भीमा-कोरेगांव की बरसी: जानिए दलित विजय का प्रतीक बन चुके इस युद्ध की पूरी कहानी

By रंगनाथ सिंह | Published: January 1, 2019 12:15 PM2019-01-01T12:15:17+5:302020-01-01T11:32:04+5:30

अंग्रेजों ने महारों को दोबारा सेना में तब शामिल किया जब पहले विश्व युद्ध में उसे अतिरिक्त सैनिकों की जरूरत हुई। 1917 में बॉम्बे प्रेसिडेंसी सरकार ने महारों को सेना में भर्ती करने के साथ ही उनकी दो प्लाटून बनाने का आदेश दिया। लेकिन पहला विश्व युद्ध (1914-1918) खत्म होते ही ब्रिटिश ने महारों को सेना में भर्ती करना बंद कर दिया। 

History of Bhima-Koregaon its relation to Dalit victory, mahar, br ambedkar, british | भीमा-कोरेगांव की बरसी: जानिए दलित विजय का प्रतीक बन चुके इस युद्ध की पूरी कहानी

बाबासाहब आंबेडकर ने भीमाकोरेगांव के स्मारक पर वार्षिक आयोजन की शुरुआत की। (Photo: Koregaon Bhima Memorial in Pune)

Highlightsभीमा कोरेगांव युद्ध 1 जनवरी 1818 को पुणे स्थित कोरेगांव नामक गांव में हुआ था।इस युद्ध को पेशवा शासन के ताबूत में आखिरी कील माना जाता है।इस युद्ध में महार सैनिकों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए पेशवा के खिलाफ युद्ध किया था।

एक जनवरी 1818 को स्ट इंडिया कंपनी और पेशवा बाजीराव द्वितीय की सेना के बीच हुए भीमा कोरेगाँव युद्ध की आज बरसी है। देश भर के दलित एक जनवरी को पुणे स्थित भीमा-कोरेगाँव स्मारक पर जुटते हैं।  इस वीडियो में हम आपको बताएंगे कि दलित विजय का प्रतीक बन चुके इस युद्ध की पूरी कहानी क्या है-

भीमा कोरेगाँव युद्ध का इतिहास

एक जनवरी 1818 को ईस्ट इंडिया कंपनी और पेशवा बाजीराव द्वितीय की सेना के बीच पुणे के निकट भीमा नदी के किनारे कोरेगांव नामक गाँव में युद्ध हुआ था। एफएफ स्टॉन्टन के नेतृत्व में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने पेशवा की सेना को गंभीर नुकसान पहुँचाया। भीमा-कोरेगांव युद्ध से पहले ही अंग्रेजों और मराठा के बीच हुए  दो युद्धों में पेशवा कमजोर हो चुके थे लेकिन इस युद्ध को पेशवा शासन (1707 से 1818) की ताबूत में आखिरी कील माना जाता है। 

पेशवा की सेना में 20 हजार घुड़सवार और आठ हजार पैदल सैनिक थे। पेशवा अंग्रेजों की पुणे रेजिडेंसी पर कब्जा करना चाहते थे। पहले बाजीराव द्वितीय ने पुणे पर कब्जे के लिए पाँच हजार सैनिक भेजे लेकिन बाद में उन्होंने ब्रिटिश सेना के छोटे आकार को देखते हुए बाजीराव ने तीन इन्फैंट्री डिविजन भेजे। हर डिविजन में करीब 600 सैनिक थे। तीन डिविजन में मिलाकर करीब दो हजार सैनिक पेशवा की तरफ से युद्ध में शामिल हुए। ब्रिटिश सेना की रेजिमेंट में 834 सैनिक थे। 

ब्रिटिश सेना ने पेशवा के सैनिकों को पुणे में घुसने नहीं दिया। 12 घंटे तक चली लड़ाई में पेशवा के करीब 500-600 सैनिक मारे गये। भारी क्षति के बाद बाजीराव ने अपने सैनिकों को वापस बुला लिया। पेशवा द्वारा फौज को वापस बुलाने की एक वजह ब्रिटिश जनरल जोसेफ स्मिथ की कमान बड़ी सेना के आने का भय भी बताया जाता है। बॉम्बे प्रेसिडेंसी के गैजेटियर के अनुसार ईस्ट इंडिया कंपनी के 834 कंपनी सैनिकों में 49 सैनिक मारे गये। मारे गये, घायल हुए या फिर लापता हुए ब्रिटिश सेना के सैनिकों की संख्या 275 थी।

ब्रिटिश के लिए भीमा कोरेगाँव युद्ध का महत्व
1757 में अंग्रेजों ने प्लासी की लड़ाई में बंगाल के नवाब सिराज-उद-दौला को हराया। प्लासी के युद्ध को पूर्वी और उत्तरी भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना का निर्णायक मोड़ माना जाता है। मराठा शासक छत्रपति शिवाजी और सम्भा जी महाराज ने मुगलों से मुकाबला करके मराठा साम्राज्य की स्थापना की थी। 1707 में औरंगजेब के निधन के साथ ही मुगलों की ताकत कम होने लगी। मुगलों के पराभव का फायदा ईस्ट इंडिया कंपनी ने उठाना शुरू कर दिया था। 

शिवाजी के पोते और सम्भा जी के बेटे साहू जी महाराज की सत्ता पर पकड़ अपने दादा या पिता जितनी मजबूत नहीं रही लेकिन उनके पेशवा बालाजी विश्वनाथ के परिदृश्य में आने के बाद हालात बदलने लगे। पेशवा बालाजी विश्वनाथ और उनके वंशजों ने मराठा साम्राज्य को देश की सबसे बड़ी ताकत के रूप में बदल दिया था। ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए भारत पर कब्जे के लिए पेशवा को हराना अनिवार्य था। अंग्रेजों और मराठों के बीच कई युद्ध हुए लेकिन 1818 में हुई भीमा कोरेगांव की लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने निर्णायक बढ़त हासिल कर ली। इसलिए ही अंग्रेजों के लिए इस विजय का खास महत्व था। 

इतिहासकार श्रद्धा कुम्भोजकर के अनुसार  ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस लड़ाई में अंग्रेज सेना का नेतृत्व करने वाले एफएफ स्टॉन्टन को गवर्नर जनरल ने प्रमोशन देकर मानद आइड डी कैम्प बना दिया। ब्रिटिश संसद में भी भीमा कोरेगांव युद्ध की प्रशंसा की गयी। ब्रिटिश मीडिया में भी इस युद्ध में अंग्रेज सेना की बहादुरी के कसीदे काढ़े गये। इस जीत की याद में ईस्ट इंडिया कंपनी ने कोरेगांव में 65 फीट ऊंचा एक युद्ध स्मारक बनवाया जो आज भी यथावत है।

भीमा-कोरेगाँव युद्ध और पेशवा

मोरोपंत त्रयंबक पिंगले को छत्रपति शिवाजी ने 1674 में मराठा साम्राज्य का पहला पेशवा नियुक्त किया था। साहू जी ने बालाजी विश्वनाथ को 16 नवंबर 1713 को पेशवा नियुक्त किया। विश्वनाथ छठे पेशवा थे।  बालाजी विश्वनाथ भट देशमुख (ब्राह्मण) थे। उनके बाद बाजीराव द्वितीय तक उनके वंशज ही पेशवा बनते रहे। बालाजी विश्वनाथ के बेटे बाजीराव प्रथम ने मराठा साम्राज्य में अभूतपूर्व विस्तार किया। 

बाजीराव प्रथम के बाद बालाजी बाजीराव, माधवराव प्रथम, नारायण राव, रघुनाथ राव, माधवराव द्वितीय और बाजीराव द्वितीय पेशवा बने। बाजीराव द्वितीय दिसंबर 1796 में पेशवा बने। जून 1818 में अंग्रेजों ने उन्हें उत्तर प्रदेश के बिठूर में नजरबंद कर दिया। पेशवा के साथ उनके कई रिश्तेदार और करीबी भी बिठूर भेजे गये।  बाजीराव द्वितीय अंग्रेजी फौज की कड़ी पहरेदारी के बीच अगले 33 सालों तक बिठूर में रहे। 1851 में उनका देहांत हो गया।  

भीमा-कोरेगांव स्मारक का इतिहास

भीमा-कोरेगांव युद्ध के बाद अंग्रेजों ने युद्धस्थल पर 65 फीट ऊंचा एक स्मारक बनवाया। इस स्मारक पर युद्ध में मारे गये ब्रिटिश और भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि दी गयी है। स्मारक पर अंग्रेजी और मराठी में लिखा है कि यहाँ "ब्रिटिश सेना ने पूरब में अपनी सबसे गर्वभरी जीत हासिल की।" स्मारक पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की बॉम्बे नैटिव इन्फैंट्री के 49 जवानों के नाम भी उत्कीर्ण हैं जो पेशवा की सेना के संग युद्ध में मारे गये थे।

इन जवानों में 22 महार समुदाय के हैं। इन सैनिकों के महार होने की पहचान उनके नाम के अंत में लगे "नाक" (एसनाक, रायनाक, गुन्नाक इत्यादि) से होती है। इस स्मारक पर उत्तर और दक्षिण में मराठी में प्रशस्ति अंकित है। पश्चिम में अंग्रेजी में प्रशस्ति अंकित है। स्मारक के उत्तर और पूर्व में मारे गये या घायल अंग्रेजों के नाम हैं। इनमें आर्टिलरी में शामिल चार भारतीय सैनिकों के नाम भी हैं जो युद्ध में मारे गये।

महारों का सैन्य इतिहास

जातिगत व्यवस्था में महार समुदाय को अछूत समझे जाने के बावजूद उनकी ख्याति एक सैनिक जाति के रूप में रही है। राजपूत, यादव, जाट, गूजर और मराठा की तरह महार को भी लड़ाका जाति माना जाता रहा है। छत्रपति शिवाजी की सेना में भी महार शामिल थे। भीमा कोरेगांव रणस्तम्भ सेवा संघ (बीकेआरएस) के उपाध्यक्ष सच्चिदानंद कडलक के अनुसार महारों ने पेशवा की सेना में अंग के रूप में पानीपत की तीसरी लड़ाई में हिस्सा लिया था।

भीमा-कोरेगांव रणस्तम्भ सेवा संघ (बीकेआरएसएस) के उपाध्यक्ष सच्चिदानंद खडलक ने मीडिया से कहा, "महार शिवाजी के समय से मराठा सेना के हिस्सा रहे हैं। लोग भूल गये कि छत्रपति सम्भाजी का भौतिक अवशेष को दुश्मनों के कब्जे से महारों ने हासिल किया था। सम्भाजी को औरंगजेब ने मरवाया था। महारों ने पेशवा की सेना के लिए पानीपत की तीसरी लड़ाई और खाड़दा की लड़ाई जैसी कई प्रमुख लड़ाइयों में अहम भूमिका निभायी थी। लेकिन इतिहास अक्सर ब्राह्मणवादियों ने लिखा है और वो तथ्यों को तोड़ मरोड़कर पेश करते हैं।"

ईस्ट इंडिया कंपनी ने महारों की वीरता को पहचाना और उन्हें अपनी सेना में जगह दी। इतिहासकार श्रद्धा कुम्भोजकर के अनुसार कोरेगांव के बाद कठियावाड़ा युद्ध (1826),  मुल्तान युद्ध (1846) और दूसरे अफगान युद्ध (1880) में महार रेजीमेंट ने उल्लेखनीय योगदान किया था। इतिहासकार श्रद्धा कुम्भोजकर के अनुसार 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जब ईस्ट इंडिया कंपनी की बॉम्बे आर्मी के महार रेजीमेंट के कई  सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी थी। उसके बाद से ही अंग्रेज महारों के प्रति सशंकित हो गये थे। 1892 में उन्होंने महार को लड़ाका जाति (मार्शल रेस) के सूची से बाहर कर दिया। अंग्रेजों के इस फैसले के खिलाफ महार समुदाय में आवाज उठने लगी। 

1894 में ब्रिटिश सेना के पूर्व सैनिक गोपाल बाबा वालंगकर ने एक संगठन बनाकर ब्रिटिश शासन से महारों को लड़ाका जाति समूह से बाहर करने के फैसले पर फिर से विचार करने की अपील की।  एक अन्य नेता शिवराम जानबा कांबले ने भी महारों को ब्रिटिश सेना में शामिल किए जाने के लिए पुरजोर पैरवी की। कांबले ने ही कोरेगांव स्मारक पर महारों द्वारा सभा करने का सिलसिला शुरू किया। 1910 में कांबले ने 51 गांवों के महारों की साझा बैठक करके ब्रिटिश सेना में उन्हें शामिल किए जाने की मांग रखी। 1916 तक महार कई बार ब्रिटिश शासकों से सेना में दोबारा शामिल करने की मांग उठाते रहे। 

अंग्रेजों ने महारों को दोबारा सेना में तब शामिल किया जब पहले विश्व युद्ध में उसे अतिरिक्त सैनिकों की जरूरत हुई। 1917 में बॉम्बे प्रेसिडेंसी सरकार ने महारों को सेना में भर्ती करने के साथ ही उनकी दो प्लाटून बनाने का आदेश दिया। लेकिन पहला विश्व युद्ध (1914-1918) खत्म होते ही ब्रिटिश ने महारों को सेना में भर्ती करना बंद कर दिया। 

पेशवा शासन में महारों का जातिगत उत्पीड़न

महारों के अछूत जाति से आने के कारण उनका जातिगत उत्पीड़न कोई नई बात नहीं थी लेकिन पेशवा बाजीराव  द्वितीय के समय में ये उत्पीड़न पहले से बहुत ज्यादा बढ़ गया। सच्चिदानंद खडलक ने द हिन्दू अखबार से कहा, "बाजीराव प्रथम की 1740 में मृत्यु के बाद महारों और पेशवा के रिश्ते तल्ख होने लगे। बाजीराव द्वितीय ने महार समुदाय का अपमान किया और उन्हें सेना में शामिल करने से मना कर दिया।" 

इतिहासकार श्रद्धा लिखती हैं, "पेशवा के शासन में नीची समझी जाने वाली जातियों को समान सजा के लिए बड़ी समझी जाने वाली जातियों की तुलना में काफी कड़ी सजा मिलती थी।"  बाजीराव द्वितीय के काल में महारों को खुले में घूमने की मनाही थी। खुद को ऊंची समझने वाली जातियों का मानना था कि अछूतों की परछाईं उन पर पड़ गई तो वो अपवित्र हो जाएंगे। महारों को अपने कमर से झाड़ू और मटका बांधकर रखना होता था। झाड़ू उनके पैरों के निशान मिटाने रहने के लिए और कटोरा थूकने के लिए ताकि वो कहीं और थूक कर उस जगह को "अपवित्र" न करें। 

भीमा-कोरेगांव के दलित विजय के प्रतीक के रूप में उभरने का इतिहास
भीमा कोरेगांव को दलित विजय के प्रतीक के रूप में लोकप्रिय करने का श्रेय बाबासाहब बीआर आंबेडकर को जाता है। (फाइल फोटो)
भीमा कोरेगांव को दलित विजय के प्रतीक के रूप में लोकप्रिय करने का श्रेय बाबासाहब बीआर आंबेडकर को जाता है। (फाइल फोटो)

भीमा कोरेगांव के इतिहास में बड़ा मोड़ तब आया जब बाबासाहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कोरेगांव युद्ध की 109वीं बरसी पर एक जनवरी 1927 को इस स्मारक का दौरा किया। शिवराम कांबले के बुलावे पर ही बाबासाहब कोरेगांव पहुंचे थे। बाबासाहब ने भीमा कोरेगांव स्मारक को ब्राह्मण पेशवा के जातिगत उत्पीड़न के खिलाफ महारों की जीत के प्रतीक के तौर पर इस युद्ध की बरसी मनाने की विधवित शुरुआत की। 

बाबासाहब के इस फैसले के पीछे उनके निजी इतिहास की बड़ी भूमिका थी। बाबासाहब भी महार जाति से आते थे। उनके पिता रामजी मालोजी सकपाल भी ब्रिटिश सेना के महार रेजिमेंट में सूबेदार से रिटायर हुए थे। बाबासाहब के दादा भी महार रेजिमेंट में रहे थे। महार रेजिमेंट के साथ ही कोरेगांव का बाबासाहब के निजी जीवन से गहरा संबंध था। ये बात खुद बाबासाहब ने अपनी किताब "वेटिंग फॉर वीजा" में किया है।

फौज से रिटायर होने के बाद बाबासाहब के पिता कोरेगांव में खजांची के रूप तैनात थे। बाबासाहब अपने भाई  और बहन के बेटे के साथ सतारा से कोरेगांव जा रहे थे। उस समय बाबासाहब की उम्र नौ साल थी। कोरेगांव पहुंचने पर उन सबके महार होने के कारण गाड़ीवालों ने उन्हें पहले ले जाने से मना कर दिया। रास्ते में जब उन्हें प्यास लगी तो लोगों ने उन्हें पानी पिलाने से मना कर दिया। इस घटना ने बाबासाहब के वैचारिक निर्माण में निर्णायक भूमिका अदा की। बाबासाहब ने लिखा है, "मैं यह सब जानता था. लेकिन उस घटना से मुझे ऐसा झटका लगा जो मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था। उसी से मैं छुआछूत के बारे में सोचने लगा। उस घटना के पहले तक मेरे लिए सब कुछ सामान्य-सा था, जैसा कि सवर्ण हिंदुओं और अछूतों के साथ आम तौर पर होता है।"

अब इस स्मारक का संरक्षण भीमा-कोरेगांव रणस्तम्भ सेवा संघ (बीकेआरएसएस) करता है। दलितों के लिए इस स्मारक का महत्व समय के साथ बढ़ता गया है। बीकेआरएसएस  के अध्यक्ष सरजेराव वाघमारे ने मीडिया को बताया, "शुरू में कुछ हजार लोग आते थे। इस साल आठ लाख लोग आये थे।" इस साल भीमा कोरेगांव युद्ध की 200वीं बरसी थी।

भीमा-कोरेगांव: तथ्य बनाम कल्पना

भीमा-कोरेगांव पेशवा बनाम महार युद्ध नहीं था। ये दो रियासतों के बीच युद्ध था जिनके लिए अलग-अलग समुदाय के लोग सैनिक के तौर पर लड़ते रहे थे।  इसलिए किसी एक पक्ष को किसी खास जाति का प्रतिनिधि समझना ऐतिहासिक रूप से न्यायसंगत नहीं होगा। दलित एक्टिविस्टों के अनुसार भीमा-कोरेगांव युद्ध में अंग्रेजों की 834 सैनिकों में करीब 500 पैदल सैनिकों में ज्यादातर महार थे। हालांकि भीमा-कोरेगांव स्मारक पर केवल 22 महारों के नाम हैं और वो भी उनके उपनाम के आधार पर लगाए गए अनुमान हैं। दलित विचारक और प्रोफेसर आनंद तेलतुंबडे लिखते हैं, "...हालांकि ठीक संख्या नहीं पता लेकिन ये साफ है कि (बॉम्बे नैटिव इन्फैंट्री) के सभी सैनिक महार नहीं थे। अगर मारे गये लोगों की सूची देखें तो भी साफ है कि मारे गये सैनिकों में ज्यादातर (49 में से 27) महार नहीं थे।" प्रोफेसर आनंद लिखते हैं, "...इन तथ्यों की रोशनी में ये कहना गलत होगा कि महार पेशवा के ब्राह्मण सत्ता के खिलाफ लड़ रहे थे।"

भीमा-कोरेगांव की लड़ाई के बाद भी जिस तरह अंग्रेजों ने महारों की सेना में भर्ती रोक दी उससे साफ है कि उनका मकसद अपने हित साधना था। बाबासाहब ने भीमा-कोरेगांव युद्ध का इस्तेमाल दलित अस्मिता को जगाने के लिए किया। द वायर में प्रकाशित लेख में आनंद लिखते है, "...जब बाबासाहब अंबेडकर भीमा कोरेगांव की लड़ाई को पेशवा शासन में महार सैनिकों के उत्पीड़न के प्रतीक के तौर पर पेश करना शुरू किया तो वो एक विशुद्ध मिथक का निर्माण कर रहे थे।"

भीमा-कोरेगांव युद्ध के बाद महारों के जातिगत उत्पीड़न में कोई फर्क पड़ा हो इसका भी कोई ठोस सबूत नहीं है।आनंद लिखते हैं, "इस बात के कोई सबूत नहीं मिलते हैं कि पेशवा राज खत्म होने के बाद महारों को जाति उत्पीड़न से कोई राहत मिली थी...सच ये है कि जातिगत उत्पीड़न अबाध रूप से जारी रहा था।"

English summary :
Bhima-Koregaon: Today (January 1) of the Bhima Koregaon war that has become a symbol of Dalit victory is 201 anniversary. Last year, a person was killed and more than 40 were injured in the violence that took place in Bhima Koregaon.


Web Title: History of Bhima-Koregaon its relation to Dalit victory, mahar, br ambedkar, british

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