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J&K: राज्यपाल ने BJP के पांव तले से जमीन खिसकाई, क्योंकि फंसे थे विपक्ष के जाल में- पढ़े विस्तृत रिपोर्ट

By सुरेश डुग्गर | Updated: November 22, 2018 18:07 IST

कुछ दिन पहले ही पीपुल्स कांफ्रेंस के सज्जाद लोन के नेतृत्व में सरकार गठन के लिए पीडीपी में बड़े विभाजन की रणनीति बन चुकी थी। तय योजना के तहत लोन शुक्रवार को सरकार बनाने का दावा पेश करने वाले थे।

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जम्मू-कश्मीर विधानसभा को भंग करने की राज्यपाल सत्यपाल मलिक की कार्रवाई ने पीडीपी, नेकां और कांग्रेस को तो इतना नहीं चौंकाया जितना उसने भाजपा को चौंकाया है क्योंकि सही मायनों में उन्होंने केंद्र में स्थापित भाजपा सरकार के उन कदमों को रोक दिया है जिसके तहत भाजपा सज्जाद गनी लोन के कांधों पर बंदूक रख कर सरकार बनाना चाहती थी और मात्र दो विधायक होने के बावजूद वे सरकार बनाने का दावा कर स्थिति को हास्यास्पद बना रहे थे।

इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि राज्यपाल के कदम से भाजपा का गणित गड़बड़ा गया है। जिस राज्यपाल को भाजपा ‘अपना आदमी’ बताती रही थी उनकी मदद से भाजपा का अप्रत्यक्ष सरकार बनाने का सपना इसलिए अटूट गया क्योंकि विपक्ष ने ऐसा जाल फंसाया कि उसमें मलिक फंस कर रह गए।

कुछ दिन पहले ही पीपुल्स कांफ्रेंस के सज्जाद लोन के नेतृत्व में सरकार गठन के लिए पीडीपी में बड़े विभाजन की रणनीति बन चुकी थी। तय योजना के तहत लोन शुक्रवार को सरकार बनाने का दावा पेश करने वाले थे। इसी योजना के तहत एक दिन पहले पीडीपी के कद्दावर नेता मुजफ्फर हुसैन बेग का बागी तेवर सामने आया, लेकिन बदल रहे समीकरणों को भांपते हुए उमर ने महबूबा से फोन पर संपर्क साधा और पासा पलट गया।

उमर-महबूबा संवाद से महागठबंधन सरकार की संभावना बढ़ी और पीडीपी के विभाजन की कोशिशें फेल होती दिखने लगीं। फिर दोनों पक्षों द्वारा सरकार बनाने के परस्पर दावों के बाद गवर्नर के लिए विधानसभा भंग करने का रास्ता साफ हो गया।

राज्यपाल नई सरकार के गठन के संदर्भ में ही विचार विमर्श के लिए दिल्ली भी गए थे। तब सज्जाद लोन के नेतृत्व में भाजपा और पीडीपी के बंटे धड़े को मिलाकर नई सरकार के गठन का ब्लू प्रिंट तैयार हो चुका था, लेकिन उमर और महबूबा के बीच साझा सरकार पर सहमति को कांग्रेस आलाकमान की हरी झंडी के बाद समीकरण उलट पुलट हो गए। दाअसल मलिक भाजपा को लाभ पहुंचाना चाहते थे।

पर जब भाजपा को आभास हो गया कि इस हालात में उसके लिए सरकार बनाना संभव नहीं रह गया है। यही कारण है कि महबूबा द्वारा सरकार बनाने के दावे के ठीक बाद सज्जाद लोन से दावा पेश कराया गया।  इससे राज्यपाल को विधानसभा भंग करने का पुख्ता आधार मिल गया। राजभवन के पास अब यह तर्क है कि मौजूदा हालात में विधायकों की खरीद फरोख्त की संभावना बढ़ सकती थी, लिहाजा विधानसभा भंग करने का कदम उठाया गया। 

वैसे राजनीतिक पंडित कहते थे सज्जाद लोन का दावा इस खरीद फरोख्त की पुष्टि करता था क्योंकि पीडीपी द्वारा लिखे गए पत्र में स्पष्ट था कि तीन राजनीतिक दल मिलकर सरकार बना रहे हैं और सज्जाद लोन के पत्र में स्पष्ट लिखा था कि उनके साथ पीडीपी के 18 विधायक हैं। इसे समझना कोई मुश्किल नहीं था कि विधायकों को कौन खरीदना चाहता था।

उमर ने मंगलवार रात को ही पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती से बातचीत की। उमर ने महबूबा को बताया कि अगर अब चुप रहीं तो उनकी पार्टी तो टूटेगी ही, साथ ही प्रदेश में भाजपा की सरकार काबिज हो जाएगी। उन्होंने अनुच्छेद 370 और 35 ए को बचाने के लिए महागठबंधन की सरकार के पक्ष में तर्क दिए। पार्टी में बगावत झेल रहीं महबूबा ने इससे सहमत होकर अल्ताफ बुखारी को बातचीत के लिए उमर के पास भेजा। इससे महागठबंधन सरकार की संभावना बढ़ी थी।

नई सरकार के गठन की कवायद में पीडीपी ही मुख्य धुरी थी। पीडीपी के बिना महागठबंधन की सरकार संभव नहीं थी। दूसरी ओर भाजपा भी पीडीपी के विभाजन के बाद बंटे धड़े के साथ मिलकर सरकार बनाने का सपना पाल रही थी। यही कारण है कि सरकार के गठन के मुद्दे पर महबूबा ने चुप्पी तोड़ी और दावा पेश किया, लेकिन यह प्रयास विफल हो गया।

आंकड़ों का गणित महागठबंधन के पक्ष में दिख रहा था। जम्मू कश्मीर की 89 सीटों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए 44 का आकंड़ा चाहिए जबकि भाजपा के पास सिर्फ 25 विधायक थे। सज्जाद लोन के दो और एक निर्दलीय को मिलाकर भाजपा 28 के आंकड़े तक पहुंच रही थी। भाजपा की आस पीडीपी के विभाजन पर टिकी थी। दूसरी ओर पीडीपी के 28, कांग्रेस के 12 और नेकां के 15 विधायक थे। तीन निर्दलीय भी इसी महागठबंधन के करीब थे। इस तरह आकंड़ा आसानी से 58 तक पहुंच रहा था।

याद रहे पहली बार वर्ष 2014 के विधानसभा में भाजपा को 25 सीटें मिली थीं। उसकी सहयोगी पीपुल्स कांफ्रेंस को दो सीटें मिलीं। भाजपा का पूरा जनाधार सिर्फ जम्मू में ही है। कांग्रेस ने कभी भी कश्मीर केंद्रित सियासत का विरोध नहीं किया था। इसके अलावा कश्मीर में नेकां के विकल्प के तौर पर उभरकर सामने आई पीडीपी ने 28 सीटें प्राप्त की। 

नेकां और कांग्रेस की सियासत के खिलाफ यह जनादेश था। बेशक पीडीपी और भाजपा के राजनीतिक एजेंडे परस्पर विरोधी थे, लेकिन प्रयोग के तौर पर दोनों के बीच एजेंडा ऑफ एलांयस के आधार पर पहली मार्च 2015 में सरकार बनाई। हालांकि चुनाव परिणाम 28 दिसंबर 2014 को घोषित हो चुके थे।

खैर, सरकार बनी और इसे दो ध्रवों का मेल कहा गया जो 7 जनवरी 2016 को तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ्ती सईद के निधन के बाद भंग हो गया। लेकिन 4 अप्रैल को फिर भाजपा-पीडीपी में समझौते के बाद महबूबा मुफ्ती ने गठबंधन सरकार संभाली।

महबूबा की नीतियां पूरी तरह कश्मीर केंद्रित होने लगी और रियासत में हालात सामान्य बनाए रखने की मजबूरी में भाजपा उसके पीछे चलती नजर आ रही थी। कश्मीरी पंडितों की वापसी, सैनिक कालोनी का निर्माण, पत्थरबाजों की माफी, बुरहान वानी की मौत के बाद वादी मे पैदा हालात और उसके बाद रमजान सीज फायर। 

हर एक जगह महबूबा मुफ्ती नाकाम नजर आई। खुद उनके संगठन पीडीपी में लोग उनकी नीतियों से नाखुश थे जो इसी साल जून में भाजपा गठबंधन सरकार के भंग होने के साथ खुलकर सामने आए। रही सही कसर धारा 35ए और धारा 370 पर अदालत मे जारी विवाद को लेकर कश्मीर में शुरु हुई सियासत ने पूरी कर दी। निकाय व पंचायत चुनावों से दोनों दलों की दूरियां बढ़ गई।

इसी बीच, राज्य में तीसरे मोर्चे के गठन की प्रक्रिया शुरु हुई। ऐसे में पीडीपी एकदम सरकार बनाने के लिए सक्रिय हुई। उसने नेकां और कांग्रेस को साथ मिलकर सरकार बनाने के लिए राजी भी कर लिया। हालांकि खुद गुलाम नबी आजाद ने कहा कि कांग्रेस ने कोई समर्थन नहीं दिया है। अगर यह दल मिलकर सरकार बनाते तो जम्मू संभाग में एक वर्ग विशेष ही नहीं लद्दाख में भी बहुत से लोग उपेक्षित रहते। ऐसे में आशंका थी कि अलगाववादी ताकतें मुनाफे में रहती।

टॅग्स :जम्मू कश्मीरभारतीय जनता पार्टी (बीजेपी)नेशनल कॉन्फ्रेंसकांग्रेसमहबूबा मुफ़्ती
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