21 सितंबर 1926 को पंजाब के छोटे शहर कसूर में अल्लाह राखी वसाई का जन्म हुआ था। पंजाबी मुस्लिम घर में पैदा हुईं अल्लाह वसाई ग्यारह भाई-बहन थीं। लेकिन अपनी बहनों में सबसे छोटी थीं। जब वो पैदा हुई तो उनकी रोने की आवाज़ सुनकर उनकी बुआ ने कहा था कि 'इसके रोने में भी संगीत की लय है'। बाद में अल्लाह वसाई, नूरजहां के नाम से मशहूर हुईं। गायकी ऐसी की लता मंगेशकर भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकीं। ना सिर्फ गायकी बल्कि खूबसूरती में भी उनकी सानी नहीं थी। लगता था कि जैसे चेहरे से नूर टपकता हो। कहते हैं कि जब लाहौर में वो गाड़ी से गुजरती थीं तो राह चलते सभी की निगाहें उनपर टिक जाती थीं। जब भी असरदार, यादगार आवाज़ या सिंगर्स का जिक्र होगा तो अल्लाह वसाई का नाम याद आएगा। 23 दिसंबर 2000 में दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई थी।
घर में संगीत को लेकर माहौल था
नूरजहां के पिता मदद अली और मां फतेह बीबी थियेटर में काम करते थे और उनदोनों की संगीत में रुचि थी। शायद यहीं से नूरजहां की संगीत में दिलचस्पी जगी। उनकी मां ने संगीत के प्रति उनकी बढ़ते दिलचस्पी को देखते हुए घर पर संगीत सीखने की व्यवस्था कर दी। पांच साल की उम्र में उन्होंने संगीत की ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी थी। संगीत की शुरुआती तालीम कज्जनबाई से, शास्त्रीय संगीत की शिक्षा उस्ताद गुलाम मोहम्मद और उस्ताद बड़े गुलाम अली खां से मिली थी। 1930 में नूरजहां का पूरा परिवार पंजाब से कलकत्ता चल गया क्योंकि उस समय कलकत्ता थियेटर का गढ़ हुआ करता था। कलकत्ता पहुंचकर नूरजहां और उनकी बहनें को नृत्य और गायिकी के मौका मिलने लगे।
बाल कलाकार से अभिनेत्री तक का सफर
मात्र छह साल की उम्र में नूरजहां ने थियेटर मालिक दीवान सरदारी लाल के शो में परफार्म किया था। 11 मूक फिल्मों में काम किया। 1931 तक नूरजहां ने बतौर बाल कलाकार अपनी पहचान बना ली थी। उनकी गायकी से प्रभावित होकर संगीतकार गुलाम हैदर ने उन्हें के.डी. मेहरा की पहली पंजाबी फिल्म 'शीला' उर्फ 'पिंड दी कुडी' में उन्हें बाल कलाकार एक छोटी भूमिका दिलाई। साल 1935 जब ये फिल्म रिलीज हुई तो पूरे पंजाब में हिट रही। इस फिल्म में उन्हें एक्टिंग के साथ गाने भी गाए थे, जो कि काफी हिट रहे। उसके बाद से उन्होंने कई फिल्मों में काम किया। 'ससुराल', 'उम्मीद'(1941), 'चांदनी', 'फरियाद' (1942), और 1943 में आई 'दुहाई' में एक्टिंग के साथ गाने भी गाए। साल 1942 में फिल्म 'खानदान' रिलीज हुई, जिससे उन्हें बेशुमार सफलता हासिल हुई। ये उनकी पहली हिंदी फिल्म थी, इस फिल्म ने उन्हें इंडस्ट्री में बतौर अभिनेत्री स्थापित किया। नूरजहां के साथ इस फिल्म प्राण बतौर हीरो दिखें थे। 1945 में नूरजहां ने फिल्म 'बड़ी मां' में लता मंगेशकर और आशा भोंसले के साथ काम किया था।
जब भारत में रहने की पेशकश को ठुकराया
1947 में देश के बंटवारे के बाद वो अपने शौहर शौक़त हुसैन रिज़वी साहब के पाकिस्तान चली गईं। कहते हैं जब नूरजहां ने पाकिस्तान जाने का फैसला लिया, तब अभिनेता दिलीप कुमार ने उनसे भारत में रहने की पेशकश की। जिसे नूरजहां ने ये कहकर ठुकरा दिया कि 'मैं जहां पैदा हुई हूं वहीं जाऊंगी'।
कव्वाली गाने वाली पहिला महिला बनीं
पाकिस्तान जाने के बाद भी उन्होंने अपना फिल्मी जीवन जारी रखा। वहां जाने के बाद उन्होंने 'शाहनूर' स्टूडियो की नींव रखी। 'चैनवे', 'दुपट्टा', 'मिर्जा गालिब', 'कोयल', 'परदेसियां', 'अनारकली', 'इंतेजार' जैसी फिल्मों से दर्शकों का मनोरंजन किया। साथ ही गायिकी जरिए पाकिस्तान और हिंदुस्तान दोनों जगह लोगों का दिल जीती रहीं। नूरजहां पाकिस्तान की पहली महिला निर्माता, गायिका, अभिनेत्री और म्यूजिक कंपजोर रहीं। हिंदी, उर्दू, पंजाबी, सिंधी भाषाओं में कुल दस हजार से ज्यादा गाने गाए हैं। 1945 में उनकी आवाज में फिल्म 'जीनत' के लिए 'आहें न भरे, शिकवे न किए' कव्वाली रिकॉर्ड की गई। इस कव्वाली के साथ ही वो दक्षिण एशिया की पहली महिला बन गईं, जिसकी आवाज में कव्वाली रिकॉर्ड की गई।
जब 35 साल बाद हिंदुस्तान में रखा कदम
साल 1982 की फरवरी में इंडिया टॉकी के गोल्डन जुबली समारोह के लिए वो भारत आईं। इस कार्यक्रम में लता मंगेशकर भी थीं। यहां लोगों की फरमाइश पर उन्होंने 'आवाज़ दे कहां है दुनिया मेरी जवां' गाना गाया। भारत आने के ठीक दस साल बाद 1992 में उन्होंने संगीत की दुनिया को अलविदा कह दिया। फिल्म की दुनिया को तो उन्होंने 1963 में अलविदा कह दिया था।