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शीतला सप्तमी 2018: गुड़गांव में स्थित है माता का प्रसिद्ध मंदिर, जानें क्यों है इतनी मान्यता

By धीरज पाल | Updated: March 7, 2018 17:53 IST

शीतला मां के इस मंदिर की खासियत यह भी है कि श्रद्धालु, नवजात बच्चों का प्रथम मुंडन संस्कार यहीं पर करवाना शुभ मानते हैं।

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हाथों में कलश, सूप, मार्जन (झाडू) और नीम के पत्ते को धारण की माता शीतला हिंदू देवीओं में से एक हैं। स्कंद पुराण में शीतला देवी का वाहन गर्दभ बताया गया है। इनकी पूजा देश के कोने-कोने में किया जाता है लेकिन उत्तर भारत में इनकी मान्यता बहुत है। उत्तर भारत में इनके कई मंदिर स्थापित हैं। जहां बड़ी संख्या में भक्त मौजूद होते हैं। ऐसा ही एक मंदिर हरियाणा के गुड़गांव में स्थित है। यहां लोग अपने बच्चों का मुंडन (बाल उतरवाते) कराते हैं और रात में ठहरकर माता की पूजा में लीन होते नजर आते हैं। इस मंदिर में सप्तमी और सोमवार के दिन भक्तों की भारी भीड़ देखी जा सकती है।

सालों से माता शीतला भक्त मीना देवी का मानना है कि अगर माता की श्रद्धा पूर्वक पूजा अर्चना किया जाए तो लोगों पर उनकी क्षत्र साया बना रहता है और माता लोगों को कष्ट हमेशा हरती हैं। ऐसे कई भक्त है जो गुड़गांव में स्थित शीतला देवी मंदिर में जाने से बने काम बिगड़ जाते हैं। शीतला देवी को लोग चेचक जैसे रोगों की देवी के रूप में भी जानते हैं। इस मंदिर का महत्व बहुत है। 

इसे भी पढ़ें- यहां स्थित है माता सीता की रसोई, चूल्हे और चिमटे के साथ रखा है किचन का सामान

शीतला मंदिर का महत्व

गुड़गांव स्थित शीतला मंदिर में वैसे तो देश भर के श्रद्धालु आते हैं लेकिन ज्यादा संख्या हरियाणा उत्तर प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान के श्रद्धालुओं की होती है। यहां न केवल शहरों से भक्त आते हैं बल्कि गांवों से लोग माता के दर्शन के लिए आते हैं। साल में दो बार चैत्र नवरात्र और आश्विन नवरात्र के समय शीतला माता के इस मंदिर का नजारा अद्भुत होता है। दोनों नवरात्रों में एक महीने तक मेला लगता है। इस मौके पर मां के दर्शन के लिए भक्तों को घंटो लाइन में खड़े रहना पड़ता है। शीतला मां के इस मंदिर की खासियत यह भी है कि श्रद्धालु, नवजात बच्चों का प्रथम मुंडन संस्कार यहीं पर करवाना शुभ मानते हैं। मंदिर प्रशासन को भी मुंडन के ठेके से लाखों की आमदनी होती है जिसे मंदिर के विकास व आयोजनों में खर्च किया जाता है।

गुड़गांव के शीतला मंदिर की कहानी

गुड़गांव स्थित शीतला माता के मंदिर कहानी को महाभारत काल से जोड़कर देखा जाता है। मान्यता है कि महाभारत काल में गुरु द्रोणाचार्य यही पर कौरवों और पांडवों को अस्त्र-शस्त्र विद्या का ज्ञान दिया करते थे। जब महाभारत युद्ध में गुरु द्रोण वीरगति को प्राप्त हुए तो उनकी कृपी उनके साथ सती हो गई। माना जाता है कि लोगों के लाख मनाने पर भी वे नहीं मानी और 16 श्रृंगार कर सती होने का निश्चय लेकर गुरु द्रोण की चिता पर बैठ गई। उस समय उन्होंने लोगों को आशीर्वाद दिया कि मेरे इस सती स्थल पर जो भी अपनी मनोकामना लेकर पहुँचेगा, उसकी मन्नत जरुर पूरी होगी।

क्या है शीतला मंदिर का इतिहास

कहा जाता है कि 17वीं सदी में महाराजा भरतपुर ने गुड़गांव में माता कृपि के सती स्थल पर मंदिर का निर्माण करवाया और सवा किलो सोने की माता कृपी की मूर्ति बनवाकर वहां स्थापित करवाई। कहा जाता है कि बाद में किसी मुगल बादशाह ने मूर्ति को तालाब में गिरवा दिया था। इसे बाद में माता के दर्शन के लिए सिंघा भगत ने निकलवाया। बताया जाता है कि सिंघा भगत के तप को देखकर क्षेत्रीय लोग उनके पांव पूजने लगे थे।

मूर्ति की स्थापना को लेकर ही एक अन्य रोचक कहानी जुड़ी है। गुड़गांव से थोड़ी दूर स्थित फर्रुख नगर में एक बढ़ई की कन्या बहुत सुंदर थी। उस वक्त दिल्ली के तत्कालीन बादशाह तक कन्या की सुंदरता का जिक्र पहुंचा। सुंदरता पर मोहित होकर बादशाह ने विवाह की इच्छा प्रकट की, लेकिन लड़की के पिता को विधर्मी बादशाह से बेटी की शादी मंजूर नहीं थी। उसने भरतपुर के महाराज सूरजमल से इसकी फरियाद की लेकिन दूसरे राज्य का मसला बताकर उसे टाल दिया। मायूस होकर वह घर लौट रहा था तो युवराज से उसकी मुलाकात हुई और उसने युवराज के आगे गुहार लगाई। इस पर युवराज ने पिता के खिलाफ जाकर विद्रोह करते हुए दिल्ली पर आक्रमण किया उसने आक्रमण से पहले गुड़गांव में माता से विजय की मन्नत मांगी और माता के मढ़ को पक्का करवाने का संकल्प लिया। विजयी होने के बाद उसने यहां पर माता का पक्का मढ़ बनवाया।

हालांकि इस कहानी को एक दूसरे एंगल से पेश किया जाता है। कहा जाता है कि महाराजा भरतपुर दिल्ली पर चढ़ाई करने के लिये बल्लभगढ़ रुके इसके बाद घोड़े आगे नहीं बढ़ रहे थे। ज्योतिषियों ने बताया कि गुरुग्राम की सीमा में प्रवेश के बाद हम पूजा से वंचित रह गये तब महाराजा ने मन्नत मांगी कि लालकिले को जीतने के उपरांत वह माता की पक्की मढ़ी बनवाएंगे।

हालांकि इसके इतिहास में कितनी सच्चाई है इसका पता नहीं चल पाया है लेकिन शोध जारी है। 

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