ब्लॉग: धर्म, मानवता और देश के लिए चार बालवीरों ने दी थी शहादत
By नरेंद्र कौर छाबड़ा | Published: December 26, 2023 11:22 AM2023-12-26T11:22:33+5:302023-12-26T11:26:42+5:30
दिसंबर का महीना सिख समाज के लिए विशेष महत्व रखता है। इस माह को शहीदी माह के रूप में भी मनाया जाता है।
दिसंबर का महीना सिख समाज के लिए विशेष महत्व रखता है। इस माह को शहीदी माह के रूप में भी मनाया जाता है। 22 दिसंबर से 27 दिसंबर तक दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह जी, जिन्हें सरबंस दानी भी कहा जाता है, उनके पूरे परिवार की शहादत इस सप्ताह में हुई थी।
गुरुजी के चार साहिबजादों में अजीत सिंह सबसे बड़े थे। दूसरे साहिबजादे जुझार सिंह थे। जोरावर सिंह तथा फतेह सिंह तीसरे और चौथे साहिबजादे थे। चारों की शिक्षा का प्रबंध आनंदपुर साहिब में किया गया।
दिसंबर 1704 में आनंदपुर साहिब में गुरुजी के शूरवीर तथा मुगल सेना के बीच घमासान युद्ध जारी था। तब औरंगजेब ने गुरुजी को पत्र लिखा कि वे आनंदपुर का किला खाली कर दें तो उन्हें बिना रोक-टोक के जाने दिया जाएगा लेकिन गुरुजी के किले से निकलते ही मुगल सेना ने उन पर आक्रमण कर दिया।
सरसा नदी के किनारे भयंकर युद्ध हुआ। यहां उनका परिवार बिछड़ गया। उनके साथ दोनों बड़े साहिबजादे थे, छोटे दोनों साहिबजादे दादी माता गुजरी जी के साथ चले गए। बड़े साहिबजादे पिता के साथ नदी पार करके चमकौर की गढ़ी में जा पहुंचे। 21 दिसंबर को यहां जो भयंकर युद्ध लड़ा गया वह चमकौर का युद्ध कहलाता है।
गुरुजी के साथ केवल 40 सिख थे। वे पांच-पांच का जत्था बनाकर निकलते थे और लाखों की तादाद वाले दुश्मन से जूझते हुए शहीद हो जाते थे। सिखों को इस तरह शहीद होते देख दोनों साहिबजादों ने भी युद्ध में जाने की इजाजत मांगी और दुश्मनों से लड़ते हुए दोनों शहीद हो गए। उस समय उनकी उम्र 17 तथा 14 वर्ष थी।
दूसरी ओर दोनों छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह तथा फतेह सिंह को साथ लेकर माता गुजरी जी गंगू रसोइए के साथ निकल गईं। वह उन्हें अपने गांव ले गया। माता जी के पास कीमती सामान देख उसे लालच आ गया और उसने मोरिंडा के कोतवाल को खबर कर दी।
माता जी और साहिबजादों को सरहद के बस्सी थाना ले जाया गया तथा रात को उन्हें ठंडे बुर्ज में रखा गया जहां बला की ठंड थी। अगले दिन सरहद के सूबेदार वजीर खान की कचहरी में दोनों साहिबजादों को लाया गया। उन्हें लालच देकर, डरा धमका कर धर्म परिवर्तन करने के लिए कहा गया लेकिन उन्होंने स्पष्ट इनकार कर दिया। अंत में दरबार में मौजूद काजी ने फतवा जारी किया कि इन्हें जिंदा ही दीवारों में चिनवा दिया जाए।
27 दिसंबर 1704 के दिन दोनों साहिबजादों को, जिनकी उम्र 9 तथा 6 वर्ष थी, बड़ी बेरहमी से दीवारों में जिंदा चिनवा दिया गया। जब माताजी को यह खबर मिली तो उन्होंने भी प्राण त्याग दिए। एक सप्ताह के भीतर ही गुरुजी के चार साहिबजादे तथा माता शहीद हो गए। जहां वे शहीद हुए उस स्थान पर गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब शोभायमान है।