Lockdown: दिल्ली के हिंदू शरणार्थी शिविरों में ‘रोटी-चटनी’ से चल रहा जीवन

By भाषा | Published: April 13, 2020 05:48 AM2020-04-13T05:48:04+5:302020-04-13T05:48:04+5:30

रानी के अनुसार, ‘‘बहुत कम दाल और सब्जी बची हैं। पैसे नहीं हैं तो गैस नहीं है। पुलिस वाले हमें नदी किनारे से लकड़ियां नहीं बीनने दे रहे। हमारे पास हमारी भूखी गायों के लिए चारा नहीं है। पहले हम जंगल से चारा ले आते थे। अब बंद के कारण वो भी नहीं ला पा रहे।’’

Lockdown due to Coronavirus: 'Roti-chutney' life in Hindu refugee camps | Lockdown: दिल्ली के हिंदू शरणार्थी शिविरों में ‘रोटी-चटनी’ से चल रहा जीवन

चोंच में रोटी का टुकड़ा दबाए गौरैया। (फोटो- pixabay)

Highlightsयमुना नदी के किनारे अपने अस्थायी कच्चे मकान में मिट्टी के चूल्हे के पास बैठीं रानी दास के मन में बार-बार यही सवाल उठ रहा है कि अगर लॉकडाउन बढ़ जाता है तो क्या होगा। उनके पास अभी तो पर्याप्त चावल, आटा और चीनी है जिससे उन्हें एक और हफ्ते दो वक्त की रोटी मिल जाएगी, लेकिन उसके आगे बंद बढ़ा तो क्या होगा। यह सवाल उन्हें परेशान कर रहा है।

दिल्ली में यमुना नदी के किनारे अपने अस्थायी कच्चे मकान में मिट्टी के चूल्हे के पास बैठीं रानी दास के मन में बार-बार यही सवाल उठ रहा है कि अगर लॉकडाउन बढ़ जाता है तो क्या होगा। उनके पास अभी तो पर्याप्त चावल, आटा और चीनी है जिससे उन्हें एक और हफ्ते दो वक्त की रोटी मिल जाएगी, लेकिन उसके आगे बंद बढ़ा तो क्या होगा। यह सवाल उन्हें परेशान कर रहा है।

रानी के परिवार समेत करीब 140 ऐसे परिवार हैं जो गुरुद्वारा मजनू का टीला के पास हिंदू शरणार्थी शिविर में रह रहे हैं। इनमें से अधिकतर लोग पाकिस्तान में भेदभाव और धार्मिक उत्पीड़न के बाद वहां से आकर यहां बस गये हैं। ये लोग 2011 से 2013 के बीच भारत आए थे।

रानी के अनुसार, ‘‘बहुत कम दाल और सब्जी बची हैं। पैसे नहीं हैं तो गैस नहीं है। पुलिस वाले हमें नदी किनारे से लकड़ियां नहीं बीनने दे रहे। हमारे पास हमारी भूखी गायों के लिए चारा नहीं है। पहले हम जंगल से चारा ले आते थे। अब बंद के कारण वो भी नहीं ला पा रहे।’’

रानी की बहू जमुना गर्भवती है और वह भी दो वक्त के खाने में चीनी से बनी रोटी या नमक और हरी चटनी के साथ चावल खा रही है जबकि उसे ज्यादा पौष्टिक भोजन की जरूरत है।

रानी की पड़ोसन गोमती के मुताबिक कुछ लोग खाना बांटने यहां आए थे लेकिन उन्होंने वो खाना नहीं लिया क्योंकि उन्हें डर था कि इससे इलाके में कोरोना वायरस न फैल जाए।

मासूमियत के साथ 52 साल की गोमती कहती हैं, ‘‘हमें कैसे पता चलेगा कि यह सुरक्षित है? हमारे पास वैसी मशीन तो है नहीं जो टीवी पर दिखाते हैं जिससे पता चल जाए कि वायरस है या नहीं।’’

शिविरों में रहने वाले लोगों के 42 साल के प्रधान धरमवीर ने कहा कि शिविर में अधिकतर लोग इधर-उधर काम करके जीवनयापन करते हैं।

उन्होंने कहा, ‘‘दिहाड़ी मजदूर, खेतिहर मजदूर और सड़क किनारे मोबाइल कवर बेचने वाले आदि सभी बेरोजगार हो गए हैं।’’ धरमवीर ने भी कहा, ‘‘कुछ लोग यहां पका हुआ भोजन लेकर आए लेकिन हमने नहीं लिया। हम खुद का खाना बना सकते हैं। हमें केवल चाहिए कि सरकार की एजेंसियों से हमें कच्चा राशन मिल जाए।’’

उनके मुताबिक हालात ऐसे हैं कि लोग बिना साबुन के नहा रहे हैं और कपड़े धो रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘‘साबुन ही नहीं है तो हाथ कैसे साफ करें? हम लगातार तीन चार दिन तक एक ही कपड़े पहनते हैं।’’

बकौल धरमवीर पुलिस वाले सब्जी मंडी जाने से मना कर देते हैं। यहां तक कि वे यमुना के किनारे गेहूं के खेतों में काम तलाशने भी नहीं जाने दे रहे।

उन्होंने कहा, ‘‘वे सही हैं। इस बीमारी से अच्छी तो भूख से मौत है। अगर एक आदमी को वायरस का संक्रमण हो गया तो शिविर में सभी की जान जा सकती है।’’

बैटरी से टीवी चलाकर ‘रामायण’ देख रहे सुखनंदन पूछते हैं, ‘‘क्या मुमकिन है कि एक या दो लोगों को कर्फ्यू पास मिल जाएं और वे सब के लिए जरूरी सामान खरीद लाएं? उन्होंने कहा, ‘‘पुलिस कह रही है कि पास ऑनलाइन बन रहे हैं। हमें इसका तरीका नहीं पता।’’

Web Title: Lockdown due to Coronavirus: 'Roti-chutney' life in Hindu refugee camps

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