राजेश बादल का ब्लॉग: प्रतिपक्ष की एकता को मिली एक नई धुरी

By राजेश बादल | Published: May 5, 2021 06:31 PM2021-05-05T18:31:22+5:302021-05-05T18:31:22+5:30

भाजपा के शिखर पुरुषों को पता ही नहीं चला कि कब उनकी पार्टी खामोशी से कांग्रेस पार्टी में तब्दील हो गई. यानी वह पक्ष और विपक्ष दोनों खुद ही बन बैठी थी.

Rajesh Badal Blog about Opposition Unity Gets a New Axis | राजेश बादल का ब्लॉग: प्रतिपक्ष की एकता को मिली एक नई धुरी

(फाइल फोटो)

भारतीय लोकतंत्र में कुछ समय से विपक्ष की भूमिका कमजोर होती दिखाई दे रही थी. राजनीतिक क्षेत्रों में सवाल उभरने लगा था कि मौजूदा सियासी दौर में पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच संतुलन की डोर बारीक होती जा रही है. पिछले दो आम चुनाव से भाजपा सरकार चलाने वाली एक मजबूत पार्टी के रूप में तो देश के सामने थी, लेकिन विपक्ष के तौर पर चुनाव दर चुनाव कांग्रेस का लगातार दुर्बल होना जम्हूरियत के लिए शुभ नहीं माना जा रहा था. 

अन्य क्षेत्रीय दल भी इसमें कोई सहयोग नहीं कर रहे थे. उनकी अपनी आंतरिक संरचना एक तरह से अधिनायकवाद की नई परिभाषा ही गढ़ रही थी. लेकिन कोरोना के भयावह काल में पांच प्रदेशों की विधानसभाओं के निर्वाचन से हिंदुस्तानी गणतंत्र को ताकत मिली है. हालांकि अवाम का बड़ा तबका इन परिस्थितियों में चुनाव कराने के फैसले को उचित नहीं मानता था. काफी हद तक मेरी अपनी राय भी यही थी. पर, शायद कोई नहीं जानता था कि इन चुनावों के परिणाम एक बड़ी समस्या के समाधान की दिशा में देश को ले जा सकते हैं.

दरअसल आजादी के बाद इस राष्ट्र के संवैधानिक ढांचे की यही खूबसूरती स्थापित हुई है कि लंबे समय तक तानाशाही के बीज इसमें पनप नहीं पाते. सत्तर के दशक में महसूस होने लगा था कि इस देश में प्रतिपक्ष खंड-खंड होकर बिखरता जा रहा है. उन दिनों भी सियासी पंडित लोकतंत्र की दुहाई देते नहीं थकते थे. तभी आपातकाल के मंथन से जयप्रकाश नारायण और चंद्रशेखर जैसे नायक निकले और भारत आश्वस्त हो गया. 

इसके दस बरस बाद फिर एक बार ऐसा लगा कि राजीव गांधी की अपार लोकप्रियता की आंधी में विपक्ष कृशकाय और बौना हो गया है तो विश्वनाथ प्रताप सिंह और देवीलाल की अगुआई में उनकी टोली ने एक बार फिर प्रतिपक्ष को प्रतिष्ठित किया. इसके बाद अस्थिरता के दौर में अटलबिहारी वाजपेयी ने नई सदी में लोकतंत्र की मौलिक परिभाषा लिखी. मुल्क ने पार्टियों के ढेर को सामूहिक नेतृत्व करते देखा. दस बरस तक यूपीए का प्रयोग अपने आप में गठबंधन के जरिए इसी मशाल को आगे ले जाता दिखा.

मुश्किल तो सात-आठ साल पहले आई, जब भाजपा ने केंद्र में मजबूत सरकार बनाई. लोकप्रियता के आठ घोड़ों पर सवार होकर नरेंद्र मोदी आए और देखते ही देखते भारतीय परिदृश्य पर छा गए. उसके बाद के कुछ बरस विपक्ष के निरंतर बारीक और महीन होते जाने की दास्तान है. भाजपा कांग्रेस विहीन भारत के नकारात्मक विचार को लेकर आई, जो लोकतंत्र की भावना के खिलाफ था. उसने पहले दिन से ही अपने विध्वंसक कार्यक्रम के जरिए कांग्रेस को नेस्तनाबूद करने के प्रयास शुरू कर दिए. इस प्रयास में उसका अपना कायांतरण भी खामोशी से हो गया. 

लोकतंत्र ठगा सा महसूस करता रह गया. इसी दौर में भाजपा ने विपक्ष के मामले में एक और कदम उठाया. उसने कांग्रेस के विसर्जन का तो पूरा इंतजाम कर दिया, साथ ही नए-नए दलों और छोटी पार्टियों को प्रतिपक्ष के रूप में उभारना प्रारंभ कर दिया. आम आदमी पार्टी इसी कवायद का नतीजा थी. लेकिन जब भाजपा ने इसी पार्टी से हार की हैट्रिक बनाई तो खतरे का अहसास हुआ और उपराज्यपाल को अधिक अधिकार देकर अरविंद केजरीवाल के पर कतरने में देर नहीं लगाई. 

सातसाल में बीजेपी चक्रवर्ती भाव से ग्रस्त हो गई. विपक्ष निर्बल होता गया और प्रतीक स्वरूप बेहद मजबूत और जुझारू राजनेता का अकाल होता गया.यह अकाल पांच राज्यों के चुनाव के बाद समाप्त होता दिखाई दे रहा है. बंगाली मतदाताओं ने सिर्फ़ अपने राज्य की नई सरकार ही नहीं चुनी है बल्कि ममता बनर्जी को प्रतिपक्ष का राष्ट्रीय चेहरा भी बना दिया है. समूचा देश अब उन्हें संयुक्त विपक्ष के मुखर स्वर के रूप में देख सकता है. 

दुश्मन का दुश्मन दोस्त वाले मुहावरे पर अमल करते हुए ममता ने कमोबेश सारे दलों से सहयोग की प्रार्थना भी कर डाली. उन्होंने सीधे ही कांग्रेस और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी से बात की, जिन्होंने वाम दलों को भी इस घड़ी में परदे के पीछे से तृणमूल कांग्रेस का साथ देने के लिए मनाया. आपको याद होगा कि तीसरे चरण के बाद कांग्रेस और वामपंथी दलों ने अपने प्रचार अभियान में शिथिलता बरती और न के बराबर रैलियां की थीं. पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो कोरोना के नाम पर अपनी सारी रैलियां ही रद्द कर दीं. इसके बाद मतदान और मतगणना के दरम्यान अनेक केंद्रों पर कांग्रेस-वाम गठबंधन के प्रतिनिधि ही नदारद रहे. ममता बनर्जी को यह राजनीतिक उपकार हमेशा याद रखना ही होगा.

ममता बनर्जी के रूप में प्रतिपक्ष को एक नई राष्ट्रीय धुरी मिली है, इसे मानने से कोई इंकार नहीं कर सकता. हालांकि उनके राजनीतिक सफर के साक्षी यह जानते हैं कि ममता बनर्जी के अंदर भी एक जिद्दी तानाशाह छिपा है. वे मिजाज से फकीर किस्म की लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री कभी नहीं बन सकतीं. वर्तमान सिलसिले में उन्होंने लोहे को लोहे से काटने का हुनर सीख लिया है. बंगाल का चुनाव तो उनके लिए नई चुनौती और अवसर बनकर आया है. अगर वे इस कसौटी पर खरी उतरती हैं तो इस देश का विपक्ष उनकी राह में फूल ही बिछाएगा. बस उन्हें अपने आप को वक्त के साथ साबित करना है.

Web Title: Rajesh Badal Blog about Opposition Unity Gets a New Axis

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