नागरिकता बिल: क्या हैं गोलकनाथ केस और केशवानंद भारती केस, क्या सीएबी के खिलाफ लड़ाई में बनेंगे विपक्ष का 'सहारा'
By अभिषेक पाण्डेय | Published: December 11, 2019 12:07 PM2019-12-11T12:07:59+5:302019-12-11T12:07:59+5:30
Golaknath, Kesavananda Bharati cases: नागरिकता संशोधन बिल को कांग्रेस के सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने के संकेत के बीच ये दो केस बन सकते हैं विपक्षियों के लिए उदाहरण
नागरिकता संशोधन बिल के लोकसभा से पास होने के बाद पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने मंगलवार (10 दिसंबर) को कहा कि ये बिल असंवैधानिक और संविधान की मूल भावना के खिलाफ है और इसके खिलाफ लड़ाई सुप्रीम कोर्ट में लड़ी जाएगी।
पी चिदंबरम के इस बयान से एक बार फिर ये बहस छिड़ गई है कि क्या संसद को संविधान में मनचाहे तरीके से संशोधन का अधिकार है? संविधान और संसद की भूमिका को लेकर बहस आजादी के बाद से जारी रही है। कई मौके तो ऐसे भी आए जब ये विवाद देश की सबसे बड़ी अदालत सर्वोच्च न्यायालय के पास भी पहुंचा।
अब जब कांग्रेस नागरिकता संशोधन बिल को सुप्रीम कोर्ट ले जाने की बात कह चुकी है, तो ये चर्चा छिड़ना लाजिमी है कि आखिर संविधान और संसद की इस बहस में अब तक न्यायपालिका का क्या रुख रहा है।
इस बहस में सुप्रीम कोर्ट के दो फैसले किसी नजीर की तरह हैं। एक है 1967 में सुप्रीम कोर्ट की 11 जजों की बेंच द्वारा दिया गोलकनाथ केस में सुनाया गया फैसला और दूसरा है 1973 में सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की बेंच द्वारा केशवानंद भारती मामले में सुनाया गया फैसला। आइए जानें क्या है गोलकनाथ केस और केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाया गए फैसले।
क्या हैं गोलक नाथ केस और केशवानंद भारती केस?
गोलक नाथ बनाम पंजाब सरकार विवाद:
हेनरी और विलियम गोलक नाथ परिवार के पास पंजाब के जालंधर में 500 एकड़ की भूमि थी। 1953 में पंजाब सरकार ने कहा कि गोलकनाथ परिवार केवल 30 एकड़ जमीन अपने पास रख सकता है, बाकी की जमीन का कुछ हिस्सा किराएदारों को मिलेगा और बाकी की जमीन का सरकार अधिग्रहण करेगी। सरकार के इस फैसले के खिलाफ गोलकनाथ परिवार ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया लेकिन वहां हारने पर उन्होंने 1965 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की।
गोलकनाथ परिवार ने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में 1953 पंजाब भूमि अधिग्रहण कानून को ये कहते हुए चुनौती दी कि यह उनके संपत्ति रखने, अर्जित करने और उस पर कोई भी व्यवसाय करने के मौलिक अधिकारों का हनन करता है।
साथ ही ये संविधान में प्रदत्त कानून के समक्ष समानता और समान सुरक्षा के उनके अधिकारों का भी हनन है।
इस मामले में सबसे अहम मसला ये था कि क्या मौलिक अधिकारों को संशोधन किया जा सकता है और क्या संविधान के अनुच्छेद 13 (3) (a) में क्या संशोधन को कानूनी माना गया है?
इस मामले में 1967 मं सुप्रीम कोर्ट की 11 जजों की बेंच ने अपना फैसला सुनाते हुए अपने पहले के आदेश को पलटते हुए कहा था कि संसद को संविधान द्वारा दिए मौलिक अधिकारों में संशोधन का अधिकार नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट की 11 जजों की बेच ने ये फैसला 6:5 के बेहद कम बहुमत से सुनाया, जिसमें 6 जज इस फैसले के पक्ष और 5 विपक्ष में थे। अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 368 सदन को मौलिक अधिकारों को समाप्त करने या सीमित करने की शक्ति नहीं देता।
इस ऐतिहासिक फैसले के दो साल बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 1969 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण के फैसले और 1970 में रजवाड़ों को दिए जाने वाले प्रीवी पर्स के फैसलों को असंवैधानिक घोषित कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट के इन फैसले से नाखुश तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने 1967 से 1973 तक तीन, 24वां, 25वां और 26वां संविधान संशोधन किए।
24वें संविधान संशोधन से संसद को आर्टिकल 368 के तहत मौलिक अधिकारों समेत संविधान के किसी भी हिस्से के संशोधन का अधिकार दे दिया गया।
25वें संशोधन से संविधान में प्रदत्त संपत्ति के अधिकार को भी सीमित कर दिया गया और कहा गया की नीति निर्देशत तत्व के सिद्धांतों को लागू करने के उद्देश्य से बनाए गए कानून को आर्टिकल 14, 19 और 31 में वर्णित अधिकारों के हनन के आधार पर अवैध नहीं ठहराया जा सकता। वहीं 26वें संशोधन में प्रिवी पर्स को समान सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ बताकर रद्द कर दिया गया था।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य
ये विवाद केरल के एडनीर में स्थित 1200 साल पुराने हिंदू मठ की सैकड़ों एकड़ भूमि को केरल सरकार द्वारा अधिग्रहित करने के खिलाफ स्वामी केशवानंद भारती द्वारा दायर किया गया था। इस मठ का केरल और कर्नाटक में काफी सम्मान है।
सुप्रीम कोर्ट में इस केस की सुनवाई 68 दिनों, (31 अक्टूबर 1972 से 23 मार्च 1973) तक चली। इसे आजाद भारत के इतिहास में सु्प्रीम कोर्ट में सबसे लंबे समय तक सुनवाई वाले केसों में से एक माना जाता है।
केशवानंद भारती ने अनुच्छेद 26 का हवाला देते हुए कहा था कि देश के हर नागरिक को धार्मिक संस्था बनाने, अपनी धार्मिक संपदा का प्रबंधन करने का और चल-अचल संपत्ति जोड़ने का अधिकार है।
केशवानंद भारती मामले में 13 जजों की बेंच बनाने का फैसला किया गया, क्योंकि गोलकनाथ मामले में कोर्ट पहले ही 11 जजों की बेंच फैसला दे चुकी थी। सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की बेंच ने इस मामले में 24 अप्रैल 1973 को फैसला सुनाते हुए अपने 703 पेज में दिए गए आदेश में सरकार द्वारा किए गए 24वें संविधान संशोधन को मान्यता दे दी। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि संसद के पास संविधान के किसी भी भाग की तरह की मूल अधिकारों में भी संशोधन का अधिकार है, लेकिन कोर्ट ने साथ ही ये भी कहा कि संसद संविधान की आधारभूत सरंचना को न तो संक्षिप्त कर सकती है, न ही नष्ट और न ही समाप्त कर सकती है।
हालांकि केशवानंद भारती ये केस हार गए थे, लेकिन उनके इस केस में आए न्यायपालिका के फैसले ने संविधान और संसद की बहस को लेकर जारी कई सारे जवाब दे दिए। केशवानंद भारती केस संविधान, संसद और न्यायपालिका के बीच संतुलन स्थापित करने का भी काम किया और आखिर में इस केस ने ये बात फिर से सिद्ध की संविधान ही सर्वोपरि है।