तमिलनाडु: क्या राज्यपाल आरएन रवि द्वारा मंत्री बालाजी की बर्खास्तगी का फैसला संवैधानिक दायरे से परे था?, क्या कहता है संविधान के अनुच्छेद 164(1)

By आशीष कुमार पाण्डेय | Published: June 30, 2023 09:47 AM2023-06-30T09:47:26+5:302023-06-30T09:56:45+5:30

तमिननाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने मंत्री बालाजी को पहले बर्खास्त किया और कुछ ही घंटे बाद अपने फैसले को रद्द कर दिया। ऐसे में प्रश्न उठ रहा है कि क्या राज्यपाल रवि के पास मुख्यमं6ी स्टालिन से सलाह लिये बिना मंत्री बालाजी को बर्खास्त करने का संवैधानिक अधिकार था।

Tamil Nadu: Whether Governor RN Ravi's decision to sack Minister Balaji was beyond constitutional purview, what does Article 164(1) of the Constitution say | तमिलनाडु: क्या राज्यपाल आरएन रवि द्वारा मंत्री बालाजी की बर्खास्तगी का फैसला संवैधानिक दायरे से परे था?, क्या कहता है संविधान के अनुच्छेद 164(1)

तमिलनाडु: क्या राज्यपाल आरएन रवि द्वारा मंत्री बालाजी की बर्खास्तगी का फैसला संवैधानिक दायरे से परे था?, क्या कहता है संविधान के अनुच्छेद 164(1)

Highlightsराज्यपाल रवि द्वारा की गई मंत्री बालाजी की बर्खास्तगी पर उठे सवाल क्या राज्यपाल रवि का फैसला संविधान प्रदत्त शक्तियों के दायरे में आता है?संविदान का अनुच्छेद 164 (1) में राज्यपाल इस संबंध में मुख्यमंत्री की सलाह लेने के लिए बाध्य हैं

चेन्नई: तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने बीते गुरुवार को अचानक ईडी की गिरफ्त में चल रहे स्टालिन सरकार के बिना विभाग के मंत्री सेंथिल बालाजी को मंत्रीमंडल से बर्खास्त करने का आदेश दिया। राज्यपाल के इस फैसले से न केवल तमिलनाडु बल्कि दिल्ली तक की सियासत में भूचाल आ गया और सत्ताधारी डीएमके के बेहद कड़े प्रतिवाद के बाद राज्यपाल रवि ने बालाजी की बर्खास्तगी का आदेश जारी करने के कुछ ही घंटों के भीतर अपना फैसला रद्द कर दिया।

दरअसल राज्यपाल आरएन रवि के इस फैसले की संवैधानिक वैधता पर सवाल खड़ा हो गया है और संविधान के जानकार राज्यपाल के फैसले को गलत बता रहे हैं और अगर संविधान में वर्णित कानून का बारीकि से अध्ययन किया जाए तो केंद्र या राज्य में किसी भी मंत्री की नियुक्ति या बर्खास्तगी में क्रमशः प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की सलाह बाध्यकारी है।

ऐसे में बड़ा सवाल उठता है कि क्या राज्य में राज्यपाल और केंद्र में राष्ट्रपति के पास संविधान प्रदत्त ऐसी विवेकाधीन शक्तियां हैं, जिनके बल पर पर वो क्रमशः राज्य सरकार के मंत्री और केंद्र में प्रधानमंत्री के मातहत कार्य कर रहे मंत्री को बर्खास्त करने का आधिकार रखता है। चूंकि यहां पर मसला राज्य का है। इसलिए हम राज्यपाल की शक्तिय़ों और कार्यों पर बात कर रहे हैं। दरअसल संविधान का अनुच्छेद 164 राज्यपाल को प्रदत्त शक्तियों और अधिकारों का वर्णन किया गया है।

संविधान के अनुच्छेद 164 (1) के अनुसार राज्य में मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाएगी और राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह पर अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करेगा। राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री की सलाह पर नियुक्त मंत्री तब तक अपने पद पर रहता है, जब तक कि मुख्यमंत्री की अनुशंसा पर राज्यपाल उसे पद से नहीं हटाते हैं। इसका सीधा आशय यह है कि अपरोक्ष रूप से किसी भी मंत्री की बर्खास्तगी मुख्यमंत्री के अधिकार क्षेत्र में आता है न कि न कि राज्यपाल के अधिकारी क्षेत्र में। इसका सीधा अर्थ है कि राज्यपाल स्वयं के विवेक से और बिना मुख्यमंत्री की सलाह के किसी मंत्री को नहीं हटा सकता है।

राज्यपाल विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले

जिस प्रकार से तमिलनाडु में बीते गुरुवार को घटनाक्रम हुआ, ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ है। इससे पहले भी राज्यपाल के अधिकारी और शक्तियों को लेकर तमाम तरह के सवाल उठते रहे हैं और मामले सुप्रीम कोर्ट तक गये हैं। मसलन इस विवाद में सबसे प्रमुख केस साल 1974 का शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य को माना जाता है। जिसमें सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की बेंच ने एक स्वर में कहा था कि राष्ट्रपति और राज्यपाल जो कि विभिन्न अनुच्छेदों के तहत अन्य शक्तियों एवं कार्यपालिका के संरक्षक हैं। वो कुछ असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर अपने मंत्रियों की सलाह के अनुसार ही अपनी औपचारिक संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग करेंगे।

इसके अलावा साल 2016 के नबाम रेबिया बनाम उपाध्यक्ष के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर को कोट करते हुए कहा था, "संविधान के तहत राज्यपाल के पास ऐसा कोई कार्य नहीं है, जिसे वह स्वयं मूर्तरूप दे सके। चूंकि राज्यपाल के पास कोई कार्य नहीं है लेकिन उसके कुछ कर्त्तव्य हैं और सदन को इस बात को ध्यान में रखना चाहिये।" सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट कहा था कि राज्यपाल के विवेक का प्रयोग अनुच्छेद 163 के तहत आता है और उसके द्वारा की जाने वाली कार्रवाई मनमानी या काल्पनिक नहीं होनी चाहिये। अपनी कार्रवाई के लिये राज्यपाल के पास तर्क होना चाहिये तथा यह सद्भावना के साथ की जानी चाहिये।

राज्यपाल के संबंध में की गई सिफारिशें

राज्यपालों के विषय में अब तक दो समितियों का गठन किया गया है। जिन्हें सरकारिया समिति और पुंछी समिति के नाम से जाना जाता है।

सरकारिया आयोग का प्रस्ताव:

साल 1983 में गठित सरकारिया आयोग ने केंद्र-राज्य संबंधों पर अपनी साफारिश पेश की थी।  जिसके तहत राज्यपालों के चयन में भारत के उपराष्ट्रपति एवं लोकसभा के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के बीच परामर्श किया जाना चाहिये लेकिन आज भी सरकारिया आयोग की इस सिफारिश को अमल में नहीं लाया जाता है।

पुंछी आयोग समिति का प्रस्ताव:

साल 2207 में जस्टिस मदन मोहन पुंछी की अगुवाई में गठित समिति ने केंद्र-राज्य संबंधों पर पर अपनी सिफारिश पेश की थी। 
पुंछी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, उपराष्ट्रपति, लोकसभा के अध्यक्ष और संबंधित मुख्यमंत्री की एक समिति द्वारा राज्यपाल का चयन किया जाना चाहिये।

पुंछी समिति ने संविधान से "प्रसादपर्यंत के सिद्धांत" को हटाने की सिफारिश की, लेकिन राज्य सरकार की सलाह के खिलाफ रहने वाले मंत्रियों पर मुकदमा चलाने की मंजूरी पर राज्यपाल के अनुमोदन के अधिकार का समर्थन किया। इसके अलावा पुंछी समिति ने राज्य विधानमंडल द्वारा राज्यपाल पर महाभियोग चलाने के प्रावधान का भी समर्थन किया था।

तमिलनाडु का क्या है मामला?

तमिलनाडु की स्टाटिन सरकार में बिजली और आबकारी मंत्री रहे सेंथिल बालाजी को ईडी ने 14 जून को गिरफ्तार कर लिया था। इसके बाद मुख्यमंत्री स्टालिन ने बालाजी को बिना विभाग का मंत्री बनाये रखते हुए दो अन्य मंत्रियों को उनके विभागों का आवंटन कर दिया था। उस समय राज्यपाल ने स्टालिन सरकार से कहा था कि वह सेंथिलबालाजी को बिना पोर्टफोलियो के मंत्री के रूप में बनाए रखने के मुख्यमंत्री के फैसले से "असहमत" हैं।

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