राजस्थानः नेता प्रतिपक्ष से वसुंधरा राजे को दूर करना आसान नहीं!
By प्रदीप द्विवेदी | Published: January 7, 2019 08:08 AM2019-01-07T08:08:31+5:302019-01-07T08:08:31+5:30
सियासी सारांश यही है कि भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व बगैर सियासी विवाद के अपनी मर्जी का नेता प्रतिपक्ष बनाना तो चाहता है, लेकिन अभी इसकी राह आसान नहीं है.
राजस्थान में विस चुनाव हारने के बाद बीजेपी सदन में मुख्य विपक्षी दल है, लेकिन नेता प्रतिपक्ष चुनना आसान नहीं है, यही वजह है कि इतना समय गुजर जाने के बाद भी इस संबंध में कोई निर्णय नहीं हो पाया है.यदि राजे चुनाव हार जाती तो राजस्थान की सियासी समीकरण बदल जाती, किन्तु अब उन्हें नजरअंदाज करके कोई फैसला लेना संभव नहीं है.
खबर है कि दिल्ली में पार्लियामेंट्री बोर्ड की बैठक में राजस्थान के लिए नेता प्रतिपक्ष के मुद्दे पर चर्चा तो हुई थी, परन्तु बगैर इस पर गंभीर चर्चा के कोई फैसला लेना ठीक नहीं माना गया.
याद रहे, वसुंधरा राजे की सहमति के बगैर इस पर कोई भी एकतरफा निर्णय सियासी तूफान ला सकता है. प्रदेश अध्यक्ष के मामले में ऐसा पहले हो चुका है.
नेता प्रतिपक्ष पर चल रही चर्चाओं में वसुंधरा राजे का नाम सबसे आगे है, किन्तु भविष्य की राजनीति के मद्देनजर केन्द्रीय नेतृत्व इस पर शायद ही तैयार हो, और इसीलिए राजे के अलावा गुलाबचन्द कटारिया, राजेन्द्र सिंह राठौड़, वासुदेव देवनानी, नरपत सिंह राजवी आदि के नाम भी चर्चा में हैं.
हालांकि, इस मुद्दे पर अभी तक कोई विवाद नहीं है, लेकिन राजे को किनारे करके कोई फैसला करना विवाद को न्यौता देना होगा.
इसका एक तरीका यह निकाला जा रहा है कि सभी भाजपा एमएलए की राय ली जाए और उसके आधार पर नेता प्रतिपक्ष चुना जाए. ऐसे संकेत बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष मदनलाल सैनी भी दे चुके हैं, जिसके अनुसार- प्रतिपक्ष का नेता तय करने के लिए केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली और बीजेपी के प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना को पर्यवेक्षक नियुक्त किया गया है, जो जल्दी ही जयपुर आएंगे और विधायक दल बैठक के बाद नेता प्रतिपक्ष के नाम की घोषणा होगी.
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि यदि केन्द्रीय नेतृत्व राजे को यह पद नहीं देना चाहता है, तो उसे पहले राजे को इससे बड़ा और सम्मानजनक पद देना होगा, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या इसके लिए राजे तैयार होंगी? क्योंकि, ऐसा करने का सियासी मकसद राजे के हाथ से राजस्थान की कमान लेना होगा!
सियासी सारांश यही है कि भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व बगैर सियासी विवाद के अपनी मर्जी का नेता प्रतिपक्ष बनाना तो चाहता है, लेकिन अभी इसकी राह आसान नहीं है.