100 Years Of Sangh: भारतीयता की भावना को मजबूती देते मोहन भागवत

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: September 6, 2025 05:14 IST2025-09-06T05:14:49+5:302025-09-06T05:14:49+5:30

1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा स्थापित यह संगठन कोई खास प्रयोग नहीं था, बल्कि यह एक सांस्कृतिक शक्ति है, जो दूसरी सदी की अपनी यात्रा की तैयारी कर रही है.

100 Years Of Sangh RSS Chief Mohan Bhagwat strengthens spirit Indianness blog Prabhu Chawla | 100 Years Of Sangh: भारतीयता की भावना को मजबूती देते मोहन भागवत

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Highlightsभाषा, हिंदूवाद, गोपनीयता, जनसंख्या, तकनीक, जातिगत आरक्षण जैसे मुद्दों पर श्रोताओं के दो सौ प्रश्नों के उत्तर दिए. मोहन भागवत द्वारा अपनेपन को संघ का मुख्य सिद्धांत बताया जाना ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का ही उदाहरण है.दार्शनिक आह्वानों के बावजूद आरएसएस को उसके धर्मनिरपेक्ष शत्रुओं की गहन जांच से गुजरना पड़ता है.

प्रभु चावला

कुछ आवाजें होती हैं, जो घाव देती हैं, जबकि कुछ आवाजें होती हैं, जो मरहम का काम करती हैं. कुछ लोग बोलते हैं तो आक्रामक हो जाते हैं. जबकि कुछ लोग देश की आत्मा के बारे में बात करने की कोशिश करते हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत दूसरी श्रेणी में आते हैं, जिनकी शांत मुस्कराहट और स्पष्टवादिता संघ की करीब एक शताब्दी प्राचीन विशेषताओं- संयम, धरती से जुड़ाव और भारत की ऐतिहासिक सांस्कृतिक निरंतरता- के बारे में बताती है. पिछले सप्ताह आरएसएस के सौ वर्ष की यात्रा के उपलक्ष्य में नई दिल्ली के विज्ञान भवन में अपनी तीन दिवसीय संवाद शृंखला में उन्होंने स्पष्ट किया कि 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा स्थापित यह संगठन कोई खास प्रयोग नहीं था, बल्कि यह एक सांस्कृतिक शक्ति है, जो दूसरी सदी की अपनी यात्रा की तैयारी कर रही है.

संघ के इतिहास में पहली बार इसके प्रमुख ने भाषा, हिंदूवाद, गोपनीयता, जनसंख्या, तकनीक, जातिगत आरक्षण जैसे मुद्दों पर श्रोताओं के दो सौ प्रश्नों के उत्तर दिए. उन्होंने कहा कि वह आरक्षण का समर्थन करते हैं. उनके मुताबिक, हिंदू वह है जो भारतीयता में विश्वास करता है और जिसकी जड़ भारतीय संस्कृति में है. लेकिन घुसपैठियों को बाहर किया जाना चाहिए.

उनके मुताबिक, हर क्षेत्रीय भाषा राष्ट्रभाषा है, जबकि विदेशी भाषा थोपना अस्वीकार्य है. आरएसएस के कार्यालय और शाखाओं के आलोचकों से उन्होंने कहा कि पूर्वाग्रह के बजाय वे खुद वहां जाकर कोई राय बनाएं. उन्होंने यह भी कहा कि जनसंख्या के मामले में ‘हम दो-हमारे तीन’ की नीति उदारवादी और सांस्कृतिक रूप से सजग नीति है.

उनका संदेश स्पष्ट था : संघ कोई पहेली या रहस्य नहीं है. या तो इसके अंदर आकर खुद देखिए या फिर गढ़े गए विमर्श को त्याग दीजिए. दशकों तक संघ अंतर्मुखी तथा अपने स्वयंसेवकों को गढ़ने में व्यस्त रहा. लेकिन अब यह विचारों के वैश्विक बाजार में खुद को एक वार्ताकार के रूप में पेश कर रहा है. मोहन भागवत द्वारा अपनेपन को संघ का मुख्य सिद्धांत बताया जाना ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का ही उदाहरण है.

तमाम दार्शनिक आह्वानों के बावजूद आरएसएस को उसके धर्मनिरपेक्ष शत्रुओं की गहन जांच से गुजरना पड़ता है. राहुल गांधी समेत दूसरे आलोचक इसे एक ऐसा कट्टर राष्ट्रवादी भारतीय संगठन बताते हैं, जो अपने अखंड सांस्कृतिक एजेंडे को मूर्त रूप देने के लिए अल्पसंख्यक समुदायों को हाशिये पर रखता है. भागवत के विचार सिर्फ आरएसएस के लिए नहीं, भारत के लिए भी महत्वपूर्ण हैं.

अगर पहली सदी में संघ का जोर एकत्रीकरण और नियंत्रण पर था, तो दूसरी सदी में शायद वह व्याख्या और संवाद पर जोर दे. अब जब आरएसएस एक सदी की यात्रा पूरी कर दूसरी सदी में प्रवेश कर रहा है, तब इसे अपने समावेशी रुख को बरकरार रखना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अल्पसंख्यक आवाजों को न सिर्फ आमंत्रित किया जाएगा, बल्कि उन्हें सुना भी जाएगा.

इसे जाति और क्षेत्रवाद जैसे आंतरिक मुद्दों पर बात करनी चाहिए और अपनी सच्ची अखिल भारतीय छवि बनानी चाहिए. डिजिटल प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल कर यह संगठन युवा पीढ़ी तक अपनी बात पहुंचा सकता है, गलत सूचनाओं का मुकाबला कर सकता है और ‘अपनेपन’ के नजरिये को विस्तार दे सकता है.

जब मोहन भागवत ने आलोचकों से संघ की शाखाओं तथा कार्यालयों में आने का आह्वान किया, तो संदेश साफ था- हम भारत हैं और कुछ छिपाते नहीं. इसका पता तो तभी चलेगा, जब बस्तर का एक ग्रामीण, अलीगढ़ का एक छात्र और चेन्नई का एक कामगार आपस में भाईचारा निभाते दिखाई देंगे. सवाल यह है कि क्या हम विभिन्नता को खत्म किए बिना एकता स्थापित कर सकते हैं. इस पर आरएसएस का उत्तर न सिर्फ उसका अपना भविष्य, बल्कि भारत की नियति भी तय करेगा.

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