विभाजनों की त्रासदी झेल चुका बंगाल आखिर इस शब्द को लेकर क्यों है परेशान
By भाषा | Updated: July 4, 2021 22:46 IST2021-07-04T22:46:15+5:302021-07-04T22:46:15+5:30

विभाजनों की त्रासदी झेल चुका बंगाल आखिर इस शब्द को लेकर क्यों है परेशान
(जयंत रॉय चौधरी)
कोलकाता, चार जुलाई अलीपुरद्वार से भाजपा के लोकसभा सदस्य जॉन बारला ने पिछले सप्ताह जब पश्चिम बंगाल के उत्तरी जिलों को राज्य से अलग करके पृथक केन्द्र शासित प्रदेश बनाने की विवादित मांग रखी तो उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं था कि उनके बयान से खड़े हुए इस तूफान पर टीवी चैनल घंटों लंबी चर्चा करेंगे, संपादकीय से अखबारों के पन्ने रंगे जाएंगे और सोशल मीडिया पर इसे ‘‘नयी विभाजन योजना’’ बताकर इसका विरोध किया जाएगा।
भारतीय जनता पार्टी के एक अन्य सांसद सौमित्र खान द्वारा पश्चिम बंगाल के आदिवासी आबादी बहुल जिलों को अलग करके दूसरा राज्य बनाने की मांग ने इस आग में घी डालने का काम किया है। अखबारों ने इस विषय पर आक्रोश से भरे संपादकीय लिखे हैं और इस कदम को पश्चिम बंगाल को ऐसी छोटी-छोटी इकाइयों में बांटने का प्रयास करार दिया है, जिनकी आपस में शत्रुता हो।
पिछले 116 वर्षों में दो बार विभाजन की त्रासदी झेल चुका बंगाल फिलहाल भावनाओं के आवेग में बह रहा है। एक ओर जहां कॉफी हाउसों में बुद्धिजीवियों के बीच इसपर चर्चा हो रही है, वहीं चाय की दुकानों पर भी ‘विभाजन’ शब्द लंबी बहस का मुद्दा बना हुआ है।
जवाहर लाल नेहरु इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज के निदेशक और समकालीन इतिहास के प्रोफेसर आदित्य मुखर्जी ने इंगित किया, ‘‘विभाजन शब्द, यहां भावनाओं के अतिरेक से जुड़ा हुआ है क्योंकि राज्य को दो बार बांटा गया है और वह बेहद हिंसक तथा भावनात्मक रूप से थकाने वाला था... पहला विभाजन 1905 में और दूसरा 1947 में हुआ जब सर सिरिल रेडक्लिफ ने बंगाल के नक्शे के राजनीतिक विभाजन के लिए अपना चाकू चलाया और यहां भयावह दंगे हुए।’’
उससे पहले, जुलाई, 1905 में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल प्रेसिडेंसी को दो हिस्सों में बांटने की घोषणा की। उस वक्त बंगाल प्रेसिडेंसी को दो हिस्सों में बांटा गया... पहले हिस्से में पश्चिम बंगाल, बिहार और ओडिशा आए जबकि दूसरे हिस्से में पूर्वी बंगाल और असम आए। ब्रिटिश शासन ने दलील दी कि प्रशासनिक कार्यों को आसान बनाने और सुशासन के लिए ऐसा किया जा रहा है, लेकिन असल वजह कोलकाता से संचालित हो रहे स्वतंत्रता आंदोलन को दबाना था।
भारत का पहला जनांदोलन बंगाल विभाजन के खिलाफ लोगों का सड़कों पर उतरना था, इसके विरोध में कांग्रेस नेता एस. एन. बनर्जी से लेकर रबीन्द्र नाथ ठाकुर तक, सभी तबकों और पेशे के लोग सड़कों पर उतरे थे।
इस आंदोलन की आंच ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आने वाले भारत के अन्य हिस्सों में भी पहुंची और औपनिवेशिक सरकार को 1911 में विभाजन वापस लेना पड़ा। हालांकि, इस घटना के बाद ब्रिटिश शासन वाले भारत की राजधानी मेट्रोपॉलिटन कोलकाता से हटाकर दिल्ली ले जायी गयी, जहां की आबादी उस वक्त महज चार लाख थी।
हालांकि, विभाजन के इस प्रयास का देश पर गहरा प्रभाव पड़ा, कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गयी नरम दल और गरम दल। गरम दल सड़कों पर उतरने, प्रदर्शन करने और गोपनीय क्रांतिकारी संगठनों जैसे ‘अनुशीलन समिति’ के गठन, हथियारबंद क्रांति आदि के पक्ष में था।
मुखर्जी ने बताया, ‘‘बंगाल के लोकप्रिय देशभक्ति संगीत और साहित्य की ज्यादातर रचना इसी दौरान हुई... ठाकुर, द्विजेन्द्रलाल रॉय, रजनीकांत सेन ने इस क्षेत्र में सुन्दर गीतों की रचना की... ये गीत अभी भी भारत और बांग्लादेश में लोकप्रिय हैं।’’
अगली बार, रोमन मैक्सिम ‘डिवाइड ए टेम्पेरा’ या ‘फूट डालो राज करो’ को बंगाल में 1947 में अपनाया गया, इस दौरान ब्रिटेन ने भारत से वापस जाने का फैसला तो किया लेकिन अपने पीछे पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान छोड़ गए लड़ते-भिड़ते रहने के लिए।
सन 1947 की गर्मियों की संयुक्त बंगाल को बनाए रखने की अंतिम कोशिश की गई, लेकिन जब महात्मा गांधी ने सुभाष चन्द्र बोस के भाई और फॉरवार्ड ब्लॉक के नेता शरत चन्द्र बोस को पत्र लिखा तो, सरदार वल्लभ भाई पटेल और जवाहर लाल नेहरू सहित कांग्रेस नेतृत्व ने ‘‘इसका पुरजोर विरोध किया।’’ ऐसे में बंगाल को संयुक्त रखने का हुसैन एस. सोहरावर्दी, बोस और किरण शंकर रॉय का सपना, सपना बनकर रह गया।
जून, 1947 में विधानमंडल में विभाजन पर हुआ मतदान ताबूत में अंतिम कील साबित हुआ। तीन जुलाई, 1947 को कांग्रेस पार्टी ने पी. सी. घोष के नेतृत्व में अस्थाई मंत्रिमंडल का गठन किया, जिसे विभाजन पूरा होने पर पश्चिम बंगाल की सरकार चलाने की जिम्मेदारी दी गई।
विभाजन से पहले तक लीग द्वारा निर्वाचित बंगाल के प्रधानमंत्री सोहरावर्दी में मुस्लिम लीग अपना विश्वास खो चुकी थी और उसने पूर्वी बंगाल का शासन चलाने के लिए ख्वाजा निजामुद्दीन के नेतृत्व में ऐसे ही मंत्रिमंडल का गठन किया।
विभाजन की इस त्रासदी के बाद शरणार्थियों की लंबी-लंबी कतारें देखने को मिलीं, जो अपना घर-बार, परिवार की विरासत और इतिहास पीछे छोड़कर शरणार्थी शिविरों में रहने आ गए थे। वे लोग गरीबी से लड़ते हुए फिर से ईंट-ईंट जोड़कर अपनी जिंदगी को पटरी पा लाने की कोशिशों में जुटे थे।
फिल्म निर्देशक ऋत्विक घटक ने इसी विषय पर तीन फिल्में बनायीं ‘‘मेघे ढाका तारा’, ‘कोमल गांधार’ और ‘सुबर्णरेखा’। उनकी इन तीनों फिल्मों को पुरस्कार मिला है।
इतिहासकारों और राजनीति विशेषज्ञों का कहना है कि विभाजन की उस त्रासदी की झलकियां आज भी देखने को मिलती हैं और यह राजनीतिक तथा सामाजिक-आर्थिक जीवन को प्रभावित करती हैं।
अर्थशास्त्री और फाइनेंशियल टाइम्स के पूर्व भारत संवाददाता कुणाल बोस का कहना है, ‘‘हालांकि जो दर्द महसूस किया गया और जो याद रहा, वह सब निजी था, लेकिन विभाजन का सबसे भयावक प्रभाव आर्थिक था।’’
बंगाल आर्थिक रूप से एक-दूसरे पर निर्भर प्रांत था। पूर्वी बंगाल की उपजाऊ जमीन खाद्यान्न और नकदी फसलें उपजाती और औद्योगिक रूप से विकसित पश्चिमी हिस्से में उनका प्रसंस्करण होता। वहीं, कोलकाता के आसपास सहित पूर्वी बंगाल लोहे और कपड़ा मिलों के उत्पादों के लिए बड़ा बाजार भी था।
बंगाल को दो हिस्सों में बांटने के लिए रेडक्लिफ लाइन ने पद्मा और इच्छामति नदियों का सहारा लिया और इस विभाजन ने प्रांत को आर्थिक रूप से तोड़ दिया।
बोस ने इंगित किया, ‘‘सबसे ज्यादा नुकसान जूट उद्योग को पहुंचा, जो उस वक्त विदेशी मुद्रा कमाने का भारत का सबसे बड़ा जरिया था... असम और पूर्वोत्तर राज्यों के साथ संपर्क टूट गया, जिससे चाय की कीमतें बढ़ गयीं और प्रतिद्वंद्वियों श्रीलंका तथा केन्या को बाजार में प्रवेश करने का मौका मिला।’’
ऐसा इतिहास होने के बावजूद, भाजपा नेताओं बारला और खान को लगता है कि उनकी मांग जायज है क्योंकि आजादी के बाद पिछले सात दशकों में राज्य के पहाड़ी और आदिवासी बहुल क्षेत्रों के साथ उचित तथा समान व्यवहार नहीं हुआ है।
इस संबंध में पश्चिम बंगाल भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष ने पार्टी की ओर से रुख स्पष्ट करते हुए कहा है, ‘‘मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि भाजपा का बंगाल को बांटने या नये राज्य के गठन का कोई एजेंडा नहीं है।’’
आर्थिक पिछड़ापन का हवाला देते हुए 1980 के दशक के अंत से ही दार्जिलिंग में ‘गोरखालैंड’ की मांग को लेकर आंदोलन चल रहा है जिसका समाधान निकालने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार ने यहां स्वायत जिला परिषद का गठन भी किया है। दार्जिलिंग में नेपाली भाषी लोगों की बहुलता है।
वहीं, जातीय मतभेद पर आधारित कामतापुर आंदोलन के क्षेत्र में अभी तक कुछ खास नहीं हुआ है। वामपंथी दलों सहित अन्य का भी मानना है कि पश्चिम बंगाल में विभिन्न क्षेत्रीय मतभेद पैदा हो रहे हैं।
भाकपा (माले) लिबरेशन के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य का कहना है, ‘‘बंगाल के आदिवासियों की चिंताएं हैं, जिन्हें हल करना आवश्यक है, हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि पृथक राज्य का गठन होना चाहिए।’’
वहीं, सत्तासीन तृणमूल कांग्रेस का अनाधिकारिक तौर पर कहना है कि आदिवासी और पहाड़ी दोनों क्षेत्रों के लिए और प्रयास करने की आवश्यकता है।
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