भिखारी ठाकुर पुण्यतिथि: 'हंसि हंसि पनवा खियवले बेइमनवा' में आज भी आंचलिक जीवन की कथाशैली रौशन हो रही है

By आशीष कुमार पाण्डेय | Published: July 10, 2023 08:38 AM2023-07-10T08:38:31+5:302023-07-10T08:46:37+5:30

भोजपुरी के शेक्सपियर रहे जाने वाले भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी के माध्यम से जनचेतना पैदा करने की कोशिश की। उन्होंने जिस गंवई अंदाज में साहित्य, कला और संस्कृति के उत्थान का काम किया है, उसे देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया है।

Bhikhari Thakur death anniversary: ​​'Hansi Hasni Panwa Khiyawale Beimanwa' still illuminates the story of regional life | भिखारी ठाकुर पुण्यतिथि: 'हंसि हंसि पनवा खियवले बेइमनवा' में आज भी आंचलिक जीवन की कथाशैली रौशन हो रही है

भिखारी ठाकुर पुण्यतिथि: 'हंसि हंसि पनवा खियवले बेइमनवा' में आज भी आंचलिक जीवन की कथाशैली रौशन हो रही है

Highlightsभोजपुरी के शेक्सपियर रहे जाने वाले भिखारी ठाकुर ने अपनी रचनाओं से जनचेतना को पैदा किया भोजपुरी में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया हैलगभग 5 दशक पहले दिवंगत हुए भिखारी ठाकुर आज भी सच्चे समाजवादी के तौर पर याद किये जाते हैं

Bhikhari Thakur: नाच उत्तर प्रदेश-बिहार में नृत्य और गीत की वह विधा है, जो वर्तमान परिदृश्य में भले ही अपनी फूहड़ता के कारण दम तोड़ रही है लेकिन इसने अतीत में बड़े ही गर्व के साथ एक लंबा और स्वर्णिम युग जीया है। नाच की इस परंपरा के सबसे प्रबुद्ध ध्वजवाहक थे भिखारी ठाकुर।

उनके प्रयासों से नाच हेय दर्जे के मनोरंजन विधा से निकलकर सामाजिक मान्यताओं के प्रतिष्ठित हुआ। 10 जुलाई उन्हीं भिखारी ठाकुर की पुण्यतिथि है, जिन्होंने अपनी लेखनी से आंचलिक गीत परंपरा को उसके उच्चतम बिंदू तक पहुंचाया।

नाच की विधा को उसके शीर्षतम ऊंचाई पर ले जाने वाले आंचलिक कलाकार, कथाकार, नाटककार भिखारी ठाकुर ने साल 1917 में भोजपुरी बोली में नाच मंडली की स्थापना करके विश्व प्रसिद्ध बिदेसिया सहित गबरघिचोर, बेटी-बेचवा, भाई-बिरोध, पिया निसइल, नाई-बाहर, नकल भांड जैसे कई नाटकों और गीतों की रचना करके भोजपुरी कला को स्थापित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

गरीब नाई परिवार में जन्मे थे भिखारी ठाकुर

भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी जैसी भदेस बोली में समाज की समस्याओं और कुरीतियों को रेखांकित करते हुए अपनी लेखनी में ऐसी शैली अपनाई, जिसे पढ़े-लिखों के साथ-साथ अनपढ़ भी उतनी ही रोचकता के साथ सुनते-देखते थे।

18 दिसंबर 1887 को बिहार के छपरा जिले के कुतुबपुर गांव में जन्मे भिखारी ठाकुर का जन्म एक गरीब नाई परिवार में हुआ था। अंग्रेजों की गुलामी के उस दौर में नाई परिवार वस्तुतः सेवक वर्ग की श्रेणी में आते थे। नाई परिवार का मुख्य काम गांव में होने वाले विवाह, जन्म, मृत्यु संस्कार और अन्य तरह के मांगलिक या शोक अनुष्ठानों को सम्पन्न कराना और गांव के सभी लोगों की हजामत बनाना और साथ ही उनकी चिट्ठी-पत्री को लेकर एक जगह से दूसरे जगह पहुंचाना होता था। इसके बदले में गांव के परिवार उन्हें हर साल खेती के बाद अनाज का कुछ हिस्सा दिया करते थे। जिससे उनका जीवनयापन होता था।

भिखारी ठाकुर और उनके पिता दलसिंगार ठाकुर भी पारंपरिक नाई का काम किया करते थे लेकिन पिता दलसिंगार ठाकुर और मां शिवकली देवी चाहते थे कि वह पढ़ें और परिवार को इस पेशे से निकालकर विद्वता की ओर जाए। पिता ने 9 साल की उम्र में भिखारी को शिक्षा के लिए स्कूल में दाखिला दिलवा दिया। लगभग एक साल तक स्कूल में रटंत-पढ़ंत विद्या लेने के बाद भी भिखारी ठाकुर को अक्षरों की पहचना नहीं हुई।

परिणाम यह हुआ कि रोजाना मास्टर जी अपनी बेंत से भिखारी के हाथों लाल करते थे। रोज-रोज की दंडवत शिक्षा से तंग आ चुके भिखारी ठाकुर ने एक दिन खुद से ही अपना नाम पाठशाला से काटकर पारंपरिक पेशे से जोड़ लिया। अब भिखारी ठाकुर के पास जजमानों की हजामत करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। लेकिन थोड़े ही समय में उनका मन हजामत के काम से भी उचट गया।

रामलीला से प्रभावित होकर बने नाटककार

भिखारी का मन फिर से पढ़ने का करने लगा लेकिन गुरुजी की बेंत पाठशाला जाने का साहस नहीं दे रही थी। तब उनकी मदद की गांव के ही एक बनिया परिवार के भगवान साह ने। उन्होंने भिखारी ठाकुर को अक्षर ज्ञान कराया और धीरे-धीरे भिखारी ठाकुर थोड़ा-बहुत पढ़ने-लखने लगे।

इस बीच पिता दलसिंगार ठाकुर ने भिखारी ठाकुर का विवाह कर दिया। पत्नी के घर आते ही भिखारी का अक्षर ज्ञान धरा का धरा रह गया और भिखारी पैसे कमाने जा पहुंचे बंगाल के खड़कपुर। उस जमाने में कमाने की खातिर लोग पूरब की ओर यानी कलकत्ते की ओर देखा करते थे। खड़कपुर में कमाई करने के बाद भिखारी ठाकुर पहुंचे मेदनीपुर। शहर में हजामत का धंधा सही चल रहा था। दिन में काम औऱ रात में आराम का समय होता। चूंकि मेदमीपुर की रामलीला बहुत प्रसिद्ध थी तो भिखारी ठाकुर ने सोचा कि क्यों न देखा लिया जाए।

भिखारी ठाकुर जा पहुंचे रामलीला देखने। जैसे ही पर्दा उठा और रामलीला के पात्रों ने स्वांग रचाना शुरू किया। भिखारी सुधबुध खो बैठे। उस एक रात की रामलीला का असर ऐसा हुए कि भिखारी ठाकुर की जिंदगी ही बदल गई और उनके भीतर का कवि, गीतकार, नाटककार जाग उठा।

‘बिदेसिया’ भिखारी ठाकुर की कालजयी रचना है

कुछ समय बाद बंगाल से नाटक और नाच का जादू लिये भिखारी ठाकुर अपने गांव पहुंचे। गांव में लोगों की टोली इकट्ठा करके भिखारी ठाकुर ने रामलीला का ऐसा खेल रचाया कि हर तरफ उसकी कला का शोर मच गया। इसके बाद तो भिखारी ठाकुर ने बना ली अपनी नाच की मंडली।

नाच को कला के क्षेत्र में स्थापित करने में भिखारी ठाकुर का योगदान सर्वोपरि है क्योंकि उनसे पहले और उनके बाद नाच की कला में भौंडापन, अश्लीलता और द्विअर्थी मायने के कारण सदैव समाज के हाशिये पर रही। दरअसल भिखारी ठाकुर ने जिस सहजता के साथ नाच में आम आदमी के जीवन के दर्द, प्रेम, विरह और वीररस सहित अन्य सभी भावों को शब्दों में पिरोया और उसका नाच में प्रदर्शन किया वो अपने आप में अनुपम है।

उनके नाच में ‘बिदेसिया’ सबसे प्रसिद्ध है। इस पर साल 1963 में निर्देशक एसएन त्रिपाठी ने ‘बिदेसिया’ के नाम से ही फिल्म बनाई। इस फिल्म में एक गीत है मन्ना डे की आवाज में ‘हंसि हंसि पनवा खियवले बेइमनवा, कि अपना बसे रे परदेस, कोरी रे चुनरिया में दगिया लगाइ गइले, मारी रे करेजवा में तीर’। इस गीत को जितनी भी बार सुना जाए, लगता है कि एक बार और सुन लें।

भिखारी ठाकुर को राहुल सांकृत्यायन ने भोजपुरी का शेक्सपीयर कहा था

भिखारी ठाकुर के बेहद सरल शब्दों में दिल से कहे भाव की कला को परखते हुए राहुल सांकृत्यायन ने भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्सपीयर कहा था। भिखारी ठाकुर ने साल 1930 से 1970 के बीच अपनी नाच मंडली के जरिये यूपी, बिहार, बंगाल और आसाम में कई नाटकों को किया। बाकायदा टिकट लेकर दर्शक पूरे फिल्मी स्टाइल में भिखारी ठाकुर की बेहतरीन रचनाओं का आनंद लेते थे।

भिखारी ठाकुर के नाच पलटन में भी लोहार, नाई, कहार, रविदास, कुम्हार, दुसाध, पासी, और गोंड़ जैसी जाति के लोग प्रमुखता से शामिल थे। दरअसल ऊंची जांति के लोग नाच देखते तो थे लेकिन उसमें भाग लेने को वो कंलकित काम समझते थे। बड़े जातियों के युवाओं को डर लगता था कि नाच के कारण उनके परिवार को निम्न मानते हुए समाज उनसे रटी-बेटी का रिश्ता तोड़ लेगा। यही कारण था कि नाच में बड़ी जातियों के लोगों का प्रवेश न के बराबर था।

नाच के जरिये पूरे मंडली को बांधे रखने के लिए भिखारी ठाकुर बिना पैसे लिए कभी कोई भी कार्यक्रम नहीं करते थे। भिखारी ठाकुर का साफ मानना था कि हम दर्शकों को मनोरंजन देंगे और दर्शक उस मनोरंजन के एवज में हमें धन देंगे। भिखारी ठाकुर का मानना था, ‘नाच जोड़ने-जोगाने की चीज है, तोड़ने-लुटाने की नहीं’। जोड़ने से भिखारी ठाकुर का आशय था कि नाच सबके लिए है। चाहे व्यक्ति अमीर हो या फिर गरीब उनकी मंडली का नाच सबके लिए समान रूप से था।

भिखारी ठाकुर समाज के सच्चे चितेरा थे

भिखारी ठाकुर के नाच में जो प्रसंग होते थे वो पूरी तरह से सामाजिक और मानवीय पहलूओं से जुड़े होते थे। उस दौर में समाज ऊंची जातियों और सामंती दमनचक्र के बीच पिस रहा था। जातीय भेदभाव, अशिक्षा, नशाखोरी, दहेज प्रथा, बेमेल विवाह जैसी कई सामाजिक समस्याएं मौजूद थीं। इन्हीं समस्याओं को रेखांकित करते हुए भिखारी ठाकुर ने अपनी नाच मंडली के जरिये उन्हें उठाने का प्रयास किया।

भिखारी ठाकुर के ये 5 कालजयी नाटक हैं, जो सदियों तक हमारे समाज में जिंदा रहेंगे

बिदेसिया: भिखारी ठाकुर के विश्व प्रसिद्ध नाटक में मुख्य विषय पलायन है। नाटक में निम्न वर्ग का भूमिहीन परिवार का अकेला पुरुष सदस्य रोजीरोटी की तलाश में गांव की दहलीज पार करके शहर कीओर पलायन कर जाता है। इस नाटक में घर में अकेली औरत का विरह और शहर में पुरुष का पराए औरत के प्रति प्रेम को दर्शाया गया है।

बेटी-बेचवा: इस नाटक में बेमेल विवाह पर कड़ा प्रहार किया गया है। बेमेल विवाह आज भी हमारे समाज में यदाकदा दिखाई दे जाते हैं। है। नाटक में दिखाया गया है कि किस तरह अमीर सवर्ण सामंती जमींदार बुढ़ापे में भी निम्न जाति ग़रीब और कम उम्र की लड़कियों को ख़रीदता है और उनसे विवाह करके उनकी जिंदगी बर्बाद कर देता है।

पिया निसइल: नशा आज भी दुर्भाग्यवश समाज की बहुत बड़ी समस्या बना हुआ है। इसी विषय पर आधारित भिखारी ठाकुर का यह नाटक दिखाता है कि नशाखोरी किस तरह से घर की औरतों को मुश्किलों में डाल देता है जब किसी महिला का पति या बेटा शराबी हो जाता है।

नाई बाहर: सामंतवादी समाज पर कड़ी चोट करता भिखारी ठाकुर का यह नाटक नाई और उसके यजमान के संबंध को दर्शाता है। नाटक में नाई की यजमानी प्रथा के अंतर्गत होने वाले कटु व्यवहार और भेद-भाव को खुलकर उठाया गया है।

बिरहा-बहार: इस नाटक की कहानी में दलित वर्ग के धोबी-धोबिन का मुख्य किरदार है। समाज में कपड़ा धोने वाले धोबी के महत्व को इस नाटक में दिखाया गया है। भिखारी ठाकुर ने इस नाटक में कपड़ा धुलने वाले धोबी-धोबिन की तुलना आत्मा धोने वाले ईश्वर से की है।

भोजपुरी के शेक्सपियर रहे जाने वाले भिखारी ठाकुर ने जिस गंवई अंदाज में साहित्य, कला और संस्कृति के उत्थान का काम किया है, उसे देखते हुए भारत सरकार ने भिखारी ठाकुर को पद्मश्री से सम्मानित किया है। भिखारी ठाकुर ने जिस तरह से भोजपुरी में अपने नाच करे जरिए जनचेतना पैदा करने की कोशिश की। उसे उनके चाहने वाले प्रशंसकों ने भी हमेशा सराहा।

निचले जातियों को नारकीय दलदलों से उठाने के लिए भिखारी ठाकुर ने पूरे जीवन काम किया। अपने जीवनकाल में कुल 29 किताबें लिखने वाले भिखारी ने 10 जुलाई 1971 को शरीर त्याग दिया। लगभग 5 दशक पहले दिवंगत हुए भिखारी ठाकुर आज भी समाजवाद के चितेरा के तौर पर याद किये जाते हैं।

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