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Raksha Bandhan 2025 Special | आज किसको रक्षा चाहिए? : आचार्य प्रशांत

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: August 8, 2025 16:41 IST

रक्षाबंधन वह अवसर बन सकता है जहाँ हम सभी मिलकर यह संकल्प लें, कि हम केवल भावनाओं के नहीं, सच्चे उत्तरदायित्व के बंधन में बँधते हैं। जब हम इस पर्व को व्यापक अर्थ देंगे, तभी यह पर्व न केवल सुंदर, बल्कि सार्थक और आवश्यक भी होगा।

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रक्षाबंधन एक ऐसा पर्व है जिसकी जड़ें इतिहास और परंपरा में गहराई तक जाती है। आमतौर पर इसे भाई-बहन के स्नेह का पर्व माना जाता है, जहाँ बहन भाई को राखी बाँधती है और भाई उसकी रक्षा का वचन देता है। लेकिन अगर हम इसके ऐतिहासिक मूल की ओर देखें, तो पता चलता है कि यह परंपरा केवल भाई-बहन तक सीमित नहीं रही है।

भविष्य पुराण, स्कंद पुराण, पद्म पुराण और भागवत पुराण जैसे अनेक शास्त्रों में रक्षाबंधन के ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ यह पर्व पुरुष-पुरुष के बीच, गुरु-शिष्य के बीच या सामाजिक और आध्यात्मिक सहकार के रूप में मनाया गया है। उदाहरण के लिए, भविष्य पुराण में आता है कि देव-दानव युद्ध के समय इंद्र हार रहे थे और देव गुरु बृहस्पति ने उन्हें रक्षा सूत्र बाँधा। यह सूत्र शक्ति का प्रतीक था, केवल स्नेह का नहीं। उसमें मंत्र बोला गया:“येनबद्धोबलिराजा, दानवेन्द्रोमहाबलः।तेनत्वामपिबध्नामि, रक्षेमाचलमाचल॥”अर्थात्: “जिस रक्षा सूत्र से महाबली दानव राज बलि को बाँधा गया था, उसी से मैं तुम्हें बाँधता हूँ। हे रक्षे! तुम अडिग रहना।”

इससे स्पष्ट होता है कि राखी केवल एक बहन द्वारा भाई को बाँधने की रस्म नहीं थी, बल्कि इसका अर्थ और व्यापक है। गुरुकुलों में शिक्षा पूर्ण होने पर गुरु और शिष्य एक-दूसरे को रक्षा सूत्र बाँधते थे। यह बंधन प्रेम और स्नेह का प्रतीक होता था। यही भावना उपनिषदों के शांति पाठ में भी आती है: “हम एक-दूसरे से प्रेम करें, हमारे बीच वैमनस्य न हो।”

समय के साथ यह परंपरा लोक जीवन में आई और भाई-बहन के रिश्ते में विशेष स्थान पा गई। विशेषकर जब सामाजिक ढाँचा ऐसा था जहाँ स्त्रियाँ विवाह के बाद अपने घरों से दूर चली जाती थीं और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होती थीं, तब भाई उनके लिए सहारा बनता था। इस तरह राखी एक सामाजिक सुरक्षा का माध्यम बन गई। लेकिन आज का परिदृश्य बदल चुका है। महिलाएँ अब हर क्षेत्र में आगे हैं, आत्मनिर्भर हैं, और कई बार अपने घर-परिवार की मुख्य आश्रयदाता भी हैं। ऐसे में रक्षाबंधन को नया और ऊँचा अर्थ देना समय की मांग है।

यह पर्व आज भी भाई-बहन के प्रेम का उत्सव है, लेकिन इसका अर्थ इससे कहीं अधिक हो सकता है। यह एक ऐसा अवसर बन सकता है जहाँ हम एक-दूसरे को स्मरण कराएँ कि हमारी ज़िम्मेदारी केवल अपने परिवार तक सीमित नहीं है। आज अगर किसी को सबसे ज़्यादा रक्षा की आवश्यकता है, तो वह है हमारी पृथ्वी, हमारा पर्यावरण, और हमारी संवेदनशीलता।

हम उस युग में जी रहे हैं जहाँ जलवायु परिवर्तन ने प्राकृतिक संतुलन को गहरा नुकसान पहुँचाया है। जैव विविधता नष्ट हो रही है, सैकड़ों प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं, और मानवता अपनी ही बनाई समस्याओं से जूझ रही है। क्या हम इस रक्षाबंधन पर यह नहीं सोच सकते कि अब रक्षासूत्र किसे बाँधना है? केवल भाई को नहीं, बल्कि इस पूरे जीव मंडल को, इस पूरे जीवन-तंत्र को।

रक्षाबंधन एक स्मरण हो सकता है कि हम सब मिलकर उस विवेक, उस करुणा की रक्षा करें जो जीवन को जीवन बनाती है। यह पर्व केवल उपहारों का आदान-प्रदान न रह जाए, बल्कि यह एक संकल्प बन जाए: हम एक-दूसरे के आत्मबल और चेतना के रक्षक बनें। रक्षा का अधिकारी वही होता है जो दुर्बल हो, और रक्षक वही जो समर्थ हो। आज बहन ही यदि घर की सबसे समर्थ इकाई है, तो वह राखी बाँधते हुए अपने भाई को यह कह सकती है: “मैं तुम्हारी रक्षा करूँगी: तुम्हारे विवेक की, और तुम्हारे सशक्तिकरण की ओर बढ़ने की प्रतिबद्धता की।”

रक्षाबंधन का यही विस्तार हमें उसकी वास्तविक सुंदरता से जोड़ता है। यह पर्व आज भी उतना ही प्रासंगिक है, बस दृष्टि की गहराई बदलनी चाहिए। धर्म को, प्रकृति को, सत्य को, और संवेदना को रक्षा की आवश्यकता है। रक्षाबंधन वह अवसर बन सकता है जहाँ हम सभी मिलकर यह संकल्प लें, कि हम केवल भावनाओं के नहीं, सच्चे उत्तरदायित्व के बंधन में बँधते हैं। जब हम इस पर्व को व्यापक अर्थ देंगे, तभी यह पर्व न केवल सुंदर, बल्कि सार्थक और आवश्यक भी होगा।

(आचार्य प्रशांत एक वेदान्त मर्मज्ञ और दार्शनिक हैं, तथा प्रशांत अद्वैत फाउंडेशन के संस्थापक हैं। उन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की है और उन्हें विभिन्न सम्मानों से सम्मानित किया गया है, जिनमें Most Influential Vegan Award (PETA), OCND Award (IIT Delhi Alumni Association), और Most Impactful Environmentalist Award (Green Society of India) शामिल हैं।) 

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