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सीओपी26 : जलवायु वैज्ञानिक द्वारा चार मिनट की व्याख्या

By भाषा | Updated: November 2, 2021 15:29 IST

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(रिचर्ड हॉजकिन्स, लफबरो विश्वविद्यालय)

लफबरो (ब्रिटेन), दो नवंबर (द कन्वरसेशन) ग्लासगो में हो रहा सीओपी26 शिखर सम्मेलन बैठकों की श्रृंखला में ताजा सम्मेलन है जिसके जरिये दुनियाभर की सरकारें जलवायु परिवर्तन से निपटने की कोशिश कर रही हैं।

सीओपी का मतलब ‘‘कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज’’ है, ये 197 पार्टियां संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश हैं और इसमें संयुक्त राष्ट्र के कुछ गैर सदस्य देश तथा यूरोपीय संघ भी शामिल है और ये सभी जलवायु परिवर्तन पर अंतरराष्ट्रीय कानून की संधि का समर्थन करते हैं।

इसका गठन 1992 में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए किया गया था, जिसे तब ज्यादातर लोग ‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ कहते थे। इसे सीओपी26 इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि यह 26वीं बैठक है।

सीओपी बैठकों का स्थान हर बार बदलता रहता है। इसकी आखिरी बैठक 2019 में मैड्रिड में हुई थी। कोविड-19 के कारण 2020 में कोई बैठक नहीं हुई। अभी तक सबसे महत्वपूर्ण सीओपी 2015 में पेरिस में हुई, जिसमें ‘‘वैश्विक ताप वृद्धि को पूर्व औद्योगिक स्तर के मुकाबले दो डिग्री सेल्सियस से कम तक सीमित रखने’’ पर सहमति बनी।

इस तरह का लक्ष्य तय करना संभव है क्योंकि वैज्ञानिक अनुसंधान में वैश्विक वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा और उसके औसत तापमान के बीच करीबी संबंध माना गया है।

‘‘दो डिग्री सेल्सियस से कम’’ का लक्ष्य तय करने के लिए पेरिस समझौते में ‘‘आधी सदी तक जलवायु तटस्थ दुनिया बनाने का लक्ष्य हासिल करने के लिए जल्द से जल्द ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के वैश्विक शिखर पर पहुंचने’’ की प्रतिबद्धता जतायी गयी।

सीओपी26 का मुख्य काम इस प्रतिबद्धता का पालन करना और 21वीं सदी के वैश्विक तापमान में वृद्धि को जहां तक संभव हो 1.5 डिग्री सेल्सियस के स्तर तक नियंत्रित करने की वास्तविक योजनाएं बनाना है।

आप कल्पना कर सकते हैं कि 197 अलग-अलग देशों को ऐसी योजनाओं पर राजी करना इतना आसान नहीं है जबकि उनकी अपनी-अपनी परिस्थितियां तथा हित हैं। आखिरकार पेरिस समझौते में 23 साल लगे। डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति पद पर रहते हुए अमेरिका को पेरिस समझौते से अलग कर लिया था, लेकिन जो बाइडन के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका फिर से इस समझौते में शामिल हो गया। इसलिए थोड़ी अनिश्चितता है कि कैसे सीओपी26 सफल होगी।

उत्सर्जन कम करने का मुख्य तरीका प्रत्येक देश का ‘‘नेशनली डेटरमाइंड कॉन्ट्रिब्यूशन’ (एन्डीसी) है : ये प्रत्येक देश की जलवायु परिवर्तन से निपटने की योजनाएं हैं। उदाहरण के लिए ब्रिटेन ने हाल में एनडीसी के तहत 2030 तक 1990 के स्तर के मुकाबले कम से कम 68 प्रतिशत तक उत्सर्जन कम करने की प्रतिबद्धता जतायी है।

यह क्यों मायने रखता है :

सीओपी26 मायने रखता है क्योंकि पेरिस समझौते के 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के लिए समय बीतता जा रहा है : अगर उत्सर्जन जल्दी से कम नहीं होता तो बहुत जल्द वातावरण में बहुत सारी कार्बन शामिल हो जाएगी जिससे तापमान बढ़ता रहेगा।

पेरिस समझौता काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि 1.5 डिग्री सेल्सियस वैश्विक तापमान वाली दुनिया दो डिग्री सेल्सियस तापमान वाली दुनिया के मुकाबले सुरक्षित है। उदाहरण के लिए विश्वभर की आबादी को हर पांच साल में कम से कम एक बार जितनी भीषण गर्मी का सामना करना पड़ेगा, वह दो डिग्री सेल्सियस के वैश्विक तापमान में तकरीबन तीन गुना अधिक होगा।

अगर सीओपी26 सफल नहीं होती है तो इसका यह मतलब नहीं है कि हम तबाह हो रहे हैं। लेकिन इससे जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों जैसे कि सूखा, गर्म हवाएं, बाढ़ और समुद्र के बढ़ते स्तर से बचना मुश्किल हो जाएगा। पृथ्वी को सुरक्षित और रहने योग्य बनाए रखने के लिए दीर्घकालीन परियोजना के तौर पर सीओपी26 का सफल होना जरूरी है।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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