पुण्यतिथि विशेष: शहनाई ही थी इनकी 'बेगम', जब भी ये गूंजी बिस्मिल्लाह याद आए

By पल्लवी कुमारी | Updated: August 21, 2018 07:23 IST2018-08-21T07:23:44+5:302018-08-21T07:23:44+5:30

Bismillah Khan death anniversary: बिस्मिल्लाह शिया मुस्लिम होने के बावजूद वो हमेशा सरस्वती माता की पूजा करते थे। उनका मानना था कि जो कुछ है, वो मां सरस्वती की कृपा से ही है। काशी विश्वनाथ मंदिर और गंगा के साथ खास लगावा था।

Bismillah Khan death anniversary, biography, lesser known fact | पुण्यतिथि विशेष: शहनाई ही थी इनकी 'बेगम', जब भी ये गूंजी बिस्मिल्लाह याद आए

पुण्यतिथि विशेष: शहनाई ही थी इनकी 'बेगम', जब भी ये गूंजी बिस्मिल्लाह याद आए

नई दिल्ली, 21 अगस्त:  शहनाई का नाम लेते ही, हमारे दिमाग में जो सबसे पहली छवि सामने आती है, वह है उस्ताद बिस्मिल्‍लाह खान की। पूरी दुनिया में शहनाई को लोकप्रिय बनाने वाले भारतरत्‍न उस्‍ताद बिस्मिल्लाह खान किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। इनके शहनाई का जादू आज भी बरकरार है। शहनाई के इस उस्ताद ने एक ऐसी छाप छोड़ी है कि पिछले करीब सात दशक में जब भी कहीं भी शहनाई की गूंज सुनाई देती है, तो  बिस्मिल्लाह याद आ जाते हैं। आज यानी 21 अगस्त को बिस्मिल्लाह खान की पुण्यतिथि है। इनका निधन 21 अगस्त 2006 में 90 साल की उम्र में हुआ था। बिस्मिल्लाह खान ने भारतीय संगीत को एक नई दिशा दी है। 

विरासत में मिला संगीत 

उस्‍ताद बिस्मिल्‍लाह खान का जन्‍म बिहार के डुमरांव में 21 मार्च 1916 को हुआ था। यह एक साधारण मुस्लिम परिवार में जन्में थे। इनके पिता नाम पैगम्बर खां और माता का नाम मिट्ठन बाई था। इनका एक और नाम था जो-  'कमरूद्दीन' था। इनके बड़े भाई का नाम- शमसुद्दीन था। बिस्मिल्ला खा के नाम के साथ एक दिलचस्प किस्सा है। इनके जन्म होने पर उनके दादा रसूल बख्श खां ने उनकी तरफ देखते हुए 'बिस्मिल्ला' कहा। इसके बाद उनका नाम 'बिस्मिल्लाह' ही रख दिया गया। इसी नाम से वह मशहूर भी हुए। बिस्मिल्लाह पूर्वज बिहार के भोजपुर रजवाड़े में दरबारी संगीतकार थे। उनके पिता पैंगबर खां इसी प्रथा से जुड़ते हुए डुमराव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई वादन का काम करते थे। बिस्मिल्लाह खान के परदादा हुसैन बख्श खान, दादा रसूल बख्श, चाचा गाजी बख्श खान और पिता पैगंबर बख्श खान शहनाई वादक थे।

बिहार में जन्में लेकिन संगीत बनारस में सीखा

छह साल की उम्र में बिस्मिल्लाह को बनारस लाया गया था। यहां वह अपमे नानी के घर ईद मनाने आए थे। इनके दोनों मामू शहनाई बजाते थे। छोटे मामू अली बख्श बालाजी मंदिर में शहनाई बजाते थे और वहीं रियाज भी करते थे। बिस्मिल्लाह भी साथ जाया करते थे। एक दिन उन्होंने कहा मुझे भी शहनाई बजाना सीखाना है। इसके बाद से  बिस्मिल्लाह ने शहनाई बजाना शुरु कर दिया। मामू अली बख्श जो बजाते। बिस्मिल्लाह उसे ही करने की कोशिश करते थे। वे हर दिन में छह घंटे रियाज करने लगे थे। उन्होंने बजरी, चैती और झूला जैसी लोकधुनों में को सीखा और क्लासिकल मौसिकी में शहनाई को सम्मानजनक स्थान दिलाया।  करीब 70 साल तक बिस्मिल्लाह साहब अपनी शहनाई के साथ संगीत की दुनिया पर राज किया। 

शहनाई को कहते थे बेगम 

उस्ताद का निकाह 16 साल की उम्र में मुग्गन ख़ानम के साथ हुआ। ये उनके मामू सादिक अली की दूसरी बेटी थी। इनके नौ बच्चे हुए। वे अपनी बेगम से बेहद प्यार करते थे लेकिन शहनाई को भी अपनी दूसरी बेगम कहते थे। इनका परिवार 66 लोगों का था। जिसका भरण पोषण बिस्मिल्लाह करते थे। वह अपने घर को बिस्मिल्लाह होटल भी कहते थे। हर दिन के छह घंटे का रियाज उनकी दिनचर्या में शामिल था। अलीबख्श मामू के निधन के बाद खां साहब ने अकेले ही 60 साल तक इस साज को बुलंदियों तक पहुंचाया। उन्होंने एक हिंदी फिल्म में भी शहनाई बजाई थी। फिल्म का नाम था-गूंज उठी शहनाई। लेकिन उन्हें फिल्म का माहौल पसंद नहीं आया। बाद में एक कन्नड़ फिल्म में भी शहनाई बजाई थी। 

साझी संस्कृति के थे प्रतीक 

मुसलमान होने के बावजूद बिस्मिल्लाह का काशी विश्वनाथ मंदिर और गंगा के साथ खास लगावा था। वह अन्य हिन्दुस्तानी संगीतकारों की तरह धार्मिक रीति रिवाजों के भी प्रबल पक्षधर थे। वह हर दिन विश्वनाथ मन्दिर में जाकर तो शहनाई बजाते ही थे इसके अलावा वे गंगा किनारे बैठकर घण्टों रियाज करते थे। शिया मुस्लिम होने के बावजूद वो हमेशा सरस्वती माता की पूजा करते थेष उनका मानना था कि जो कुछ हैं, वो मां सरस्वती की कृपा से ही हैं। वह पांच बार के नमाजी थे लेकिन हमेशा त्यौहारों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। रमजान के दौरान व्रत भी करते थे। बनारस छोडने के ख्याल से ही डर जाते थे। कहते थे- गंगा मईया और काशी विश्वनाथ से दूर नहीं रह सकता। 

भारत की आजादी और बिस्मिल्लाह की शहनाई

भारत की आजादी और बिस्मिल्लाह की शहनाई के बीच भी एक गहरा रिश्ता है। 1947 में आजादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर झंडा फहराया जा रहा था तब उनकी शहनाई भी वहां आजादी का संदेश बांट रही थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी। 26 जनवरी 1950 को बिस्मिल्लाह ने शहनाई बजाई थी। बिस्मिल्लाह ने गंगा घाट निकल कर विश्व के कई देशे ईरान, इराक, अफगानिस्तान, जापान, अमेरिका, कनाडा और रूस जैसे अलग-अलग मुल्कों में अपनी शहनाई की मधुर स्वर बिखेरी। ये तीसरे संगीतकार हैं, जिन्हें 2001 में भारत रत्न से नवाजा गया था। इसके अलावा इन्हें संगीत नाट्य अकादमी पुरस्कार, पद्मविभूषण, पद्म भूषण, तराल मौसकि से भी सम्मानित किया जा चुका है। 

ये इच्छ रह गई थी अधूरी

संगीत पर अपना पूरा जीवन लगा देने वाले बिस्मिल्लाह की यूं तो कोई बड़ी इच्छा नहीं थी लेकिन उनकी ख्वाहिश थी कि वह दिल्ली के इंडिया गेट पर शहनाई बजाते।  बिस्मिल्लाह की ये आखिरी इच्‍छा अधूरी ही रह गई। 17 अगस्त 2006 को वो बीमार पड़े। उन्हें वाराणसी के हेरिटेज अस्पताल में भर्ती कराया गया। जहां दिल का दौरा पड़ने की वजह से वो 21 अगस्त को दुनिया को अलविदा कह कर चले गए। लेकिन उनकी शहनाई की धुन इस फिजाओं में हमेशा के लिए अमर हो गई। 

Web Title: Bismillah Khan death anniversary, biography, lesser known fact

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