विश्लेषण: 'महाराष्ट्र की राजनीति में उद्धव सत्ता की दौड़ जीतने वाले कछुआ साबित हुए हैं'
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: November 27, 2019 08:59 AM2019-11-27T08:59:18+5:302019-11-27T09:00:03+5:30
हमने बचपन में खरगोश और कछुए की दौड़ की कहानी सुनी है. महाराष्ट्र की राजनीति में आज उद्धव सत्ता की दौड़ जीतने वाले कछुआ साबित हुए हैं.
संदीप प्रधान
उद्धव ठाकरे पर मीडिया ने हमेशा ही अन्याय किया है. शिवसेना के संस्थापक बालासाहब ठाकरे के पुत्र होने के कारण पिता से उनकी तुलना करने के मोह से भाजपा नेताओं, विपक्षियों के साथ-साथ मीडिया भी नहीं बच पाया. बालासाहब की भाषण शैली, उनकी हाजिरजवाबी, उनकी निर्णय क्षमता जैसे गुणों को लेकर उद्धव की तुलना पिता से की जाती रही है. जब बालासाहब ने उद्धव को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी नियुक्त किया, तब चचेरे भाई राज ठाकरे के साथ उद्धव की तुलना की जाने लगी. राज ठाकरे हू ब हू बालासाहब की तरह दिखते हैं और उनकी आक्रामक भाषण शैली भी अपने चाचा से मिलती-जुलती है. अपने जीवनकाल में बालासाहब ने शिवसेना को मुख्यमंत्री आसीन करवाया था. उद्धव ने भी संकल्प किया था कि मुख्यमंत्री के पद पर शिवसेना के किसी कार्यकर्ता को आसीन करवाकर वह अपने पिता का सपना एक बार फिर पूरा करेंगे.
उन्हें आखिर सफलता मिल गई और मुख्यमंत्री पद वह संभालने जा रहे हैं. उद्धव के पहले शिवसेना में राज ठाकरे सक्रिय हुए. राज भारतीय विद्यार्थी सेना के नेता थे. महाविद्यालयीन चुनाव, विश्वविद्यालय की राजनीति और व्यंग्य चित्रों के माध्यम से राज ने राजनीति में अलग पहचान बनाई. कॉर्टूनिस्ट होने के कारण 'लोकसत्ता' के संपादक माधव गडकरी से लेकर अनेक संपादकों से उनका करीबी संबंध रहा. उस वक्त फोटोग्राफी के शौकीन उद्धव से ज्यादा लोग परिचित नहीं थे. शिवसेना के प्रचार-प्रसार के लिए जब 'सामना' का प्रकाशन शुरू किया गया तब उसके प्रबंधन की जिम्मेदारी सुभाष देसाई के साथ-साथ उद्धव को भी सौंपी गई. फिर भी राजनीति के गलियारे में उद्धव की चहल-पहल नाममात्र की थी.
जब राज्य में भाजपा-शिवसेना युति की सरकार नब्बे के दशक में बनी तब लाखों युवकों को रोजगार देने की योजनाओं का प्रचार करने के लिए मशहूर पॉप गायक माइकल जैक्सन की संगीत-संध्या का आयोजन हो या सुश्री लता मंगेशकर की संगीत-संध्या, दोनों ही आयोजनों में उद्धव ने पर्दे के पीछे रहकर खामोशी से काम किया. शिवसेना नेता तथा तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर जोशी से उद्धव के सौहार्द्रपूर्ण संबंध थे. उस वक्त शिवसेना में निर्णय लेने की कमान राज ठाकरे, स्मिता ठाकरे और नारायण राणे के हाथ में थी. उसी दौरान उद्धव ने सक्रियता बढ़ानी शुरू कर दी और अपने पिता के साथ 'मातोश्री' में आकर रहने लगे.
मनोहर जोशी को मुख्यमंत्री पद से किनारे करने में भी उनकी भूमिका संभवत: रही. 'मातोश्री' आने के बाद उन्होंने जो राजनीतिक कौशल का परिचय दिया, उससे वह अपने पिता के उत्तराधिकारी बने और अब मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए हैं. किणी हत्या प्रकरण में नाम सामने आने पर राज ठाकरे की पकड़ शिवसेना पर कमजोर होती चली गई. तब उद्धव ने मौके का फायदा उठाकर शिवसेना के संगठनात्मक मामलों में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी. 'मातोश्री' में स्मिता ठाकरे का भी महत्व कम हो गया.
सन् 1999 में शिवसेना के विरोध दरकिनार कर सत्ता में उसकी भागीदार भाजपा ने विधानसभा चुनाव करवाकर दम लिया. उस चुनाव के बाद भाजपा के नेता गोपीनाथ मुंडे ने अपनी पार्टी का शिवसेना को समर्थन घोषित करने वाला पत्र नहीं सौंपा. इससे उद्धव को भाजपा को समझने का मौका मिला. आज जो भाजपा के विरोध में उनका जो रवैया नजर आ रहा है, उसके बीज उसी वक्त पड़ गए थे. महाबलेश्वर में आयोजित शिवसेना के शिविर में बालासाहब ने राज ठाकरे से उद्धव को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव पेश करवाया.
शिवसेना छोड़ने के बाद राज ने कहा था कि वह प्रस्ताव पेश कर उन्होंने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली थी. शिवसेना की कमान हाथ में लेने के बाद उद्धव ने गंभीरता से शिवसेना भवन में पार्टी की बैठकें आयोजित करना शुरू कर दिया. विभिन्न पदों पर उन्होंने अपने भरोसेमंद नेताओं को नियुक्त किया. सुभाष देसाई, अनिल देसाई, नीलम गोर्हे जैसे नेताओं को महत्व मिलने लगा और दगड़ू सकपाल, नारायण राणे, शिशिर शिंदे, बाला नांदगावकर जैसे आक्रामक नेता हाशिये पर जाने लगे. किणी प्रकरण से उभरने के बाद राज की तरफ नासिक, पुणे शहरों की जिम्मेदारी आ गई. लेकिन, इन शहरों के शिवसेना पदाधिकारियों की बैठकें उद्धव लेने लगे. इससे राज नाराज हो गए. उसी दौरान मुख्यमंत्री पद की चाह रखने वाले नारायण राणे के भाजपा-शिवसेना युति सरकार को गिराने की साजिश उद्धव ने विफल कर दी.
नारायण राणे के विद्रोह कर पार्टी से अलग हो जाने के कारण उद्धव का काम आसान हो गया. मुंबई में मराठी भाषियों के बीच शिवसेना की जड़ें फैलाने के उद्देश्य से उद्धव ने 'मी मराठी' (मैं मराठी) अभियान शुरू किया. उन्होंने पार्टी को मराठी हितों की पुरोधा के रूप में प्रोजेक्ट किया. इससे राज ठाकरे नाराज हो गए और 2006 में उन्होंने शिवसेना छोड़कर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) बना ली. इससे शिवसेना की कमान पूरी तहर उद्धव के हाथ में आ गई. उधर, भाजपा के नेता यह कहने लगे थे कि शिवसेना कमजोर हो रही है और बालासाहब के बाद वह टिकेगी नहीं. मीडिया में भी इसी तरह की खबरें आने लगी थी.
उद्धव हालांकि मीडिया से दूर रहते थे और फोन पर भी कम ही उपलब्ध होते थे, फिर भी वह इस बात को समझ रहे थे कि उन पर अन्याय हो रहा है. राणे के शिवसेना छोड़ने के बाद विदर्भ में चिमूर विधानसभा सीट के उपचुनाव को लेकर भाजपा के तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष नितिन गडकरी और उद्धव के बीच जमकर टकराव हुआ. गडकरी उस वक्त बालासाहब के प्रिय प्रात्र थे. इस टकराव के बाद गोपीनाथ मुंडे और गडकरी के फोन 'मातोश्री' में कई बार उठाए नहीं गए.
2009 के विधानसभा चुनाव में राज ठाकरे की मनसे ने शिवसेना को जोरदार झटका दिया. इससे भाजपा के नेताओं में खुशी की लहर दौड़ गई थी. इसके बाद लगा कि राज ठाकरे ही बालासाहब के असली वारिस हो सकते हैं. गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात में राज ठाकरे के लिए रेड कॉरपेट बिछा दिया था. दूसरी ओर उद्धव तथा भाजपा के नेताओं के बीच दूरियां बढ़ती जा रही थीं और बालासाहब थकने लगे थे. अपनी सभाओं में जनता से वह उद्धव और आदित्य को संभाल लेने की अपील करते थे. उसी दौर में भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी का उदय हुआ.
मोदी के करिश्मे और अमित शाह के संगठन कौशल ने राजनीति के बड़े-बड़े दिग्गजों को धूल चटा दी. अब बारी शिवसेना की थी. भाजपा नेताओं को लगा कि बालासाहब के चले जाने के कारण शिवसेना को खत्म करना आसान हो जाएगा. भाजपा के इसी नजरिए के कारण उद्धव ने 2014 के चुनाव में विधानसभा में शिवसेना को 151 सीटें दिलवाने का लक्ष्य रखा और भाजपा के आगे न झुकने का संकल्प किया. इसके कारण भाजपा से शिवसेना की युति टूट गई. उद्धव ने महसूस किया तो शिवसेना को भाजपा खत्म करना चाहती है. उन्होंने पूरे राज्य में शिवसेना की कमान संभाली.
इसके अच्छे नतीजे निकले और शिवसेना की झोली में 63 सीटें आ गईं. इससे उद्धव का आत्मविश्वास दोगुना हो गया. 2019 के चुनाव के बाद उन्होंने राज्य में मुख्यमंत्री पद शिवसेना को दिलवाने का संकल्प किया और अपने इरादे में सफल हो गए. हमने बचपन में खरगोश और कछुए की दौड़ की कहानी सुनी है. महाराष्ट्र की राजनीति में आज उद्धव सत्ता की दौड़ जीतने वाले कछुआ साबित हुए हैं.