जाति व्यवस्था पर ज़ोरदार मुक्का है 'आर्टिकल 15'

By रोहित कुमार पोरवाल | Published: July 3, 2019 12:02 PM2019-07-03T12:02:51+5:302019-07-03T18:58:59+5:30

बॉलीवुड फिल्म 'Article 15' के निर्देशक-लेखक अनुभव सिन्हा ने अपनी पिछली फिल्म 'Mulk' से भी दर्शकों को काफी प्रभावित किया था। इसके अलावा Tum Bin, Ra.One, Gulaab Gang जैसी कई और जबरदस्त फिल्मों से बॉलीवुड के गुलदस्ते को सजा चुके हैं।

Article 15: New chapter of Hindi cinema written by Anubhav Sinha, Bollywood should write more such Movies | जाति व्यवस्था पर ज़ोरदार मुक्का है 'आर्टिकल 15'

सभी तस्वीरें यूट्यूब और अन्य सोशल मीडिया माध्यमों से ली गई हैं।

HighlightsArticle 15 कभी समाज को बैलेंस करने के लिए बनी और अब अभिशाप का रूप ले चुकी जाति व्यवस्था पर न सिर्फ चोट करती है, बल्कि एक प्रेरणा देती है।अनुभव सिन्हा ने साबित किया है कि कम से कम बजट में अच्छी से अच्छी फिल्म कैसे बनाई जा सकती है।

कार्ल मार्क्स ने कहा था, ''मनुष्य इतिहास बनाता है मगर अपनी चुनी हुई परिस्थितियों में कभी नहीं।'' फ़िल्म आर्टिकल 15 देखते वक़्त इस बात का क़रीबी से साक्षात्कार किया। बंदायू गैंगरेप और उना दलित पिटाई कांड जैसी वीभत्स घटनाओं और संविधान के आर्टिकल 15 से प्रेरित फ़िल्म लिखकर निर्देशक अनुभव सिन्हा ने वास्तव में इतिहास लिखा है।

इतिहास बनाने की कोशिश कई लोग करते हैं लेकिन रेप कांड के ज़रिए जाति व्यवस्था की विडंबना पर अनुभव सिन्हा ने जिस ख़ूबसूरती से चोट की है, वह फ़िल्म को देख लेने के बाद कुंठा और अवसाद का दर्द नहीं छोड़ जाती है, बल्कि एक सॉल्यूशन देती है, एक आस जगाती है कि कलयुग को भी सबसे अच्छा युग बनाने की गुंजाइश है, बशर्ते सबसे पहले हज़ारों वर्षों से चली आ रही बीमारी का इलाज कर लिया जाए।

वास्तव में मनु महाराज ने अपने चार बेटों को जातियां नहीं, ज़िम्मेदारियां सौंपी होंगी। जैसे आज मैं पत्रकारिता का काम करता हूं तो इसके साथ भी अनकहे ही एक जाति जुड़ गई है। कुछ लोग कहते है कि 'पत्रकार या पत्रकारिता बिरादरी' से है।

समझदार लोग जाति को ज़िम्मेदारी भर ही लेते हैं और बीच में पनपे उस भ्रष्ट पुरोहिताबाद के चक्कर में नहीं फंसते है जो मनु महाराज के चार बेटों को ऊंचा, नीचा, होशियार और चालाक बनाता है। नफ़रत की वह फसल आज भी कट रही है।

श्रीमद भगवद्गीता तक में कर्मों के अनुसार जाति बदल जाने की बात कही गई है। मसलन शूद्र कुल में जन्म लेने वाला अगर ब्रह्मज्ञान पा ले तो वह शूद्र नहीं रह जाता है, बल्कि ब्राह्मण हो जाता है और उसको वैसी ही ज़िम्मेदारी का निर्वहन करना चाहिए। कहने का मतलब है कि एक बार फिर जाति नहीं, ज़िम्मेदारी वाली बात पुष्ट हो रही है। मनु संहिता में भी यही बात कही गई है लेकिन माने कौन?

विडंबना है कि जहां एक बड़ी तादाद में लोग ये कहते हुए दम नहीं हारते हैं कि भगवान दिखाई दे जाएं तो उनका अस्तित्व मान लेंगे लेकिन उसी समय वे अपनी तरह साक्षात दिखाई देने वाले दूसरे इंसानों को अपने सामान नहीं मान पाते हैं।

फ़िल्म देखते वक़्त यह अहसास ही नहीं होता है कि कोई ड्रामा चल रहा है। ऐसा लगता है कि एक हक़ीक़त पर्दे पर चल रही है। युवा आईपीएस ऑफिसर को उसके सीनियर से पनिशमेंट पोस्टिंग मिलती है। दिल्ली और यूरोप देखने के बाद उसका उसका पाला परछाई से अपवित्र करने वाले लोगों के गांव से पड़ता है।

फ़िल्म में वही सब है, जो हम देखते आये हैं या देखते हैं। मसलन, नीची जाति के लोग, ऊंची जाति के लोग, औक़ात, भ्रष्ट सिस्टम, सिस्टम को जेब में रखने वाला ठेकेदार, नाबालिग बच्चियों से बलात्कार और सबके बीच में एक नायक यानी फ़िल्म का लीड क़िरदार।

फ़िल्म का नायक अपर पुलिस अधीक्षक होते हुए भी भावुक और ईमानदार है। अपनी समस्याओं और चुनौतियों को प्रेमिका से साझा करता है। मैसेज करता है और उधर से समाधान मिलता है।

कुछ बातें छू जाती है जैसे कि फ़िल्म का नायक कहता है कि सबको हीरो चाहिए, जो आएगा और बचाएगा। प्रेमिका कहती है कि हीरो का इंतज़ार ही क्यों करना है? इस बात से नायक को मकसद मिल जाता है।

उसका ड्राइवर कहता है कि सब समान हो जाएंगे तो राजा कौन बनेगा? हीरो प्रेमिका से यही सवाल ठोक देता है। प्रेमिका कहती है कि राजा चाहिए ही क्यों है?

एक जगह फ़िल्म का नायक अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से उनकी जाति पूंछता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सब निकल आते हैं। उनके बीच में एक कायस्थ है, वह कहता है कि साब हम जातियों में नहीं आते, इससे बाहर हैं, हमारा कुछ अलग है। फ़िल्म लिखते वक़्त निश्चित तौर पर अनुभव सिन्हा को इस बात की टीस रही होगी क्योंकि वो भी ठहरे कायस्थ।

फ़िल्म में नेशनल सिक्यॉरिटी एक्ट झेल रहा एक दलित नायक कहता है कि ''हम कभी जन हो जाते हैं, कभी बहुजन हो जाते हैं, बस.. जन नहीं बन पा रहे हैं कि जन गण मन में हमारी भी गिनती हो जाए।'' वह अपनी प्रेमिका से लिपटकर रोता है। कहता है कि ऐसी जगह पैदा हो गए कि कभी तुम्हारे साथ नदी में पांव लटकाकर पांच मिनट नहीं बैठ पाए।

फ़िल्म का लीड नायक ब्राह्मण होते हुए सुआरताल में उतरने की हिम्मत दिखाता है और वर्जनाओं को उसके कीचड़ में मसल देता है। अब पूरी कहानी मैं नहीं बताऊंगा, उसके लिए फ़िल्म देखनी पड़ेगी।

सही मायने में अनुभव सिन्हा ने 'सिनेमा समाज का आईना है' वाली दम तोड़ रही कहावत को इस फ़िल्म के ज़रिए फिर से ज़िंदा कर दिया है और 'जो बिकता है वही चलता है' या 'जो दर्शक देखता है, हम वही दिखाते हैं' वाली कुपरिपाटी की कृपणता पर पल रहे और दर्शकों से उगाही कर रहे फिल्मकारों-कलाकारों के लिए एक चुनौती पेश की है। आर्टिकल 15 हिन्दी सिनेमा का नया अध्याय है और अनुभव सिन्हा से सबक लेकर बॉलीवुड को ऐसे और भी अध्याय लिखने चाहिए। 

'कुपरिपाटी' मुझे नहीं लगता है कि कोई शब्द है लेकिन कुछ करना है तो नए शब्द बनाने होंगे। फ़िल्म में लापता बच्ची को ढूंढने के लिए एक जगह प्रेमिका से हीरो कहता है कि "आय एम गोइंग टू अनमिस्ड हर"। प्रेमिका कहती है कि 'अनमिस्ड' जैसा कोई शब्द ही नहीं है और तब हीरो ऊपर वाला जवाब देता है।

यह चुनौती शायद आने वाले समय में कथित एलीट दर्जे के फ़िल्मी माफियाओं पर भारी पड़ सकती है क्योंकि यह फ़िल्म इंडस्ट्री में नए अध्याय के शुरू होने जैसी है।

आयुष्मान खुराना की अदाकारी का तो मैं पहले से फैन हूं लेकिन अब फ़िल्म के निर्देशक-लेखक अनुभव सिन्हा ने भी मुझे अपना मुरीद बना लिया है। चूंकि, फ़िल्म की पटकथा गौरव सोलंकी ने भी लिखी है तो उनका भी तहेदिल से आभार। फ़िल्म के बाकी क़िरदारों की अदाकारी ऐसी है कि जिसको जो रोल मिला, उसमें वो खो गया। भारी-भरकम डायलॉग नहीं हैं लेकिन फ़िल्म अपने कंटेंट और परफेक्शन के साथ उसे पेश किए जाने के तरीके से दर्शक को अपनी पूरी अवधि में कहीं भटकने नहीं देती है। फ़िल्म एक गाने से शुरू होती है और यहीं से दर्शक बंध जाता। आख़िर में आने वाला रैप कान के परदे तो नहीं, मन के कपाट ज़रूर झन्ना देता है।

फ़िल्म की पटकथा और निर्देशन के अलावा हर तकनीकी और ग़ैर तकनीकी पहलू पर करीने से काम किया गया है। कम बजट और मात्र तीन महीने में बनकर तैयार हुई यह फ़िल्म अपने हर पहलू पर कसी हुई है और ज़बरदस्त न्याय करती है। 

आर्टिकल 15 देख लेने के बाद मुझे 'शूल' फ़िल्म का नायक याद आया, जो जज़्बाती था और सिस्टम के खिलाफ खुद भी कई नुकसान उठाता है। वहीं, आर्टिकल 15 में फ़िल्म का हीरो जज़्बाती होने के साथ-साथ स्मार्ट भी हैं। अपने ख़तरे उसे पता होते है और वह स्मार्ट तरीके से काम करते हुए सफल तफ्तीश को अंजाम देता है और गुंहगारों को सज़ा मिलती है। लगता है  की डायरेक्टर ने जैसे एक सीख देने की कोशीश की है कि कैसे आज के युवा अफसर, जिनकी नई नियुक्तियां हो रही हैं, वे कैसे भ्रष्ट सिस्टम में स्मार्टली काम कर सकते हैं कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।

इण्डियन पुलिस सर्विसेज़ की तैयारी कर रहे लोगों को यह फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए।

वास्तव में, यह फ़िल्म नहीं, एक आंदोलन है जो आज़ादी के पहले और बाद से देश में अघोषित रूप से लड़ा जा रहा है।

वैसे तो यह सरकार की ज़िम्मेदारी है कि देश भर के एजुकेशन सिस्टम को कुछ इस तरह बनाए, कि आने वाली नस्ल समाज के जबरन फैले नासूरों से मुक्त हो जाए।

जब तक सरकारें इस दिशा में काम नहीं करतीं, अनुभव सिन्हा की फिल्म एक बढ़िया स्कूल की तरह है और इसके लिए अगर सौ, दो सौ या ढाई सौ रुपये खर्च करने पढ़ें तो कर दीजिए, फीस वसूल हो जाएगी।

आलोचना के तौर पर यह है कि फ़िल्म में जातियां है तो नौकरी में आरक्षण के मुद्दे पर भी कुछ प्रकाश डाला जा सकता था। हो सकता है कि अनुभव सिन्हा इस पर अलग से फ़िल्म बनाना चाह रहे हों। एक दर्शक होने के नाते मैं उम्मीद करता हूं कि वह नौकरी में आरक्षण व्यवस्था पर एक शानदार फ़िल्म बनाएं।

कुलमिलाकर, अभी तक जिन पसंदीदा फिल्मों को मैं उंगलियों पर गिनता आया हूं , उनमें मैं आर्टिकल 15 को भी रखता हूं।

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