खुद के अपमान और कोच को 'गधा' कहे जाने से आहत दीपा कर्माकर ने 'वॉल्ट आफ डेथ' में जोरदार प्रदर्शन से दिया आलोचकों को जवाब
By भाषा | Published: December 29, 2018 12:12 PM2018-12-29T12:12:48+5:302018-12-29T12:12:48+5:30
Dipa Karmakar: स्टार जिमनास्ट दीपा कर्माकर ने साथी खिलाड़ियों द्वारा अपमानित किए जाने के बाद खुद को साबित करने का फैसला कर लिया था
नई दिल्ली, 29 दिसंबर: कहते हैं कि एक पल इंसान की जिंदगी बदल देता है और जिमनास्टिक में भारत की 'वंडर गर्ल' दीपा कर्माकर के जीवन में वह पल आया राष्ट्रमंडल खेल 2010 में जब पदक जीतने में नाकाम रहने के बाद किसी साथी खिलाड़ी ने उन्हें 'भैंस' और उनके कोच बिश्वेश्वर नंदी को 'गधा' कह डाला था ।
रियो ओलंपिक में चौथे स्थान पर रहकर भारतीय जिमनास्टिक का सबसे सुनहरा अध्याय लिखने वाली दीपा भले ही पदक से मामूली अंतर से चूक गई लेकिन उन्होंने ‘तफरीह के लिये टूर्नामेंट में आये’ माने जाने वाले जिमनास्टों को सम्मान और पदक उम्मीद का दर्जा दिलाया।
साथी पुरुष जिमनास्ट ने दीपा को कहा था 'भैंस'
राजधानी में 2010 में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में दीपा फाइनल में पहुंची लेकिन पदक नहीं जीत सकीं। उसके आंसू थम नहीं रहे थे और ऐसे में एक साथी पुरूष जिमनास्ट ने कहा डाला, 'यह भैंस है और इसका कोच गधा।' इस ताने ने उसे भीतर तक आहत कर दिया और अब अर्जुन की तरह उसके सामने एक ही लक्ष्य था ... पदक जीतना ।
रियो में दीपा की कामयाबी सभी ने देखी लेकिन दिल्ली में मिले उस ताने से रियो तक के सफर के पीछे की उसकी मेहनत और त्रिपुरा जैसे पूर्वोत्तर के छोटे से राज्य से निकलकर अंतरराष्ट्रीय खेल मानचित्र पर अपनी पहचान बनाने के उसके सफर की गाथा भी उतनी ही दिलचस्प है। इसे कलमबद्ध किया है कोच बिश्वेश्वर नंदी, मशहूर खेल पत्रकार दिग्विजय सिंह देव और विमल मोहन ने अपनी किताब 'दीपा कर्माकर: द स्माल वंडर' में ।
अपनी होनहार शिष्या को ओलंपिक पदक पहनते देखने का सपना कोच नंदी की आंखों में भी पल रहा था। दिल्ली में मिले ताने ने दीपा की नींद उड़ा दी थी और खेल ने ही उसके जख्मों पर मरहम लगाया जब रांची में 2011 में हुए राष्ट्रीय खेलों में उसने पांच पदक जीते। इसके बावजूद उसे पता था कि शीर्ष जिमनास्टों और उसमें अभी काफी फर्क है।
ग्लास्गो राष्ट्रमंडल खेलों से पहले नंदी ने यूट्यूब पर प्रोडुनोवा के काफी वीडियो देखे और दीपा से पूछा कि क्या वह यह खतरनाक वोल्ट करेंगी। खेलों में पांच छह महीने ही रह गए थे लेकिन दीपा को अपनी मेहनत और कोच के भरोसे पर यकीन था लिहाजा उसने हामी भर दी।
टीम प्रबंधन में और साथी खिलाड़ियों में भी उसके यह 'वॉल्ट आफ डेथ' करने को लेकर मिश्रित प्रतिक्रिया थी। दीपा ने ट्रायल में प्रोडुनोवा किया और पहला टेस्ट पास कर गई। उन्होंने छह से आठ घंटे रोज मेहनत की और आखिरकार वह दिन आ गया जिसका वह दिल्ली राष्ट्रमंडल खेल से इंतजार कर रही थीं।
स्कॉटलैंड में क्वॉलिफाइंग दौर के लिये अभ्यास के दौरान ही उनकी एड़ी में चोट लग गई। उन्होंने चोट के साथ ही सारी एक्सरसाइज की। कोच नंदी को लगा कि राष्ट्रमंडल पदक जीतने का सपना खेल शुरू होने से पहले ही टूट गया लेकिन दीपा ने क्वॉलिफाई किया । फाइनल तीन दिन बाद था और चोट के कारण वह अभ्यास नहीं कर सकीं।
फाइनल में दर्द की परवाह किये बिना दीपा की नजरें सिर्फ पदक पर थीं।
यह उनके लिये तत्कालिक सम्मान नहीं बल्कि उनके हुनर पर सवालिया ऊंगली उठाते आ रहे लोगों को जवाब देने का जरिया था। यह उनके साथ उनका सपना देख रहे कोच नंदी को उनकी गुरु दक्षिणा थी। यह भारतीय जिम्नास्टों को उनका सम्मान दिलाने की उनकी जिद थी।
दीपा ने ग्लास्गो में महिलाओं के वोल्ट में कांस्य पदक जीतकर इतिहास रच डाला। वह इन खेलों में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला जिमनास्ट और आशीष कुमार के बाद दूसरी भारतीय बनीं।
उनके गले में पदक था, आंखों में आंसू थे और नजरें मानों कोच से कह रही थी कि 'सर आज भैंस और गधा जीत गए' आंख बंद करके उसने कहा 'थैंक्यू येलेना प्रोडुनोवा।' वही जिमनास्ट जिसके नाम पर प्रोडुनोवा बना और जिसने दीपा को नयी पहचान दिलाई।