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राजेश बादल का नजरियाः पुलवामा हमले में कूटनीतिक विफलता का हाथ

By राजेश बादल | Updated: February 16, 2019 06:08 IST

कूटनीति, विदेश नीति और राजनीतिक मोर्चे पर विफलता से बचाव सेना और सुरक्षाबल नहीं कर सकते.

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कश्मीर में अब तक के सबसे खूंखार आतंकवादी हमले के तार पाकिस्तान से जुड़ते हैं. यह कोई नई बात नहीं रही. सवाल यह है कि भारत इन वारदातों को समय रहते क्यों नहीं रोक पाता? सेना और अर्धसैनिक बल सिर्फ अपनी ताकत दिखा सकते हैं. उसके अलावा उनकी क्या भूमिका हो सकती है? वे हर मर्ज की दवा नहीं हो सकते. ताकत के बल पर आप जंग जीत सकते हैं लेकिन जहां मुकाबला कूटनीति और कुचक्र  भरी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति से हो, वहां हथियार और सैनिक बल काम नहीं आते. वहां सरकार को अपनी बिसात बिछानी होती है और इसमें नाकामी घोर शर्म तथा चिंता की बात है. कूटनीति, विदेश नीति और राजनीतिक मोर्चे पर विफलता से बचाव सेना और सुरक्षाबल नहीं कर सकते.

एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा. ध्यान दीजिए दो महीने पहले पाकिस्तान दिवालिया हो रहा था. जर्जर अर्थव्यवस्था ने उसकी हालत भिखारियों जैसी कर दी थी. प्रधानमंत्नी इमरान खान के लिए करो या मरो की स्थिति थी. इसलिए पद संभालते ही इमरान सऊदी अरब की शरण में गए. सऊदी अरब ने 12 अरब डॉलर की सहायता मंजूर कर दी. तीन अरब डॉलर पाकिस्तान के खाते में आ गए. उसके लिए तो यह मालामाल करने वाली रकम है. इमरान खान की पार्टी ने खैबर पख्तूनख्वा सूबे में पाकिस्तानी तालिबान के मुखिया हक्कानी को मदरसों के नाम पर 30 लाख डॉलर की मदद दी थी. यह पैसा अमेरिकी था. हक्कानी नेटवर्क भारत विरोधी है और कश्मीर में हिंसक गतिविधियों को मदद करता है. भारत ने जब सर्जिकल स्ट्राइक की थी तो इमरान खान का खुला बयान आया था कि वे बदला लेंगे और भारत को बताएंगे कि इसका उत्तर कब और किस तरह देना है. 

सऊदी अरब भारत से अच्छे रिश्ते रखते हुए भी हमेशा कश्मीर के मामले में पाकिस्तान को खुला समर्थन देता रहा है. अच्छे संबंधों का आधार कारोबारी रहा है. भारत जिन देशों से क्रूड ऑइल आयात करता है, उन देशों की सूची में सऊदी अरब  हरदम पहले नंबर पर रहा है. सर्वाधिक कारोबार के कारण ही सऊदी अरब ने भारतीय प्रधानमंत्नी डॉ. मनमोहन सिंह का सारे प्रोटोकॉल तोड़कर स्वागत किया था और उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि दी थी. इसके बाद नरेंद्र मोदी को 2016 में अपने देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिया था. लेकिन पिछले साल भारत ने सऊदी अरब से पहला स्थान छीन कर उस पर इराक को बिठा दिया. इराक से 21 मिलियन टन तेल आयात बढ़ाया गया और सऊदी अरब  से 2 मिलियन टन कम किया गया. जाहिर है यह स्थिति सऊदी अरब को पसंद नहीं आनी थी. उसका एकाधिकार टूट गया था. इमरान खान ने इस मानसिकता का फायदा उठाया और आर्थिक मदद ले ली. जानकार मानते हैं कि यही पैसा आतंकवादियों को मिल रहा है. पुलवामा हमला इसका परिणाम हो सकता है.

एक समीकरण और उभरता है. सऊदी अरब और ईरान के बीच रिश्तों में भारत-पाकिस्तान की तरह स्थायी तनाव रहता है. इसका भी भारत ने ख्याल नहीं रखा. एक तरफ हमने सऊदी को तेल आयात के मामले में पहले स्थान से उतारा तो उसके प्रतिद्वंद्वी ईरान पर निर्भरता बढ़ा दी. पांच बरस में 11 मिलियन टन से बढ़ाकर 22.59 मिलियन टन कर दिया गया. ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध और सऊदी अरब के अमेरिका से मधुर रिश्तों का हम कूटनीतिक ख्याल नहीं रख सके. यह सच है कि पाकिस्तान में चीनी मदद से बने ग्वादर बंदरगाह के जवाब में ईरान का चाबहार एयरपोर्ट भारत के लिए शक्ति संतुलन का काम करता है और भारत की प्राथमिकता सूची में ईरान को महत्व दिया जाना जरूरी था. ऐसे में भारत सऊदी अरब को तेल आयात में अव्वल दज्रे पर रख कर इराक, वेनेजुएला, नाइजीरिया और संयुक्त अरब अमीरात से कटौती कर सकता था. इन देशों से भी भारत तेल आयात करता है. फिलहाल इन छोटे मुल्कों से भारत को कोई खतरा नहीं है. पाकिस्तान ने इस मामले में कूटनीतिक कामयाबी हासिल की है.

इसके अलावा पाकिस्तान ने अमेरिका से भी संबंध सुधारे हैं. ईरान पर प्रतिबंध लगाने के बाद अमेरिका के इशारे पर भारत ने तेल आयात बंद नहीं किया. भारत का हित भी इसी में था. लेकिन इससे अमेरिका खफा है. भले ही उसने भारत को छूट दी हो, लेकिन हमें यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए था कि पाकिस्तान अमेरिका के करीब न आ सके. हाल ही में पाकिस्तान ने अफगानी तालिबान और अमेरिका को शांति समझौते की मेज पर लाने का काम किया है. इसमें उसने भारत को अलग-थलग कर दिया था. अमेरिका इससे खुश है क्योंकि अफगानिस्तान में उसकी हालत सांप-छछूंदर जैसी हो गई है. उसे इज्जत से अपने सैनिकों की वापसी का बहाना चाहिए. यह बहाना पाकिस्तान ने उसे दे दिया है. अमेरिका भले ही पुलवामा के हमले की निंदा करे लेकिन अब वह पाक के प्रति नरम रवैया अपना रहा है. 

चुनाव और अपने राजनीतिक हितों में उलझे रहने से भारतीय विदेश व रक्षा क्षेत्नों के अधिकारी, राजनेता  पाकिस्तान के कूटनीतिक कदमों पर नजर नहीं रख सके. वे सिर्फ पाक को गीदड़ भभकी देते रहे. उन्हें समझना चाहिए कि गरजने वाले बादल कम ही बरसते हैं. अब गरजने का अवसर चला गया.

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