पहली नजर में अर्नब के खिलाफ आत्महत्या के लिये उकसाने का मामला साबित नहीं होता: न्यायालय

By भाषा | Published: November 27, 2020 09:19 PM2020-11-27T21:19:37+5:302020-11-27T21:19:37+5:30

Prima facie case of inciting suicide against Arnab does not prove: court | पहली नजर में अर्नब के खिलाफ आत्महत्या के लिये उकसाने का मामला साबित नहीं होता: न्यायालय

पहली नजर में अर्नब के खिलाफ आत्महत्या के लिये उकसाने का मामला साबित नहीं होता: न्यायालय

नयी दिल्ली, 27 नवंबर उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को कहा कि पहली नजर में प्राथमिकी के आकलन से अर्नब गोस्वामी और दो अन्य के खिलाफ आत्महत्या के लिये उकसाने की खातिर जरूरी तथ्य साबित नहीं होते हैं। शीर्ष अदालत ने शिकायत में इन तीनों के खिलाफ लगाये गये आरोप और कानूनी प्रावधानों के बीच ‘विलग संबंध’ को नोटिस नहीं करने के लिये बंबई उच्च न्यायालय की तीखी आलोचना की।

शीर्ष अदालत ने 2018 के आत्महत्या के लिये उकसाने के मामले में अर्नब गोस्वामी और दो अन्य की अंतरिम जमानत की अवधि बढ़ाने संबंधी फैसले में ये टिप्पणियां कीं।

न्यायमूति धनंजय वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति इन्दिरा बनर्जी की पीठ ने कहा कि जब राज्य सत्ता की ज्यादती में किसी नागरिक को मनमाने तरीके से उसकी स्वतंत्रता से वंचित किया जाता है तो उच्च न्यायालय को अपने अधिकार का इस्तेमाल करने से खुद को रोकना नहीं चाहिए।

पीठ ने कहा कि इन मामलों में पहली नजर में प्राथमिकी के आकलन से भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिये उकसाने के अपराध के लिये अनिवार्य पहलू साबित नहीं होते हैं।

न्यायालय ने कहा, ‘‘अपीलककर्ता भारत के निवासी हैं और जांच या मुकदमे के दौरान उनके फरार होने का खतरा नहीं है। साक्ष्यों या गवाहों से किसी प्रकार की छेड़छाड़ की आशंका नहीं है। इन पहलुओं को ध्यान में रखते हुये ही 11 नवंबर 2020 के आदेश में अपीलकर्ताओं को जमानत पर रिहा किया गया।’’

शीर्ष अदालत ने कहा कि चूकि उच्च न्यायालय में कार्यवाही लंबित हैं, इसलिए उसका दृष्टिकोण गोस्वामी और अन्य को सिर्फ अंतरिम संरक्षण प्रदान करने तक सीमित है।’’

पीठ ने कहा, ‘‘अगर उच्च न्यायालय ने पहली नजर में आकलन किया होता तो निश्चित ही उसके लिये प्राथमिकी और धारा 306 के प्रावधानों के बीच तारतम्यता नहीं होने की बात नजर में नही आना असंभव होता। उच्च न्यायालय द्वारा ऐसा करने में विफल रहने की वजह ने ही अपीलकर्ता को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 के तहत नियमित जमानत का रास्ता चुनने का अवसर प्रदान किया। उच्च न्यायालय साफ तौर पर धारा 482 के अंतर्गत एक याचिका का आकलन करने की ड्यूटी निभाने में विफल रहा। ’’

रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक गोस्वामी, नीतीश सारदा और फीरोज मोहम्मद शेख को महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले की अलीबाग पुलिस ने आर्किटेक्ट और इंटीरियर डिजायनर अन्वय नाइक और उनकी मां को 2018 में आत्महत्या के लिये कथित रूप से उकसाने के मामले में चार नवंबर को गिरफ्तार किया था। आरोप है कि इन लोगों की कंपनियों ने नाइक की कंपनी को देय शेष धनराशि का भुगतान नही किया था।

शीर्ष अदालत ने कहा कि प्राथमिकी से यह पता नही चलता है कि आरोपियों ने आत्महत्या कराने का अपराध किया क्योंकि धारा 306 के तहत, ‘‘जरूरी है कि उन्होंने उकसाने या आत्महत्या के लिये प्रेरित करने के किसी कृत्य में सक्रिय भूमिका निभाई हो।’’

हमारा यह स्पष्ट मत है कि पहली नजर में प्राथमिकी का आकलन करने में विफल रहकर उच्च न्यायालय ने स्वतंत्रता के रक्षक के रूप में अपने सांविधानिक कर्तव्यों का परित्याग कर दिया। अदालतों के लिये यह सुनिश्चित करते समय कि फौजदारी कानून को लागू करने में किसी प्रकार की बाधा नहीं आये, जनता के हित की रक्षा के प्रति भी सजग रहने की जरूरत है। अपराध की निष्पक्ष जांच उसकी मदद के लिये है।’’

पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय ‘‘बुनियादी मुद्दे पर विचार करने में विफल रहा’’ जिस पर प्राथमिकी निरस्त करने की याचिका पर सुनवाई के समय विचार करने की आवश्यकता है।

न्यायालय ने उन महत्वपूर्ण पहलुओं को सारांश में बताया जिनका उच्च न्यायालय को जमानत याचिकाओं पर विचार करते समय संज्ञान लेने की आवश्यकता है और कहा कि कथित अपराध का स्वरूप, आरोप का स्वरूप और सजा होने की स्थिति में दंड की कठोरता इनमें से एक है।

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Web Title: Prima facie case of inciting suicide against Arnab does not prove: court

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