India financial situation: 18 प्रदेशों की आर्थिक सेहत गंभीर?, कर्ज के जाल से कैसे बाहर निकलेगा देश, रेवड़ी बांटने का...

By राजेश बादल | Updated: January 30, 2025 05:43 IST2025-01-30T05:43:43+5:302025-01-30T05:43:43+5:30

India's financial situation: रपट कहती है कि छोटे राज्य ओडिशा, छत्तीसगढ़ और गोवा मुल्क में सबसे अच्छी वित्तीय तंदुरुस्ती वाले हैं और इसी क्रम में पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं.

India's financial situation Economic health 18 states serious How country come out debt trap blog Rajesh Badal | India financial situation: 18 प्रदेशों की आर्थिक सेहत गंभीर?, कर्ज के जाल से कैसे बाहर निकलेगा देश, रेवड़ी बांटने का...

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Highlightsरिपोर्ट चेतावनी दे रही है कि अगर कर्ज पर काबू नहीं पाया गया तो हालात भयावह हो सकते हैं. छोटे प्रदेश भी ऋण के बोझ से बदहाल हैं और बड़े भी. कम ब्याज करीब सात प्रतिशत चुकाकर भी पैसा बचाने में कामयाब रहे हैं.

India's financial situation: स्थिति गंभीर है. भारत की वित्तीय स्थिति के लिए गंभीर चेतावनी. कर्ज लेकर घी पीने की प्रवृत्ति ने देश और प्रदेशों को उस बारीक जाल में उलझा दिया है, जिससे बाहर निकलने का रास्ता फिलहाल तो अंधी सुरंग में जाता है. यह खुलासा किसी गोपनीय दस्तावेज के उजागर होने से नहीं हुआ है और न ही यह प्रतिपक्ष का आरोप है. नीति आयोग की ताजा रिपोर्ट में 18 प्रदेशों की आर्थिक सेहत पर गंभीर चिंता जताई गई है. रिपोर्ट चेतावनी दे रही है कि अगर कर्ज पर काबू नहीं पाया गया तो हालात भयावह हो सकते हैं. रिपोर्ट 2022-23 के दरम्यान की है.

इससे यह तथ्य कमजोर पड़ता है कि छोटे प्रदेशों की आर्थिक स्थिति बड़े राज्यों की अपेक्षा बेहतर होती है क्योंकि छोटे प्रदेश भी ऋण के बोझ से बदहाल हैं और बड़े भी. रपट कहती है कि छोटे राज्य ओडिशा, छत्तीसगढ़ और गोवा मुल्क में सबसे अच्छी वित्तीय तंदुरुस्ती वाले हैं और इसी क्रम में पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं.

सभी 18 प्रदेशों में अपवाद के तौर पर झारखंड है, जिसने अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत बनाई है तथा उछलकर चौथे स्थान पर जा पहुंचा है. इन राज्यों ने धन का सही इस्तेमाल किया है. उन्होंने अपनी आमदनी का चार से पांच प्रतिशत विकास कार्यों में लगाया. इसके अलावा कमाई के अच्छे तरीके अपनाए. इससे यह राज्य कम ब्याज करीब सात प्रतिशत चुकाकर भी पैसा बचाने में कामयाब रहे हैं.

इस वजह से वे हर साल अपनी कमाई बढ़ा रहे हैं. स्पष्ट है कि पैसों का सही उपयोग उन्हें खुशहाली के रास्ते पर ले जा रहा है. दूसरी ओर हरियाणा, केरल, आंध्र, बंगाल और पंजाब सूची में सबसे निचले पायदान पर हैं. आंकड़ों के मुताबिक पंजाब सबसे खराब प्रदर्शन कर रहा है. बाकी चारों प्रदेश अपने संसाधनों के बलबूते पर्याप्त राजस्व जुटाने में नाकाम रहे हैं.

वे जो भी धन जुटाते हैं, उसका बड़ा हिस्सा कर्ज को चुकाने में चला जाता है. गाज मतदाताओं के लिए चलाए जा रहे विकास और कल्याणकारी कार्यक्रमों पर गिरती है व राज्य सरकारें शिक्षा, स्वास्थ्य, साफ पेयजल और बेरोजगारी जैसे क्षेत्रों में लचर प्रदर्शन करती दिखाई देती हैं. सरकारों का मानवीय चेहरा इसीलिए विकृत होता जा रहा है.

आप इसका यह मतलब भी निकालने के लिए स्वतंत्र हैं कि गुजिश्ता पंद्रह-बीस बरस में राज्यों के पास वित्त प्रबंधन में कुशल कारीगरों का अकाल होता गया है. चाहे उन राज्यों में कोई भी सियासी पार्टी राज कर रही हो. सभी पार्टियों के भीतर विशेषज्ञ राजनेताओं की कमी है. बड़े प्रदेशों में से एक मध्य प्रदेश को बानगी के तौर पर लेते हैं.

यह विराट प्रदेश बीते दस-पंद्रह साल में वित्तीय कुप्रबंधन के कारण कर्ज के कुचक्र में ऐसा फंसा है कि अब बाहर निकलने की कोई सूरत नहीं दिखाई देती. हर महीने इस राज्य को लगभग पांच हजार करोड़ रुपए का ऋण लेना पड़ रहा है. यदि वह कर्ज नहीं ले तो सरकारी कर्मचारियों को वेतन देना कठिन हो जाए.

मध्य प्रदेश में लगभग बीस हजार करोड़ रुपए लाड़ली बहना योजना के तहत महिलाओं को बांटे जाते हैं. पांच साल पहले इस प्रदेश पर कोई दो लाख करोड़ रुपए का ऋण था. पांच साल बाद कर्ज का आकार विकराल रूप धारण करते हुए लगभग सवा चार लाख करोड़ पर जा पहुंचा है. एक रिपोर्ट के अनुसार इस राज्य के प्रत्येक नागरिक पर लगभग साढ़े चार हजार करोड़ का ऋण है.

आमदनी बढ़ाने के लिए सरकार ने खेतों तक में शराब की दुकानें खोलीं ,मगर कोई लाभ नहीं हुआ. ताजा सूचना तो यह है कि राज्य सरकार अब 25 हजार करोड़ रुपए का नया कर्ज लेने जा रही है. यदि पिछले पांच साल में सारे प्रदेशों के लिए गए कर्ज का आंकड़ा देखें तो यह डराने वाला है. सन्‌ 2020-21 में इन राज्यों ने 6 .51 लाख करोड़ रुपए कर्ज लिया था.

पांच बरस बाद यानी 2024 -25 में यह बढ़कर 9.20 लाख करोड़ रुपए हो गया. जरा सोचिए, इन राज्यों की जब कर्ज लेने की सीमा समाप्त हो जाएगी तो क्या होगा? अगर केंद्र के कर्ज की राशि देखते हैं तो तस्वीर और विकराल रूप दिखाती है. आंकड़े कहते हैं कि आजादी के बाद 67 साल में अर्थात 2014 आते आते भारत पर लगभग 55 लाख करोड़ रुपए का कर्ज हो गया था.

लेकिन इसके बाद के दस साल में यह ऋण राशि बढ़कर 230 लाख करोड़ हो गई. किसी भी विकासशील राष्ट्र के लिए बेशक ऋण लेना आवश्यक होता है. मगर यह ऋण बढ़ते-बढ़ते इतने बड़े आकार का हो जाए कि उसके तमाम संसाधनों से प्राप्त कमाई केवल ऋण का ब्याज चुकाने के काम आए तो लगता है कि राष्ट्र की वित्तीय बस ठीक-ठाक नहीं चल रही है.

दरअसल चुनाव जीतने के लिए मुफ्त अनाज और हर महीने पैसा बांटने की आदत ने भारत के कोष का बंटाढार किया है. एक पार्टी एक घोषणा करती है तो दूसरी पार्टी उससे दो गुना मुफ्त वितरण की घोषणाएं करती है. चुनाव के बाद जीतने वाली पार्टी के लिए ये मुफ्त के ऐलान जी का जंजाल बन जाते हैं. गंभीर बात तो यह है कि यह भारतीय संविधान का मखौल उड़ाने वाली स्थिति है.

मगर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनेगा ? हम भूल गए हैं कि 34 साल पहले देश की आर्थिक सेहत इतनी खराब हो गई थी कि राष्ट्र को अपना 47 टन सोना विदेश में गिरवी रखना पड़ा था. भारत के पास आयात के लिए चंद रोज का विदेशी मुद्रा भंडार बचा था. देश दिवालिया होने के कगार पर था. यकीनन सोना गिरवी रखना शर्म की बात थी, लेकिन मरता क्या न करता.

रिजर्व बैंक ने इंग्लैंड और जापान के बैंकों से करार किया. बैंकों ने शर्त रखी कि सोना तभी गिरवी रखा जाएगा, जब वो भारत से बाहर किसी देश में रखा जाएगा. इस तरह जुलाई 1991 में 47 टन सोना गिरवी रखकर 400 मिलियन डॉलर जुटाए गए. स्पेशल प्लेन से बैंक ऑफ इंग्लैंड और बैंक ऑफ जापान भेजकर सोना गिरवी रखा गया.

लेकिन तब डॉक्टर मनमोहन सिंह जैसे वित्त विशेषज्ञ भारत के पास थे. वे न केवल गिरवी रखा सोना वापस लाने में कामयाब रहे बल्कि हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था को एक ऐसा मजबूत आधार दिया, जो समूचे संसार में एक मिसाल बन गया. अफसोस! आज भारत के पास डॉक्टर मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री भी नहीं हैं, जो राष्ट्र की वित्तीय नैया को पार लगा सकें.

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