Guru Gobind singh Jyanti: गुरु गोबिंद सिंहसिखों के दसवें और अंतिम गुरु थे। शौर्य और साहस के प्रतीक गुरु गोबिंद सिंह का जन्म पौष मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को हुआ था। इस लिहाज से नानकशाही कैलेंडर के अनुसार हर साल गुरु गोबिंद सिंह के जन्म की तिथि बदलती रहती है। इस बार ये जयंती 2 जनवरी, 2020 को मनाया जा रही है। गुरु गोबिंद सिंह सिखों के 9वें गुरु तेगबहादुर के पुत्र थे।
गुरु गोबिंद सिंह का सिख धर्म में विशेष महत्व इसलिए भी है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि उन्होंने ही सिखों के पवित्र ग्रंथ 'गुरु ग्रंथ साहिब' को पूरा करने का कार्य किया और इस किताब को गुरु रूप में स्थापित किया। साथ ही उन्होंने 'पांच ककार' का सिद्धांत भी दिया जिसका सिख धर्म में आज भी बहुत महत्व है। सिख धर्म में इन ककार को सभी खालसा सिखों को धारण करना अनिवार्य माना गया है। इसमें केश, कड़ा, कृपाण, कंघा और कछहरा शामिल है।
गुरु गोबिंद सिंह का बिहार के पटना से विशेष रिश्ता
गुरु गोबिंद सिंह को उनकी माता गुजरी देवी ने बिहार के पटना शहर में जन्म दिया। गुरु गोबिंद सिंह का जहां जन्म हुआ, इसे ही आज पटना साहिब कहा जाता है। गुरु गोबिंद सिंहजी जन्म के 4 साल बाद तक पटना में रहे। इनके बचपन का नाम गोबिंद राय था। गुरु गोबिंद सिंह का जब जन्म हुआ था तब इनके पिता तेगबहादुरजी सिखों के 9वें गुरु थे और उस समय धर्मोपदेश के लिए असम गये हुए थे।
गुरु गोबिंद सिंह की जयंती पर पटना साहिब गुरुद्वारा में हर साल संगतों की भारी भीड़ उमड़ती है। यहां आज भी गुरु गोबिंद द्वारा इस्तेमाल में लाई जाने वाली छोटी कृपाण, कंघा और खड़ाऊ रखी हुई है। साथ ही यहां वो कुआं भी मौजूद है जिसका इस्तेमाल गुरु गोबिंद सिंह जी की मां पानी भरने के लिए करती थीं।
गुरु गोबिंद सिंह महाराष्ट्र के नांदेड़ में दिव्य ज्योति में हुए लीन
पटना में बचपन के कुछ साल बिताने के बाद गुरु गोबिंद सिंह का परिवार पंजाब के आनंदपुर साहिब आ गया। कहते हैं कि यहीं से इनकी शिक्षा-दिक्षा शुरू हुई। ये वही जगह भी है जहां गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की। गुरु गोबिंद सिंह ने अपने जीवन के आखिरी कुछ दिन महाराष्ट्र के नांदेड़ में बिताये थे।
गुरु गोबिंद सिंह 07 अक्टूबर 1708 में महाराष्ट्र के नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए थे। इस लिहाज से नांदेड़ हजूर साहिब का भी सिख धर्म में खास महत्व है। गुरु गोबिंद सिंह की इच्छा थी उनके निर्वाण के बाद भी यहां सामुदायिक रसोईघर (लंगर) चलता रहे। यह परंपरा आज भी जारी है और सालों भर यहां लंगर चलता है।