औरंगाबाद का एक स्कूल, जहां सौहार्द का संदेश, सुदूर मराठवाड़ा के बच्चों ने पूर्व राष्ट्रपति कलाम से सीखी कई आदतें
By शिरीष खरे | Updated: November 27, 2019 18:49 IST2019-11-27T18:48:11+5:302019-11-27T18:49:19+5:30
करीब दो हजार की जनसंख्या वाले इस गांव में अधिकतर कपास और बाजरा उत्पादक मजूदर और छोटे किसान परिवार हैं। इसके अलावा, बड़ी संख्या में औरंगाबाद औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिक भी हैं।

वर्ष 1963 में स्थापित मराठी माध्यम के इस स्कूल में प्रधानाध्यापिका सहित पांच शिक्षिकाएं हैं।
महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर से लगभग 20 किलोमीटर दूर लाठगांव का शासकीय प्राथमिक स्कूल है। यह स्कूल संविधान के मूल्यों पर आधारित शिक्षण पद्धति से बच्चों को भावी नागरिक बनाने के लिए किए जा रहक प्रयासों के चलते चर्चा में है।
यहां की शिक्षिका कुछ अनूठी गतिविधियों आयोजित करके स्कूल के बच्चों के व्यवहार में उल्लेखनीय परिवर्तन ला रही हैं। इस कड़ी में इस शिक्षिका ने एक विशेष प्रकार की गतिविधि से बच्चों पर ऐसा प्रभाव डाला है कि छोटे से गांव के ज्यादातर मजदूर किसानों के बच्चे अपने बड़े बुजुर्गों के साथ संबंधों का महत्त्व जान रहे हैं। ये बच्चे अपने मददगार व्यक्तियों के प्रति आभार जताने के नए तरीके सीख रहे हैं। साल में दो-तीन मौकों पर इस स्कूल के बच्चे ऐसे व्यक्तियों के लिए अपने हाथों से धन्यवाद कार्ड भी बनाते हैं।
बता दें कि करीब दो हजार की जनसंख्या वाले इस गांव में अधिकतर कपास और बाजरा उत्पादक मजूदर और छोटे किसान परिवार हैं। इसके अलावा, बड़ी संख्या में औरंगाबाद औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिक भी हैं। वर्ष 1963 में स्थापित मराठी माध्यम के इस स्कूल में प्रधानाध्यापिका सहित पांच शिक्षिकाएं हैं।
इस तरह हुई शुरुआत
स्कूल की शिक्षिकाएं बताती हैं कि ये बच्चे अच्छे व्यवहार से जुड़ी इन आदतों का अभ्यास पिछले तीन वर्षों से कर रहे हैं। वजह, यहां पिछले तीन वर्षों से स्वतंत्रता, समता, न्याय और बंधुत्व जैसे संविधान पर आधारित मूल्यों की गतिविधियां कराई जा रही हैं। इस दौरान स्कूल में इस तरह के कई सत्र आयोजित होने से छोटे बच्चे भी अपनी क्षमताएं पहचान रहे हैं।
इस बारे में शिक्षिका अल्का थाले बताती हैं कि यह जनवरी 2018 की बात है, जब उन्होंने 'मूल्यवर्धन' नाम से एक सत्र आयोजित किया और इसमें एक गतिविधि आयोजित कराई। इस दौरान कक्षा दूसरी में पांच-पांच बच्चों के समूह बनाएं। फिर, हर समूह से कहा कि वे बारी-बारी से मूल्यवर्धन विद्यार्थी पुस्तिका से 'धन्यवाद दोस्त!' नाम की कहानी पढ़ें। तब, कक्षा पहली के बच्चे भी यह कहानी ध्यान से सुन रहे थे।
दरअसल, यह पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम की एक घटना से जुड़ी सच्ची कहानी बताई जाती है। इस कहानी में वे विभिन्न कार्यक्रमों में देश के अलग-अलग क्षेत्रों में जाते थे। एक बार वे उत्तर-पूर्व राज्यों के दौरे पर थे और उन्हें गुवाहाटी से शिलांग जाना था। इसी दौरान, खुली जीप में एक सिपाही उनकी सुरक्षा के लिए पूरे रास्ते बंदूक लेकर खड़ा रहा। शिलांग पहुंचने पर डॉ. कलाम ने सिपाही से हाथ मिलाया और उसे धन्यवाद दिया।
अल्का थाले बताती हैं कि कहानी खत्म होने के बाद बच्चों ने आपस में एक-दूसरे से चर्चा की। उन्हें यह बात बहुत अच्छी लगी कि पूर्व राष्ट्रपति होने के बावजूद डॉ. कलाम ने सिपाही को धन्यवाद दिया। फिर बच्चे इस नतीजे पर पहुंचे कि जो व्यक्ति उनकी मदद करता है, उसे धन्यवाद देना चाहिए। इस तरह, बच्चों ने अपने घर-परिवार, आस-पड़ोस और स्कूल में उनकी मदद करने वाले व्यक्तियों की पहचान की और ऐसे व्यक्तियों के नाम अपनी-अपनी कॉपियों में लिखें।
ऐसे बदला बच्चों का व्यवहार
फिर स्कूल ने इसी गतिविधि को सभी कक्षाओं के बच्चों के साथ आयोजित की। इसमें रामेश्वर पवार नाम के बच्चे ने सभी बच्चों के सामने खड़े होकर अपनी मां को धन्यवाद दिया। उसके बाद, उसने मां द्वारा दिन भर में किए जाने वाले बहुत सारे कामों को गिनाया।
पांचवीं का पृथ्वीराज इथ्थर बताता है कि उस दिन गतिविधि पूरी होने के बाद जब वह स्कूल से घर लौटा तो उसने अपनी मम्मी से कहा कि मम्मी आप ज्यादा काम मत किया करो। उसके शब्दों में, ''मम्मी आप रोज-रोज इतना काम करती हो! आज थोड़ा आराम करो। आज चाय मैं बनाता हूं। आप बताना चाय कैसे बनाते हैं। फिर मैं चाय बनाकर आपको पिलाऊंगा।''
बच्चों ने इसलिए बनाए धन्यवाद कार्ड
अल्का बताती हैं कि 26 जनवरी, 2019 के कुछ दिन पहले उन्होंने मूल्यवर्धन का एक और सत्र आयोजित किया। इसमें पहली और दूसरी के अलावा अन्य कक्षाओं के बच्चे भी शामिल हुए। वे कहती हैं, ''मैंने बच्चों को बताया कि मैं इस गणतंत्र-दिवस पर अपनी मां के लिए धन्यवाद कार्ड बनाने वाली हूं। कारण, मेरी मां मेरे लिए बहुत काम करती हैं। यदि आप चाहो तो मेरे साथ मिलकर ऐसे ही कार्ड बना सकते हो। फिर, इन्हें आपकी मदद करने वाले व्यक्तियों को दे सकते हो।''
उसके बाद, बच्चों ने शिक्षिका के साथ मिलकर धन्यवाद कार्ड बनाएं। स्कूल ने बच्चों को कार्ड-शीट और रंगीन पंसिलें दीं। अल्का ने सभी बच्चों को सादा कार्ड बनाने का तरीका बताया। कई बच्चों ने धन्यवाद कार्ड पर चित्र भी चिपकाएं। पर, शिक्षिका के लिए महत्त्वपूर्ण यह नहीं था कि बच्चों ने कितना सुंदर कार्ड बनाया है, बल्कि महत्त्वपूर्ण यह था कि इस बहाने बच्चों ने अपनी भावनाएं व्यक्त कीं।
बच्चों ने आपस में बांटी जिम्मेदारियां
यही नहीं, यहां के बच्चों ने अपनी शिक्षिका की कक्षा से जुड़ी कुछ जिम्मेदारियों को आपस में बांटकर उनके काम के बोझ को कम कर दिया है। ऐसे में शिक्षिका भी बच्चों के प्रति आभार जताती हैं और उन्हें धन्यवाद देती हैं।
अल्का अपने अनुभवों से मानती हैं कि कक्षा पहली के छोटे बच्चों की शिक्षिका होना अपनेआप में बड़ी चुनौती होती है। इसके पहले कक्षा में उनका पूरा समय ऐसे छोटे बच्चों को संभालने में ही बीत जाता था। पर, धीरे-धीरे छोटे बच्चे ही कक्षा की जिम्मेदारी उठाने लगे। इससे उनका समय भी बचने लगा और उनका काम आसान हो गया।
अल्का के अनुसार, बच्चे खुद मिलकर अपनी कक्षा को स्वच्छ बनाए रखने में मदद करते हैं और कचरे को डस्टबिन में डालते हैं। इसी तरह, वे बैठने के लिए फर्श पर दरी बिछाते हैं और पढ़ाई में एक-दूसरे की मदद करते हैं।
अल्का कहती हैं, ''मैंने कोई साल भर पहले पहली और दूसरी के बच्चों के लिए मूल्यवर्धन की एक गतिविधि आयोजित की थी। यह गतिविधि कक्षा में उनकी जिम्मेदारी से जुड़ी थी। तब चर्चा में मैंने उनसे पूछा कि आपके घर में यदि कोई व्यक्ति ही काम करें, और दूसरा कोई उसकी मदद न करे तो ऐसा होना चाहिए। फिर उदाहरण देकर बताया कि यदि आपको स्कूल भेजने के पहले किए जाने वाले सारे काम एक ही व्यक्ति करे तो कितना समय लगेगा, और यदि दो-तीन लोग मिलकर करें तो कितना समय लगेगा। बच्चों ने जो उत्तर दिए, उसी के आधार पर मैंने उनसे कहा कि यदि कक्षा में आप भी मिलकर ये-ये काम करें तो हमारा समय बच सकता है।''
उसके बाद, बच्चों ने आपस में मिलकर अपने काम बांटें। इससे बच्चों में आपसी सहयोग की भावना को बढ़ावा मिला। अब वे कक्षा की जिम्मेदारियों को समूह में मिलकर पूरा करना सीख रहे हैं।
प्रधानाध्यापिका विजया नंदनवार बच्चों में आए इस व्यवहार से उत्साहित हैं। उनकी मानें तो छोटी-सी बस्ती के छोटे बच्चों को इस तरह से अपनी भावनाओं को जताते हुए देखना अच्छा लगता है। वजह, यहां के बच्चे स्कूल में आते ही बहुत शर्मीले हो जाते थे और ज्यादा प्रश्न पूछने पर घबरा जाते थे।
विजया चाहती हैं कि बच्चों में ये आदतें बनी रहे और इसके लिए वे चाहती हैं कि इस तरह के सत्र लगातार आयोजित होते रहें।



