गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: हौव्वा नहीं, बल्कि छात्रों के समग्र आकलन का आधार बने परीक्षा
By गिरीश्वर मिश्र | Published: July 23, 2020 05:54 AM2020-07-23T05:54:34+5:302020-07-23T05:54:34+5:30
परीक्षा के अंकों की मारामारी के चलते कुंठा, हताशा, ईर्ष्या और असफलता के नए आयाम खुलते जा रहे हैं. बहुत से विद्यार्थी तनाव और मानसिक यंत्रणा झेलने लगते हैं.
पिछले कुछ दिनों में अनेक स्कूली बोर्डों के परीक्षाफल प्रकाशित हुए हैं. परीक्षा और परीक्षा के अंक छात्र-छात्राओं और उनके अभिभावकों के लिए सफलता की निर्णायक कसौटी हो चुके हैं. उनमें अधिकाधिक अंक पाना ही शिक्षा की सफलता का मानदंड बन चुका है.
परीक्षा परिणामों को देखकर सभी चकित हैं. सबसे चौंकाने वाली बात है कि 90-95 प्रतिशत अंक पाने वाले विद्यार्थियों का प्रतिशत बड़ी तेजी से बढ़ा है और सीबीएसई में एक विद्यार्थी का पूर्णांक और प्राप्तांक दोनों बराबर हैं. अर्थात सभी विषयों में शत प्रतिशत अंक मिले हैं.
निश्चय ही विद्यार्थी जहीन होगा और बधाई का पात्र है परंतु इस तरह की उपलब्धि बढ़ने के आंकड़े में वृद्धि कुछ और भी संकेत करती है. इस स्थिति का अर्थ यह भी लिया जा सकता है बुद्धि और प्रतिभा में आनुवंशिक या पर्यावरण में सकारात्मक बदलाव आया है और इसमें शक नहीं कि बच्चों की बौद्धिक परिपक्वता बढ़ी है.
अत: अंशत: यह सत्य भी हो सकता है परंतु इसका कोई खास कारण नहीं दिखता सिवाय इसके कि सामिष (नानवेज) खाने और मीडिया तथा इंटरनेट से जुड़े उपकरणों के उपयोग की मात्रा तेजी से बढ़ी है, आवागमन में आसान हुआ है और लोग देशाटन से भी कुछ ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं.
इसी तरह स्कूल की पढ़ाई के बाद कोचिंग और ट्यूशन का प्रचलन भी खूब हुआ है. इस प्रकार कुछ अतिरिक्त शारीरिक और मानसिक पोषण मिलने की गुंजाइश बनती दिखती है (यद्यपि फास्ट फूड और व्यसन के नकारात्मक असर भी बढ़े हैं) पर इन सबके आधार पर होने वाले कुल नफा-नुकसान को ले-देकर परीक्षा परिणाम में इन सबका सम्मिलित योगदान कितना है, यह सिर्फ अनुमान का ही विषय है और प्रामाणिक रूप से ज्ञात नहीं है.
दूसरी बात जिधर ध्यान जाता है, वह शिक्षा और परीक्षा की चालू व्यवस्था है जिसमें सिर्फ परीक्षा में निष्पादन (परफॉर्मेंस) पर पूरी तरह से टिके प्राप्तांक को ही तरजीह मिलती है. ऐसा मानने के प्रबल आधार हैं कि परीक्षा में प्राप्त होने वाले अंकों में आजकल जिस तरह के अप्रत्याशित उछाल देखे जा रहे हैं, उसका कारण शिक्षा और परीक्षा की पद्धति और प्रक्रिया में भी मौजूद है.
यही अधिक प्रासंगिक कारण प्रतीत होता है. मूल्यांकन का आधार वस्तुनिष्ठ प्रश्न और सीमित शब्द सीमा वाले प्रश्नोत्तर होते जा रहे हैं. परीक्षा और मूल्यांकन के दौरान अनुचित साधन प्रयोग की घटनाओं को छोड़ दें (जो कई क्षेत्रों में घोर समस्या है) तो परीक्षा की बेला में लिखित परीक्षा में पुनरुत्पादन की शुद्धता और सटीकता ही विद्यार्थियों के ज्ञान को जांचने का एकमात्र आधार हुआ करता है.
इस पूरी प्रक्रिया में सृजनात्मकता लगभग अनुपस्थित रहती है (प्रश्नों की लंबी संख्या और पिछले वर्ष के प्रश्नपत्र को छोड़ दें तो नए सवाल की गुंजाइश समाप्तप्राय सी होती है). पढ़ाई के सत्र के एक पूरे वर्ष में किसी विषय में कितना ज्ञान अर्जित हुआ, इसका प्रदर्शन विद्यार्थी को तीन घंटे में करना होता है और वही उसकी दक्षता का प्रमाण बन जाता है.
परीक्षा हौव्वा बनकर आती है और विद्यार्थी और अभिभावक के लिए तनाव का एक बड़ा कारण हो जाती है.
यांत्रिक रूप से संचालित सिर्फ परीक्षा पर केंद्रित शिक्षा की वर्तमान व्यवस्था के परिणाम ज्ञान के अर्जन और सृजन के प्रति हमारे दृष्टिकोण को बुरी तरह से क्षतिग्रस्त कर रहे हैं.
शिक्षा (प्रक्रिया) की जगह परीक्षा (फल) को सुनिश्चित कर पाने की तीव्र लालसा के चलते हम ज्ञान के क्षेत्र में पिछड़ रहे हैं और यहां के शोध कार्य की गुणवत्ता को लेकर प्रश्न खड़े हो रहे हैं.
परीक्षा के अंकों की मारामारी के चलते कुंठा, हताशा, ईर्ष्या और असफलता के नए आयाम खुलते जा रहे हैं. बहुत से विद्यार्थी तनाव और मानसिक यंत्रणा झेलने लगते हैं. और तो और, अंकों के उछाल के चलते 90-95 प्रतिशत अंक लेकर भी विद्यार्थी को वांछित महाविद्यालय में और मनचाहे विषय में प्रवेश की गारंटी नहीं रह गई है.
सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से परीक्षा के परिणाम घातक होते जा रहे हैं. सीखने की प्रधानता वाले ज्ञान युग के रूप में जाने जा रहे आज के दौर में भारत में कुछ ज्ञान द्वीप तो बने हैं पर सामान्य माहौल डराने वाला हो रहा है.
शिक्षा की प्रक्रिया में ज्ञान पाने की लगन, कार्यानुभव और कुशलता को शामिल करना अत्यंत आवश्यक हो गया है. इसकी पात्रता आ जाए, इसी का प्रमाण मूल्यवान होना चाहिए और यह सतत विकसित होने वाली व्यवस्था होनी चाहिए.