राजौरी में कहीं ‘इताई-इताई’ तो नहीं है ?
By पंकज चतुर्वेदी | Updated: February 15, 2025 09:58 IST2025-02-15T09:56:21+5:302025-02-15T09:58:21+5:30
केन्द्रीय मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह द्वारा लखनऊ की सरकारी प्रयोगशाला के अध्ययन के मुताबिक ही कैडमियम की बात कही गई है और यह गहन अन्वेषण का विषय है कि इस गांव में कैडमियम की मात्रा खाद्य श्रृंखला में कैसे पहुंच गया?

राजौरी में कहीं ‘इताई-इताई’ तो नहीं है ?
पनीर की तरह दुग्ध उत्पाद ‘कलाड़ी’ के लिए मशहूर राजौरी जिले का एक छोटा सा गांव बड्डाल बीते दो महीने में 17 संदिग्ध मौतों के कारण कोविड के दिनों की तरह आइसोलेट कर दिया गया था. हालांकि इस गांव के जिन 16 मरीजों का इलाज विभिन्न अस्पतालों में चल रहा था, वे अब पूरी तरह स्वस्थ हैं.
यह अकेले चिंता ही नहीं बल्कि भविष्य के लिए सतर्कता का विषय है कि आखिर एक गुमनाम गांव के गरीब से मजदूर किस्म के लोगों तक यह जहर या भारी धातु किस तरह उनके भोजन तंत्र में शामिल हो गई. यह बात तो तय हो गई है कि मरने वालों और मरीजों के शरीर में किसी किस्म का जहर नहीं पाया गया है.
केन्द्रीय मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह द्वारा लखनऊ की सरकारी प्रयोगशाला के अध्ययन के मुताबिक ही कैडमियम की बात कही गई है और यह गहन अन्वेषण का विषय है कि इस गांव में कैडमियम की मात्रा खाद्य श्रृंखला में कैसे पहुंच गया. यह बैटरी या इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के जला कर नष्ट करने, एनेमल पेंट जैसी वस्तुओं के प्रकृति में खपाए जाने से ही संभव है.
बड्डाल गांव हिमालय की पीर पंजाल श्रृंखला की गोद में है और यहां से बहुत सी जल धराएं बहती हैं. चिनाब की सहायक नदी आन्सी, बड्डाल से हो कर गुजरती है. बड़ी संभावना है कि पानी के माध्यम से भारी धातु इंसान के शरीर में पहुंची.
विदित हो बड्डाल और उसके आसपास बहुत सी नदियां और छोटी सरिताएं हैं. इसके अलावा चंदन, सुख, नील, हानडु सहित कई ‘सर’ अर्थात तालाब हैं. यहां की बड़ी आबादी पानी के लिए झरने या इन्हीं नैसर्गिक सरिताओं पर निर्भर है. चूंकि इस इलाके में कोयला, चूना , बॉक्साइट, लौह अयस्क और बेन्टोनाइट जैसे अयस्क मिलते हैं और अवैध खनन यहां की बड़ी समस्या रहा है.
ऐसे में खनन अवशेषों के जल धाराओं में मिलने से उसमें भारी धातु की मात्रा बढ़ने की संभावना है. ऐसे मामले पहले मेघालय में देखे गए हैं जब अवैध कोयला खनन के अवशेषों के चलते नदी का पानी नीला हुआ और उसमें मछली सहित जलचर मारे गए.
सन् 1912 के आसपास जापान में तोयामा बेसिन की जीनजू नदी के किनारे रहने वाले लोगों को जब शरीर के जोड़ों में भयानक पीड़ा और सांस की दिक्कतें शुरू हुई तो इसे ‘इताई –इताई’ (जापानी में जोड़ में दर्द के कारण आउच औच ) का नाम दे दिया गया.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद सन् 1946 में जब इन मामलों की गंभीरता से जांच की तो पता चला कि नदी के किनारों पर भारी खनन के कारण पानी में केडमियम की मात्रा बढ़ने से यह रोग फैला. जोड़ों में दर्द, उसके बाद किडनी और फेफड़ों का काम करना बंद होने से कई मौतें हुई. 1955 तक इस रोग की सार्वजनिक चिकित्सा तंत्र में चर्चा भी नहीं हुई.
1961 के बाद नदी के पानी और उस पानी के उपयोग से पैदा हो रही धान और सब्जियों में कैडमियम की जानलेवा मात्रा का पता चला. गौर करें बड्डाल के भौगोलिक हालत और मरीजों की स्थिति जीनजू नदी के किनारे बसे लोगों से मिलती-जुलती है.