कोरोना संकट के बीच महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे सरकार पर खतरा, राज्यपाल के पाले में है गेंद
By निखिल वर्मा | Updated: April 23, 2020 11:48 IST2020-04-23T11:47:47+5:302020-04-23T11:48:10+5:30
संविधान के अनुसार कोई मंत्री या मुख्यमंत्री विधानसभा या विधान परिषद का सदस्य नहीं है तो उसे पद की शपथ लेने के छह माह की भीतर दोनों में से किसी का भी सदस्य निर्वाचित होना होता है अन्यथा उसे पद से इस्तीफा देना होता है.

लोकमत फाइल फोटो
कोरोना वायरस संकट के बीच महाराष्ट्र सरकार संवैधानिक संकट से जूझ रही है। पिछले साल 28 नवंबर को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले उद्धव ठाकरे को 28 मई तक विधानसभा या विधान परिषद में से किसी एक का सदस्य उन्हें बनना होगा। चुनाव आयोग ने पहले ही राज्यसभा चुनाव, उपचुनाव और निकाय चुनाव को महामारी के मद्देनजर स्थगित कर दिया है। महाराष्ट्र के मंत्रिमंडल ने नौ अप्रैल को सिफारिश की कि विधान परिषद में राज्यपाल की ओर से मनोनीत सदस्यों में ठाकरे को शामिल किया जाए।
संविधान के अनुच्छेद 164(चार) में कहा गया है कि लगातार छह महीने तक मंत्री अगर किसी सदन के सदस्य नहीं रहते हैं तो उन्हें अवधि खत्म होने पर मंत्री पद छोड़ना होता है। विधायकों के कोटा से विधान परिषद की नौ सीटें 24 अप्रैल से रिक्त है और ठाकरे द्विवार्षिक चुनाव के दौरान एक सीट पर विधान पार्षद चुने जाने वाले थे। कोरोना वायरस के संक्रमण और राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के कारण चुनाव आयोग ने चुनाव स्थगित कर दिया था।
इसके बाद महाराष्ट्र कैबिनेट ने राज्यपाल के कोटे से मुख्यमंत्री को विधान परिषद सदस्य बनाने का आग्रह किया है। वर्तमान में ठाकरे किसी भी सदन के सदस्य नहीं हैं। पिछले साल अक्टूबर में विधानसभा चुनाव से पहले विधान पार्षद राहुल नार्वेकर और राम वडकुटे के एनसीपी छोड़कर भाजपा में शामिल होने के बाद विधान परिषद में राज्यपाल के कोटे से दो सीटें खाली हैं। इन दोनों रिक्त सीटों का कार्यकाल मध्य जून तक है ।
इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के अनुसार, राज्यपाल के कोटे एक कानूनी पेंच है। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 151 ए के अनुसार, चुनाव या नामांकन तब नहीं किया जा सकता है जब रिक्त पद के संबंध में किसी सदस्य का शेष कार्यकाल एक वर्ष से कम हो। महाराष्ट्र विधान परिषद में कुल 78 सीटें हैं जिसमें राज्यपाल 12 लोगों को मनोनीत करते हैं। सूत्रों के अनुसार, एनसीपी ने इन पदों के लिए साल के शुरू में दो नामों की अनुशंसा की थी लेकिन राज्यपाल ने उन्हें यह कहकर खारिज कर दिया था कि इन दोनों सीटों का कार्यकाल जून में खत्म हो रहा है अत: तत्काल नियुक्ति की कोई जरूरत नहीं है।
इस मुद्दे पर शिवसेना नेता संजय राउत ने सवाल उठाया है किराज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को राज्यपाल कोटा से विधान परिषद के लिए मनोनीत करने की राज्य मंत्रिमंडल की सिफारिश को मंजूरी देने से कौन रोक रहा है । राउत ने कहा कि भाजपा से कोश्यारी का जुड़ाव कोई छिपी हुई बात नहीं है लेकिन यह वक्त राजनीति करने का नहीं है। उन्होंने कहा कि 27 मई के बाद न तो दिल्ली और न ही महाराष्ट्र का राजभवन कोई भी ठाकरे को मुख्यमंत्री बना रहने से रोक नहीं सकता।
वहीं राजनीतिक संकट पर बीजेपी महाराष्ट्र अध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल ने कहा कि वह राज्य के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को विधान परिषद सदस्य के तौर पर मनोनीत करने के खिलाफ नहीं हैं लेकिन उन्हें विधानपरिषद का सदस्य बनने के लिए पहले चुनाव लड़ना चाहिए था। पाटिल ने यह भी कहा कि कोरोना वायरस संकट में ठाकरे को विधान परिषद सदस्य नियुक्त करने के लिए राज्य के राज्यपाल पर ‘‘दबाव’’ बनाना अच्छा नहीं दिखता।
संविधान के अनुच्छेद 171 के तहत राज्यपाल विशेष ज्ञान या साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारी आंदोलन या समाज सेवा में व्यवहारिक अनुभव रखने वाले को सदन के सदस्य के तौर पर नामित कर सकते हैं। महाराष्ट्र में राज्यपाल के कोटे से अभी दो सीटें खाली है।
पहले भी ऐसी राजनीतिक परिस्थितियां उत्पन्न हो चुकी है। 1995 में पंजाब में कांग्रेस नेता तेज प्रकाश सिंह को विधानसभा सदस्य नहीं होने के बावजूद मंत्री बनाया था। सितंबर 1995 में नियुक्त हुए मंत्री तेज प्रकाश सिंह को मार्च 1996 में इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन उसी विधानसभा के कार्यकाल के दौरान उन्हें फिर से मंत्री नियुक्त किया गया।
जब नियुक्ति को चुनौती दी गई थी, तो पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने याचिका खारिज कर दी थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तेज प्रकाश सिंह की दूसरी नियुक्ति "इस बीच चुने गए बिना अनुचित, अलोकतांत्रिक, अमान्य और असंवैधानिक थी। हालांकि, इस निर्णय से कुछ नहीं हुआ क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा कार्यकाल के खत्म होने के बाद 2001 में फैसला सुनाया था।
दिवंगत नेत्री जे जयललिता ने 2001 में कानूनी परेशानियों के कारण एक विशाल जनादेश बावजूद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था। उन्हें भ्रष्टाचार के मामलों में दोषी ठहराया गया था और चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं थी, लेकिन जयललिता पार्टी की नेता चुनी गईं और सीएम बनीं। छह महीने के अंदर ही सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि जयललिता की नियुक्ति असंवैधानिक थी। जयललिता ने पांच महीने के लिए ओ पन्नीरसेल्वम को सीएम नियुक्त करते हुए इस्तीफा दे दिया। हालांकि, मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा उन्हें बरी किए जाने के बाद, उन्होंने 2002 में उपचुनाव लड़कर जीत हासिल की और सीएम के रूप में वापस लौटीं।