वीरगति पार्ट-2: कैप्टन मनोज पांडे, जो सिर्फ परमवीर चक्र के लिए ही भारतीय सेना में भर्ती हुए
By भारती द्विवेदी | Published: July 5, 2018 11:12 AM2018-07-05T11:12:03+5:302018-07-05T11:12:03+5:30
सियाचिन में तैनाती के बाद मनोज छुट्टियों में घर जाने वाले थे लेकिन कारगिल युद्ध शुरू होने की वजह से उन्होंने अपनी छुट्टियां रद्द कराई।
'अगर कोई सिपाही कहता है कि वो मौत से नहीं डरता, तो या तो वो झूठ बोल रहा है या फिर वो गोरखा है।’
ये लाइन भारत के पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ ने कही थी। उनकी इस लाइन को सही कर दिखाया था यूपी के एक 24 साल के लड़के ने। जो भारतीय सेना के लिए काम करता था और गोरखा रेजिमेंट में बतौर कैप्टन पोस्टेड था। जिसने बहुत छोटी उम्र में देश के लिए खुद की जान तक की परवाह नहीं की।
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बचपन में मां की कहानियों ने देशभक्ति का भाव जगाया
कारगिल युद्ध में बटालिक सेक्टर, खालूबार हिल्स और जब्बार टॉप से दुश्मनों को खदेड़ने वाले कैप्टन मनोज पांडे का जन्म 25 जून 1975 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के रुधा गांव में हुआ था। मनोज के पिता का नाम गोपीचंद्र पांडे और मां का नाम मोहिनी पांडे था। शुरूआती शिक्षा सैनिक स्कूल लखनऊ से हुई थी। कहते हैं कि उनके अंदर देश प्रेम और वीरता की भावना का श्रेय उनकी मां को जाता है। उनकी मां बचपन से ही उन्हें वीरों की कहानियां सुनाया करती थीं। इंटर की पढ़ाई करने के बाद मनोज ने प्रतियोगी परीक्षा पास करके पुणे के पास खड़कवासला स्थित नेशनल डिफेंस एकेडमी में दाखिला लिया। ट्रेनिंग पूरा करने के बाद उनका चयन बतौर कमीशंड अफसर 11 गोरखा रायफल्स की पहली बटालियन में हुआ। पहली पोस्टिंग श्रीनगर में हुई और उसके बाद सियाचिन।
बटालिक, जब्बार टॉप और खालूबार पोस्ट की जीत का हीरो
सर्दियों में भारतीय सेना ऊंचे इलाके की चौकियों से जमीनी इलाके में आ जाती थी। इस बात का फायदा उठाकर पाकिस्तान 1999 में कारगिल समेत कई अलग-अलग चौकियों पर कब्जा जमाकर बैठ गया। उन चौकियों में बटालिक सेक्टर, खालूबार पोस्ट और जब्बर टॉप भी शामिल था। ये तीनों ही चौकियां भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण थीं। इस लिहाज से इन तीनों इलाकों को घुसपैठियों से मुक्त कराना भारतीय सेना की प्राथमिकता थी। ऐसे में इन इलाकों को खाली कराने का जिम्मा भारतीय सेना की सबसे आक्रामक रेजिमेंट 'गोरखा रेजिमेंट' को सौंपा गया। इसी रेजिमेंट का हिस्सा था कैप्टन मनोज पांडे।
सियाचिन में तैनाती के बाद मनोज छुट्टियों में घर जाने वाले थे लेकिन कारगिल युद्ध शुरू होने की वजह से उन्होंने अपनी छुट्टियां रद्द कराई। कैप्टन मनोज को 3 जुलाई को बड़ी जिम्मेदारी देते हुए खालूबार पोस्ट दुश्मनों के चुंगल से छुड़ने को कहा गया। मिशन पर भेजने से पहले मनोज पांडे को लेफ्टिनेंट से कैप्टन बनाया गया था।
हांडकांप देने वाली ठंड, संकरी रास्ते और भी कई चुनौतियों का सामना करते हुए, मिशन को पूरा करने के लिए मनोज आधी रात को अपनी पलटन के साथ टारगेट की तरफ बढ़े चुके थे। क्योंकि दुश्मन लगभग 16 हजार ऊंची चोटियों पर बैठा था। ऊंचाई का फायदा उठाकर वो इनकी हर हरकत पर नजर बनाए हुए था। दुश्मनों को जैसे ही इनके मूवमेंट के बारे में पता चला उन्होंने फायरिंग शुरू कर दी। लेकिन वो बिना डरे, हमले का जवाब देते हुए आगे बढ़ते रहे। हैंड ग्रेनेड फेंकते हुए उन्होंने सबसे पहले खालूबार से दुश्मन का सफाया किया। फिर आमने-सामने की लड़ाई में उन्होंने एक के बाद एक तीन बंकर उड़ा दिए। इस दौरान वो बुरी तरह घायल हो चुके थे। दुश्मन की गोलीबारी से कैप्टन मनोज का कंधा और पैर बुरी तरह जख्मी हो चुका थाा। लेकिन तभी वो आगे बढ़ते रहे। जैसे ही उन्होंने दुश्मन के चौथे बंकर को उड़ाया सामने से दनदनाती हुई एक गोली उनके माथे को भेद गई। कैप्टन मनोज शहीद तो हो गए लेकिन खालूबार पोस्ट से पाकिस्तानियों को खदेड़कर। शहीद होने से पहले कैप्टन मनोज के आखिरी शब्द थे 'ना छोड़नू'। नेपाली में कह गए इस शब्द का मतलब था किसी को मत छोड़ना।
परमवीर चक्र पाना सपना था और उसे सच कर दिखाया
कैप्टन मनोज की बहादुरी के कई अलग-अलग किस्से प्रचालित हैं। वो कभी भी मुश्किल हालात से नहीं डरे बल्कि आगे बढ़कर उस जगह खुद को रखा। एक बार उन्हें अपनी बटालियन के साथ सियाचिन में तैनात होना था। लेकिन उन्हें युवा अफसरों की ट्रेनिंग देने के लिए भेजा जाना था और वो ऐसा बिल्कुल नहीं चाहते थे। वो चाहते थे कि वो बटालियन के साथ सरहद के दुर्गम इलाकों में जाए। इस बात के लिए उन्होंने अपने कमांडिंग अफसर को पत्र लिखा और कहा कि अगर उनकी टुकड़ी उत्तरी ग्लेशियर जाए तो उनकी पोस्टिंग बाना चौकी में की जाए। अगर उनकी टुकड़ी सेंट्रल ग्लेशियर जाए तो उनकी तैनाती पहलवान चौकी पर की जाए। कमांडिंग अफसर ने उनकी बात मानी और उन्हें 19700 फीट ऊंची पहलवान चौकी पर तैनात किया।
ऐसे ही बहादुरी भरे जवाब से उन्होंने अपने सेलेक्शन टीम को चौंकाया था। कैप्टन मनोज पांडे जब सेना में भर्ती होने के लिए इंटरव्यू देने गए थे, उस समय उनसे सवाल किया गया था कि आप सेना में क्यों शामिल होना चाहते हैं? उन्होंने कहा था क्योंकि उन्हें परमवीर चक्र चाहिए। उनका ये जवाब सुनकर हर वहां मौजूद हर कोई दंग रह गया था। कारगिल युद्ध में दुश्मनों को दांत खट्टे करने वाले मनोज को उनके मरणोपरांत परमवीर चक्र से नवाजा गया।
अगर मेरे फर्ज की राह में मौत भी रोड़ा बनी तो मैं कसम खाता हूं कि मैं मौत को भी मात दे दूंगा…ये लाइन कैप्टन मनोज ने अपनी डायरी में लिखी थी। ये बस लिखने भर नहीं था। उन्होंने इन शब्दों को चरितार्थ कर दिखाया था।
कैसे मनोज पांडे ने दुश्मन के छक्के छुड़ाए:
नोट: लोकमतन्यूज़ अपने पाठकों के लिए एक खास सीरीज़ कर रहा है 'वीरगति'। इस सीरीज के तहत हम अपने पाठकों को रूबरू करायेंगे भारत के ऐसे वीर योद्धाओं से जिन्होंने देश के लिए अपने प्राणों की भी परवाह नहीं की।