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फारूक अब्दुल्ला पर लगाया गया PSA कानून क्या है और क्या पीएसए बोर्ड बस एक 'रबर स्टैंप' बन कर रह गया है? जानिए

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: September 18, 2019 09:35 IST

PSA: पीएसए कानून को लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ता कई बार विरोध जताते रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार 1978 में इस कानून के आने के बाद से अब तक 20,000 से ज्यादा लोगों को इसके तहत हिरासत में लिया गया है।

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ठळक मुद्देफारूक अब्दुल्ला को पीएसए के तहत हिरासत में रखा गया हैपीएसए के तहत दो साल तक किसी को भी बिना सुनवाई के हिरासत में रखा जा सकता हैपीडीपी-बीजेपी सरकार में PSA बोर्ड के चेयरपर्सन की नियुक्ति को लेकर नियमों में हुए थे बदलाव

जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला पर आनन- फानन में पर लगाये गये पीएसए (पब्लिक सेफ्टी एक्ट) के बाद यह कानून एक बार फिर चर्चा में है। जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाने से ठीक पहले यानी 5 अगस्त से अब तक जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने पीएसए के तहत लोगों को हिरासत में लेने के अधिक से अधिक 230 आदेश पारित किये हैं। दिलचस्प ये है कि इसमें से केवल तीन पीएसए सलाहकार बोर्ड (PSA Advisory Board) की ओर से खारिज किये गये हैं। नियमों के तहत हर आदेश की पीएसए सलाहकार बोर्ड को समीक्षा करती होती है और इसे मानने या खारिज करने का फैसला 6 हफ्ते के अंदर लेना होता है।

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार फारूक अब्दुल्ला पर रविवार रात पीएसए लगाया गया और उनके घर को ही जेल मानकर हिरासत में ले लिया गया। इस पूर मामले में खास बात ये रही कि पीएसए सलाहकार बोर्ड की मंजूरी भी सोमवार को सुप्रीम कोर्ट की अब्दुल्ला की याचिका पर सुनवाई से पहले ही मिल गई।

PSA बोर्ड: कैसे बदला नियुक्ति का नियम

नियमों के हिसाब से पीएसए सलाहकार बोर्ड का काम सरकार के इस कानून के इस्तेमाल पर नजर रखना और चेक एंड बैलेंस की स्थिति बनाये रखना है। दरअसल, इस कानून के तहत किसी को भी जरूरत पड़ने पर बिना किसी सुनवाई के दो साल तक हिरासत में रखा जा सकता है। यही कारण है कि इस कानून के तहत पीएसए के चेयरपर्सन की नियुक्ति में न्यायपालिका को भी हिस्सेदार बनाया गया था। पूर्व के नियमों के तहत सलाहकार बोर्ड के चेयरपर्सन की नियुक्ति जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस से चर्चा के बाद ही की जा सकती थी।

हैरानी की बात ये है कि जम्मू-कश्मीर की पिछली सरकार के कुछ आखिरी फैसलों में इस कानून में नियुक्ति को लेकर बदलाव करना भी शामिल था। महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व में पीडीपी-बीजेपी की तब सरकार थी। साल 2018 के मई में एक अध्यादेश लाया गया जिसके तहत न्यायपालिका को इस से बाहर कर दिया गया और नौकरशाहों की समिति बनाने की बात कही गई। उस समय के राज्यपाल एनएन वोहरा ने तब 22 मई, 2018 को इसे मंजूरी भी दे दी थी।

PSA बोर्ड: जनवरी में मिला पीएसए को चेयरपर्सन

अभी पीएसए का सलाहकार बोर्ड तीन सदस्यीय है। इसका नेतृत्व जम्मू-कश्मीर के पूर्व जज जनक राज कोटवाल कर रहे हैं। कोटवाल को राज्यपाल सत्यपाल मलिक से मंजूरी के बाद 30 जनवरी को नियुक्त किया गया था। इससे पहले मार्च 2018 से यह पद खाली था।

इस कानून में बदलाव के अध्यादेश से पहले पीएसए के सेक्शन 14 (3) में लिखा था, 'बोर्ड के चेयरमैन और दूसरे सदस्यों की नियुक्ति सरकार द्वारा हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस से चर्चा के बाद ही की जा सकती है।' अब नये बदलाव के बाद हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस की सहमति का कोई औचित्य ही नहीं रह गया गया है जब तक कि चेयरमैन हाई कोर्ट का मौजूदा जज नहीं हो। नियमों में इस बदलाव के तहत जिक्र है कि हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस की सलाह तभी जरूरी होगी जब चेयरमैन हाई कोर्ट या फिर जिला, सेशन कोर्ट में कार्यरत जज हो।

PSA: कई बार होता रहा है विरोध

पीएसए कानून को लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ता कई बार विरोध जताते रहे हैं। कानून के तहत हालांकि सलाहकार बोर्ड को यह पूरा हक है कि वह किसी व्यक्ति के हिरासत में लिये जाने के संबंध में जिला मजिस्ट्रेट से विस्तार से जानकारी मांग सकता है। बोर्ड को प्रस्ताव मिलने के बाद 6 हफ्ते के भीतर कारणों का विश्लेषण करना होता है। 

इसके तहत वे उस व्यक्ति के प्रतिनिधित्व से भी बात कर सकते हैं जिनके खिलाफ पीएसए लगाया जाना है। इसके पीछे मंशा यही थी कि प्रशासन पीएसए कानून के तहत अपनी मनमानी नहीं कर सके।

वैंकटेश नायक और डॉक्टर शेख गुलाम रसूल की ओर से कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (CHRI) के लिए RTI के द्वारा हासिल किये गये डाटा के अनुसार अप्रैल 2016 से 2017 में दिसंबर के मध्य तक राज्य सरकार ने हिरासत में लेने के 1004 आदेश सलाहकार बोर्ड को भेजे थे। इसमें करीब 99.4 प्रतिशत यानी 998 को मंजूरी मिल गई। वहीं, दिलचस्प ये भी है कि इसी अवधि में जम्मू-कश्मीर कोर्ट में हिरासत में लेने के आदेश को खत्म करने के लिए 941 याचिकाएं आई। इसमें हिरासत में लेने के 764 आदेश निरस्त कर दिये गये। 

एमेनेस्टी इंटरनेशनल के एक अनुमान के अनुसार 1978 में इस कानून के आने के बाद से अब तक 20,000 से ज्यादा लोगों को इसके तहत हिरासत में लिया गया है।

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