाने के लिए आवेदन करना होगा.
प्रमाण के लिए दस्तावेज पेश करने होंगे. जरा सोचिए, अगर पैन कार्ड और आधार में दिए गए तथ्यों में मिलान न हुआ तो नागरिकता संदिग्ध हो जाएगी. पिछले दिनों जब आयकर दाखिल करने के लिए इन दोनों दस्तावेजों में ऑनलाइन समरसता की शर्त लगाई गई थी, तो न जाने कितने करदाता इस तरह की समस्या में फंस गए थे.
यह तो हुए हमारे-आप जैसे मध्यवर्गीय लोगों के एनआरसी से जुड़े अंदेशे. अल्पसंख्यकों और अन्य धर्म से जुड़े गरीबों के बारे में तो सोच कर दिल ही दहल जाता है. उनमें बहुतों के पास तो पर्याप्त दस्तावेज ही नहीं होंगे. हालात कुछ इस तरह के हैं कि इस देश की गरीब जनता कानूनी और गैरकानूनी के बीच जो अपरिभाषित धूसर क्षेत्र होता है- उसकी वासी होने के लिए अभिशप्त है. इ
सका उदाहरण देखना हो तो दिल्ली पर नजर डालनी चाहिए. राजधानी इस समय उत्तर प्रदेश और बिहार से आए हुए ग्रामीण पृष्ठभूमि के बेहद गरीब मजदूरों से भरी पड़ी है. रोज मेहनत करके दो जून की रोटी कमाने वाले इन लोगों के पास अपने भारतीय होने की कानूनी प्रामाणिकता दिखाने की क्षमता न के बराबर है.
ये लोग गैर-कानूनी बस्तियों में रहते हैं. बिजली चुरा कर अपना काम चलाते हैं. बार-बार उजाड़े जाने और फिर से बसने के सिलसिले में ही इनकी जिंदगी गुजरती है. ये सब लोग (जिनकी संख्या बहुत विशाल है) एनआरसी में उसी तरह से फंसेंगे जिस तरह असम में फंसे हैं. उस सूरत में इनका क्या होगा? एनआरसी उन्हें नागरिकता के दायरे से बाहर निकाल देगा, तब उन्हें दोबारा भारत का नागरिक कौन बनाएगा?
पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से ‘धार्मिक उत्पीड़न’ के शिकार हिंदुओं को तो भारत में बिना दस्तावेज नागरिकता मिल जाएगी, लेकिन भारत में पीढ़ी-दर-पीढ़ी रह रहे लोगों (जिनमें हिंदुओं की बहुत बड़ी संख्या होगी) को अपनी नागरिकता प्रमाणित करने के लिए संघर्ष करना होगा.
नए नागरिकता कानून और उसके बाद आने वाले एनआरसी से जुड़े अंदेशों की परवाह न करते हुए भाजपा की सरकार इसे एक विचारधारात्मक प्रोजेक्ट की तरह लागू करने पर तुली है. ऐसा लगता है कि वह इसकी राजनीतिक कीमत चुकाने के लिए भी तैयार है. असम में उसकी सरकार मोटे तौर पर ठीक-ठाक चल रही थी.
प्रदेश का विकास करने के नए रास्ते खोलने हेतु जापान के प्रधानमंत्री को गुवाहाटी बुलाया गया था. लेकिन प्रदेश में आंदोलन के हालात के कारण यह पूरा कार्यक्रम टालना पड़ा. स्थिति यह है कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को असम जाने से पहले दो बार सोचना होगा. दबाव इतना है कि सरकार के भीतर नए नागरिकता कानून में संशोधन करके असम को शांत करने के बारे में सोचने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है.
जब भी मैं अपने भाजपा के मित्रों के सामने ये अंदेशे रखता हूं तो वे थोड़े गंभीर हो कर कहते हैं कि नहीं, नहीं, ऐसा नहीं होगा. सरकार एनआरसी लागू करने का कोई सरल और तर्कसंगत तरीका खोज निकालेगी. लेकिन, नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के दम पर निश्चिंत इन लोगों को यह नहीं मालूम है कि राजनीति में लोकप्रिय असंतोष इसी तरह से अपने भड़कने का ‘ट्रिगर पाइंट’ खोजता है.