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क्या है महिला आरक्षण बिल? जिसका सालों पुराना इतिहास नहीं जानते होंगे आप, जानें पहला प्रस्ताव कब आया

By अंजली चौहान | Updated: September 19, 2023 11:11 IST

महिला आरक्षण विधेयक राज्य विधान सभाओं और संसद में महिलाओं के लिए कुल सीटों में से एक तिहाई (33%) आरक्षित करने का प्रावधान करता है। विधेयक में 33% कोटा के भीतर एससी, एसटी और एंग्लो-इंडियन के लिए उप-आरक्षण का भी प्रस्ताव है।

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ठळक मुद्देमहिला आरक्षण बिल को लेकर सियासत तेज इस बिल के तहत राज्य सभाओं और सदन में महिलाओं को 33% आरक्षण दिया जाएगामोदी सरकार की अध्यक्षता में सोमवार को बिल को मंजूरी दी गई

नई दिल्ली: देश में महिला आरक्षण बिल को लेकर चर्चा तेज हो गई है। खबर है कि सोमवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में महिला आरक्षण विधेयक को मंजूरी दी गई है। इस खबर के सामने आने के बाद राजनीतिक माहौल भी गर्म हो गया है।

ऐसे में हर किसी के मन मं ये सवाल है कि आखिर महिला आरक्षण बिल है क्या और क्यों इसकी मांग उठी है। दरअसल, ये मुद्दा 27 साल पुराना है और 27 सालों से लंबित पड़ा है। अब इसे लोकसभा में पारित करने की अटकलें लगाई जा रही है। 

पहली बार कब की गई पहल?

गौरतलब है कि इस बिल को लेकर पहली बार 1996 में सदन में लाया गया था। उस समय कई बार कोशिशे की गई लेकिन बात नहीं बन गई।

इसके  बाद पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ही थे जिन्होंने मई 1989 में ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण प्रदान करने के लिए संविधान संशोधन विधेयक पेश करके पहली बार निर्वाचित निकायों में महिला आरक्षण का बीज बोया था। विधेयक लोकसभा में पारित हो गया लेकिन सितंबर 1989 में राज्यसभा में पारित होने में विफल रहा।

1992 और 1993 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने संविधान संशोधन विधेयक 72 और 73 को फिर से पेश किया, जिसमें ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए सभी सीटों और अध्यक्ष पदों का एक तिहाई (33%) आरक्षित किया गया।

विधेयक दोनों सदनों से पारित हो गये और देश का कानून बन गये। अब देश भर में पंचायतों और नगर पालिकाओं में लगभग 15 लाख निर्वाचित महिला प्रतिनिधि हैं।

12 सितंबर, 1996 को तत्कालीन देवेगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार ने पहली बार संसद में महिलाओं के आरक्षण के लिए 81वां संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश किया।

विधेयक को लोकसभा में मंजूरी नहीं मिलने के बाद इसे गीता मुखर्जी की अध्यक्षता वाली संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजा गया। मुखर्जी समिति ने दिसंबर 1996 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। हालाँकि, लोकसभा के विघटन के साथ विधेयक समाप्त हो गया।

दो साल बाद, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने 1998 में 12वीं लोकसभा में डब्ल्यूआरबी विधेयक को आगे बढ़ाया। हालांकि, इस बार भी विधेयक को समर्थन नहीं मिला और यह फिर से निरस्त हो गया। बाद में इसे 1999, 2002 और 2003 में वाजपेयी सरकार के तहत फिर से पेश किया गया लेकिन कोई सफलता नहीं मिली।

इसके पांच साल बाद डब्ल्यूआरबी बिल ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार-1 के दौरान फिर से कुछ जोर पकड़ा। 2004 में, सरकार ने इसे अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शामिल किया और अंततः इसे फिर से समाप्त होने से बचाने के लिए 6 मई 2008 को इस बार राज्यसभा में पेश किया।

1996 की गीता मुखर्जी समिति द्वारा की गई सात सिफारिशों में से पांच को विधेयक के इस संस्करण में शामिल किया गया था। यह कानून 9 मई, 2008 को स्थायी समिति को भेजा गया था। स्थायी समिति ने 17 दिसंबर, 2009 को अपनी रिपोर्ट पेश की। इसे फरवरी 2010 में केंद्रीय मंत्रिमंडल से मंजूरी मिल गई। विधेयक अंततः राज्यसभा में पारित हो गया। 

जानकारी के अनुसार, विधेयक को लोकसभा में कभी विचार के लिए नहीं लाया गया और 2014 में लोकसभा के विघटन के साथ समाप्त हो गया। हालांकि, अब मोदी सरकार में एक बार फिर इस बिल का मुद्दा उठ गया है और अब इसने जोर पकड़ लिया है। 

क्या है महिला आरक्षण बिल?

संविधान के 108वां संशोधन विधेयक, 2008 राज्य विधान सभाओं और संसद में महिलाओं के लिए सीटों की कुल संख्या का एक तिहाई (33%) आरक्षित करने का प्रावधान करता है।

विधेयक में 33% कोटा के भीतर एससी, एसटी और एंग्लो-इंडियन के लिए उप-आरक्षण का प्रस्ताव है। आरक्षित सीटें राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में रोटेशन द्वारा आवंटित की जा सकती हैं। विधेयक में कहा गया है कि संशोधन अधिनियम शुरू होने के 15 साल बाद महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण समाप्त हो जाएगा।

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