नई किताब: रूमानियत से भरे एक पत्रकार के नोट्स
By अनुपम | Published: November 29, 2018 05:13 PM2018-11-29T17:13:11+5:302018-11-29T17:58:57+5:30
इन स्मृतियों में नागार्जुन, रवींद्रनाथ ठाकुर, विद्यापति, भूपेन हजारिका हैं तो मणि कौल, प्रभाष जोशी, विद्रोही, स्वदेश दीपक भी. लेखक अपनी मुलाकातों, अध्ययन की कूची से एक तरह से रेखाचित्र खींचते हैं और अपने क्षेत्र में इनके योगदान को समग्रता में समेटते हैं.
नोट्स शब्द सुनकर छात्र जीवन की याद आ जाती है. उन प्रतिभावान विद्यार्थियों की याद आ जाती है जो नोट्स बनाते थे और जो दुर्लभ होते थे. पर बेख़ुदी में खोया शहर: एक पत्रकार के नोट्स किताब के लेखक अरविंद दास के नोट्स सुलभ हैं. देश-विदेश घूमकर उन्हें जो अनुभव हुए उसको ये किताब बयां करती है.
आईआईएमसी से पत्रकारिता में प्रशिक्षण और जेएनयू से साहित्य और पत्रकारिता में शोध के बाद विभिन्न समाचार पत्रों में अरविंद दास जो विचार, टिप्पणी और संस्मरण लिखते रहे उनको इस किताब में एक जगह संग्रहित किया गया है. हर लेख अपने आप में स्वतंत्र और पठनीय हैं, पर गौर से पढ़ने पर उनमें एक संबद्धता दिखाई देती है, जिसमें लेखक के व्यक्तित्व की झलक भी है. पिछले दो दशकों में जबसे बड़ी पूंजी से पत्रकारिता संचालित होने लगी रूमानियत के लिए उसमें जगह कम बची है. इस पुस्तक में लेखक शुरू से आखिर तक रूमानी बना रहा है, जो युवाओं को खास तौर पर पसंद आएगी. ये नोट्स अपने लोक, अपनी संस्कृति, अपनी भाषा और कलाओं की चिंता करती है. इन लेखों में इन्हें बचाने की जद्दोजहद भी है.
ललित निबंध शैली में जहाँ संस्मरण हैं वहीं संस्मरणात्मक शैली में आत्मकथन. इस किताब को किसी एक विधा के परंपरागत सांचे में हम ढाल नहीं पाते. जो इस किताब की खूबी है. किताब में टिप्पणियों को पाँच खंडों में बांटा गया है- परदेश में बारिश, राष्ट्र सारा देखता है, संस्कृति के अपरूप रंग, उम्मीद-ए-सहर और स्मृतियों का कोलाज. पहला खंड उन स्मृतियों, हलचलों को समेटे है जो लेखक ने परदेश में महसूस किया. इसमें सेन, नेकर, टेम्स नदी है तो पर्थ और कोलंबो का समंदर भी है. वियना और शंघाई का शहर भी है और जर्मनी के विश्वविद्यालय भी. खास बात यह है कि इनमें बसा भारत भी है. उसकी आवाजाही हर जगह है.
दूसरे खंड में, मीडिया, समांतर सिनेमा, बॉलीवुड, रंगमंच आदि पर लेखक ने कलम चलाई है और वह उन बिंदुओं को हमारे सामने लाते हैं जो कहीं छूट रहा है, कहीं टूट रहा है, कहीं बदल रहा है. बात एनएसडी की हो या क्षेत्रीय सिनेमा की धमक की. अरविंद अपनी बात सूक्तियों में कहते हैं- ‘राजनीति और राजनीतिक विचारधारा की बातें अब पत्रकारिता के लिए अवगुण मानी जाती है.’ वे बार-बार हिंदी पत्रकारिता की भूमंडलीकरण के बाद विकट स्थिति को हमारे सामने लाते हैं जो मुनाफा केंद्रित होकर बाजार के हवाले हो चुकी है. ये उनके शोध का विषय भी है.
रवींद्रनाथ ठाकुर और विद्यापति की चर्चा
किताब का तीसरा खंड शास्त्रीय संगीत, भाषा, पेंटिग, लोक संगीत आदि से जुड़ा है. यहाँ दरभंगा घराना है, मिथिला पेंटिग है और शेखावटी भी. नौटंकी के साथ वे विंध्यवासिनी देवी, सिद्धेश्वरी देवी की चर्चा करते हैं. वे इन कलाओं के प्रति गहरी चिंता व्यक्त करते है, जो आम जन से दूर होते जा रही है. वे अपने लेखों में मुक्तिबोध की तरह प्रश्न उठाते हैं –जिन करीब 50 साहित्यकारों को मैथिली में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है, सभी उच्च जातियों से ही क्यों आते हैं?’
चौथे खंड उम्मीद-ए-सहर में वे किताबों, पुस्तकालयों, दिल्ली, कश्मीर, मैकलोडगंज-तिब्बत आदि की बात करते हैं. इस खंड की टिप्पणियाँ अपेक्षाकृत बड़ी है जिसमें लेखक की विचारधारा उभर कर आती है. इसमें लेखक का जेएनयू के ऊपर एक विस्तृत लेख और टिप्पणी है, जिसकी काफी चर्चा हुई थी. जेएनयू की प्रतिरोध की संस्कृति और संवदेशनशीलता का जिक्र खास तौर पर लेखक ने किया है, जो सही भी है. मौजूदा दौर में जेएनयू को जिस तरह मीडिया में दिखाया, बताया जा रहा है उसको देखते हुए यह लेख मौजूं है.
आखिरी खंड में, शख्सियतों को लेकर संस्मरण है जिसमें पारिवारिक संस्मरण भी शामिल हैं. पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी पीर मुहम्मद मुनिस ने गाँधीजी को चिट्ठी लिख कर चंपारण बुलाया पर वे अपरिचित रहे. लेखक उनकी चर्चा करते हैं. इन स्मृतियों में नागार्जुन, रवींद्रनाथ ठाकुर, विद्यापति, भूपेन हजारिका हैं तो मणि कौल, प्रभाष जोशी, विद्रोही, स्वदेश दीपक भी. लेखक अपनी मुलाकातों, अध्ययन की कूची से एक तरह से रेखाचित्र खींचते हैं और अपने क्षेत्र में इनके योगदान को समग्रता में समेटते हैं. यह आश्चर्य नहीं कि किताब में बार-बार विद्यापति,नागार्जुन दिख जाते हैं क्योंकि लेखक का स्वंय का संबंध भी उसी क्षेत्र से है.
पूरी किताब उस संवेदनशील लेखक-पत्रकार की है जो अपने लोक, संस्कृति, भाषा, जन, साहित्य से रूमानी प्रेम करता है और इस पूंजावादी समय में संकट भी इन्हीं के ऊपर है. कुछ टिप्पणियाँ अधूरी सी लगती है, शायद अखबारों के लिए लिखी होने के कारण शब्द विस्तार की गुंजाइश नहीं थी.
मेरे हिसाब से किताब का खंड परदेश से देश और परदेश होना चाहिए था, जिसे लेखक ने परदेश से शुरू किया है. कारण व्यक्ति ‘ग्लोबल’ बाद में होता है, ‘लोकल’ पहले।
अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली से छपी पुस्तक की साज-सज्जा बेहतर है, हार्डबाउंड में कीमत 375 रुपए है.