Latur Maharashtra Farmer Couple: हाल ही में सोशल मीडिया पर एक छोटा-सा वीडियो वायरल हुआ था. आपने भी देखा होगा एक बूढ़ा किसान बैल बनकर अपने खेत को जोत रहा है. उसे कितनी ताकत लगानी पड़ रही है इस काम में, इसका अहसास उसके चेहरे को देखकर अनायास ही हो जाता है. उसके पीछे से टेका देने का काम उसकी बूढ़ी पत्नी कर रही है. यह चित्र लगभग 70 वर्षीय किसान अम्बादास पवार और उसकी पत्नी का है. चार बीघा जमीन है दोनों के पास. पर हल चलाने के लिए बैल खरीदना उसके बस की बात नहीं है. इसलिए वह खुद बैल बन गया है!
ज्ञातव्य है कि यह दृश्य उस महाराष्ट्र का है जिसकी गणना देश के विकसित राज्यों में होती है. ज्ञातव्य यह भी है कि देश में किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं में महाराष्ट्र के किसानों की संख्या सर्वाधिक है- पिछले तीन महीनों में अर्थात अप्रैल, मई, जून 2025 में महाराष्ट्र में 767 किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा है!
पचपन साल पहले देश में हरित क्रांति हुई थी. यह एक सच्चाई है. कृषि क्षेत्र में हमारे कृषि वैज्ञानिकों और हमारे किसानों ने 1970 में इस सच्चाई को साकार किया था. लेकिन यह सच्चाई जितनी मीठी है, उतनी ही कड़वी यह सच्चाई भी है कि हरित क्रांति के बावजूद हमारे किसानों की हताशा के फलस्वरुप देश में होने वाली आत्महत्याओं की संख्या लगातार डरावनी बनी हुई है.
यह एक खुला रहस्य है कि कृषि क्षेत्र में विकास के सारे दावों के बावजूद अधिसंख्य किसान अभावों की जिंदगी ही जी रहे हैं. किसानों की दुर्दशा के जो कारण बताए जाते हैं, उनमें सबसे पहला स्थान ऋण का है. साहूकारों से, बैंकों से और अन्य सरकारी एजेंसियों से हमारा किसान ऋण लेता है. और यह ऋण समाप्त होने का नाम ही नहीं लेता!
जिन्हें ऋण मिल जाता है, उनकी जिंदगी उसे चुकाने में कट जाती है. आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं है. किसी सवाल का जवाब भी नहीं है. मदद के लिए किसी हताश व्यक्ति का अंतिम चीत्कार ही कहा जा सकता है इसे. लेकिन यह कतई जरूरी नहीं है कि स्थितियां इस मोड़ तक पहुंचें ही. अम्बादास की विवशता के लिए उस व्यवस्था को जवाब देना होगा जिसमें वह जी रहा है.
प्राप्त आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2022 में भारत में कृषि-क्षेत्र से जुड़े लगभग 11 हजार किसानों और कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की थी. सन् 2014 में यह संख्या 5650 आंकी गई थी. इन आत्महत्याओं के लिए मानसून की असफलता, कीमतों में वृद्धि, ऋण का बोझ आदि को उत्तरदायी बताया जा रहा है.
बरसों पहले एक फिल्म आई थी ‘मदर इंडिया’. इसमें नायिका को अम्बादास की तरह ही हल खींचते हुए दिखाया गया था. बचपन में देखी फिल्म का वह दृश्य आज भी आंखों में आंसू ला देता है. उम्मीद ही की जा सकती है कि उस फिल्म की यह पुनरावृत्ति–अम्बादास का हल जोतना–कहीं न कहीं जिम्मेदारी का भाव जगाएगी;
आत्महत्या के लिए विवश किसानों के लिए कहीं कोई आंख नम होगी. पिछले पचपन साल से चल रहा आत्महत्याओं का यह सिलसिला हर कीमत पर बंद होना चाहिए. यह मामला राष्ट्रीय शर्म का है, पर ‘शर्म उनको मगर नहीं आती’ जिन्हें आनी चाहिए.