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विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: राजनीति में सत्ता का लाभ उठाने का नया दौर  

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: August 1, 2019 17:13 IST

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किस्सा पुराना है. वर्ष 1967 का यानी आज से बावन वर्ष पहले का. नया-नया हरियाणा राज्य बना था. वहीं के एक निर्दलीय विधायक गया लाल ने एक दिन में ही नहीं, सिर्फ नौ घंटों में तीन बार अलग-अलग दलों की सदस्यता ग्रहण की और छोड़ी. गया लाल पहले कांग्रेस के साथ हुए. फिर कांग्रेस से युनाइटेड फ्रंट में गए. पाला बदलने के उनके इस खेल में हरियाणा की पार्टियों का राजनीतिक भाग्य भी डांवाडोल होता रहा. 

गयालाल अकेले दल-बदलू नहीं थे. पर जिस गति से उन्होंने दल बदले उसने देश की राजनीति में उन्हें नामी बना दिया- यहां नामी का मतलब बदनाम ही समझा जाए. उनके इस पाला बदलू कांड को देखते हुए हरियाणा के तब के बड़े नेता राव बिरेंद्र सिंह ने कहा था, ‘‘गया राम, अब आया राम है.’’ 

तभी संसद में यशवंतराव चव्हाण ने इस ‘आया राम गया राम’ का हवाला देते हुए देश की राजनीति में आस्था और सिद्धांत-विहीन दौर की एक नई शुरुआत का जिक्र किया था.  और आयाराम गयाराम हमारी राजनीति का एक मुहावरा बन गया. 

अपेक्षा की जाती है कि राजनीतिक दल कुछ मूल्यों, सिद्धांतों और नीतियों के आधार पर गठित होंगे. इन दलों की सदस्यता का आधार भी कोई विचारधारा ही होगी. पर आजादी पाने के बाद जल्द ही हमारी राजनीति में सत्ता का लाभ उठाने का दौर भी शुरू हो गया. शुरुआत में इस प्रवृत्ति को इज्जत की निगाह से नहीं देखा जाता था. 

आयाराम-गयाराम प्रकरण को प्रारंभ में न केवल एक मजाक के रूप में लिया गया, बल्कि दल-बदलुओं को घटिया राजनीति का उदाहरण भी माना गया. पर जल्दी ही यह घटिया प्रवृत्ति हमारी राजनीति का एक स्वीकृत सत्य बन गई. न पाला बदलने वाले को ऐसा करते हुए किसी शर्म का एहसास होता था और न ही ऐसे व्यक्तियों का स्वागत करने वाले राजनीतिक दलों को कोई संकोच. अब राजनीतिक दलों को आस्था या निष्ठा जैसी बातों से नहीं जोड़ा जाता. 

सैद्धांतिक राजनीति की बात अब भी होती है, पर जैसे हाथी के दांत दिखाने और खाने के अलग-अलग होते हैं, वैसे ही हमारे राजनीतिक दलों के सैद्धांतिक आधार का मामला हो गया है. व्यक्ति के विचारों में परिवर्तन आना कोई गलत बात नहीं है. होता है कभी-कभी ऐसा. पर सिद्धांतवादी राजनीति का तकाजा है कि इस बदलाव का ठोस आधार हो. सत्ता में भागीदारी, या कहना चाहिए सत्ता-सुख इसका आधार नहीं होना चाहिए.  

हाल ही में कर्नाटक में जिस तरह सत्ता-परिवर्तन हुआ है, वह इसी घटिया राजनीति का उदाहरण है. चुनावों में कर्नाटक में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था. तब भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस ने जनता दल (एस) से गठबंधन किया. इस गठबंठन का आधार सत्ता पाना ही था. 

यह वैसा ही गठबंधन था जैसा जम्मू-कश्मीर में भाजपा ने महबूबा की पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ किया था. दोनों जगह का हश्र हमारे सामने है. अब जो सरकार कर्नाटक में बनी है, उसका चलना भी आयारामों-गयारामों की ‘कृपा’ पर ही निर्भर करेगा. 

‘एक अलग-सी पार्टी’ का दावा करने वाली भाजपा भी ‘एक और राजनीतिक दल’ बनकर रह गई.  ढेरों ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें भाजपा ने उन राजनेताओं को अपने पाले में लिया है, जिन्हें वह कल तक ‘भ्रष्ट’ और ै‘अपराधी’ राजनेता कहती थी.  इस घटिया दलबदलू राजनीति का शिकार बनना किसी भी राजनैतिक दल को शर्मनाक नहीं लग रहा. 

उल्टे, बड़ी शान से घोषणा की जाती है कि फलाने दल के इतने सांसद-विधायक-पार्षद हमारे संपर्क में हैं. पिछले आम चुनाव में स्वयं प्रधानमंत्री ने इस आशय की घोषणा करना अनुचित नहीं समझा; कर्नाटक में दोनों खेमे आयारामों के संपर्क की दुहाई दे रहे हैं; मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री भाजपा के विधायकों के दल बदलने की तैयारी का दावा कर रहे हैं, गोवा में तो सत्ता-सुख में भागीदारी के लिए कांग्रेसी विधायक थोक में पाला बदल कर गए हैं! महाराष्ट्र में भी पाला-बदल का खेल चल रहा है.. 

राजनीति सत्ता का खेल मात्र बन कर रह गई है. स्वस्थ राजनीति और मजबूत जनतंत्र का तकाजा है कि देश की राजनीति के इस पतन पर रोक लगे. कभी इसी उद्देश्य से दल-बदल पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनाया गया था. पर हमने देखा, वह अंकुश अपर्याप्त सिद्ध हुआ है. इस अंकुश को कारगर बनाने की जरूरत है. जिस तरह से आज पैसे और सत्ता-सुख के लालच में आयाराम, गयाराम बन जाता है और गयाराम, आयाराम में बदल जाता है, वह एक चिंताजनक स्थिति है. 

यह सिद्धांतहीन राजनीति हमारे जनतंत्र की सार्थकता पर सवालिया निशान लगा रही है. यह स्थिति बदलनी चाहिए. यह तभी बदलेगी जब हमारी राजनीतिक संस्कृति बदलेगी- जब मतदाता सिद्धांतहीनता को नकारेगा. राजनीतिक दल सत्ता पाने की होड़ में लगे हैं, इसलिए जरूरी है, देश का नागरिक आगे बढ़कर आयाराम-गयाराम वाली राजनीति को नकारे. ठोकर मारे.

टॅग्स :हरियाणा
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