ब्लॉग: विश्व मंच पर चीन का पंचशील राग क्यों ?

By राजेश बादल | Updated: July 3, 2024 10:37 IST2024-07-03T10:32:47+5:302024-07-03T10:37:38+5:30

पंचशील पर लौटने के पीछे चीनी मंशा वैश्विक मंच पर हो रहे ध्रुवीकरण में अपनी चौधराहट साबित करने की भी हो सकती है। चीन के सुर बदलने के पीछे की मंशा क्या है, इसकी पड़ताल आवश्यक है, क्योंकि शी जिनपिंग वही हैं जो भारत को हालिया वर्षों में अनेक बार धमका चुके हैं।

Why China's Panchsheel Raga on the world stage | ब्लॉग: विश्व मंच पर चीन का पंचशील राग क्यों ?

फाइल फोटो

Highlightsचीन के सुर बदल रहे हैंसुर बदलने का रहस्य अभी पर्दे में है70 साल बाद उसे अचानक पंचशील की याद आई

चीन के सुर बदल रहे हैं। सुर बदलने का रहस्य अभी पर्दे में है। 70 साल बाद उसे अचानक पंचशील की याद आई। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भारत-चीन-म्यांमार के बीच पंचशील समझौते की सत्तरवीं सालगिरह पर आयोजित एक कार्यक्रम में फरमाया कि इन वर्षों में बार-बार साबित हुआ है कि पंचशील सिद्धांत शांति और विकास के लिए सबकी जरूरत बन गए हैं। आश्चर्य है कि पंचशील की नींव डालने वाले जवाहरलाल नेहरू का चीन ने कोई जिक्र ही नहीं किया।

चीन का दावा है कि भारत को भी इसमें बुलाया गया था, लेकिन वहां से कोई नहीं आया। आपको याद होगा कि भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई जब सीमा विवाद नहीं सुलझा सके तो उन्होंने 1954 में पांच सिद्धांतों पर आपसी सहमति बनाई थी। चीन और म्यांमार के बीच भी ऐसी ही सहमति बनी थी। यह सिद्धांत थे, एक-दूसरे की संप्रभुता और अखंडता का सम्मान करना, एक-दूसरे के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना, एक-दूसरे के प्रति आक्रामक कार्रवाई नहीं होना, समानता और परस्पर लाभ की नीति का पालन और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व पर अमल करना।

पंचशील के इन सिद्धांतों को बाद में गुटनिरपेक्ष देशों ने भी अपना सूत्र वाक्य माना। नेहरू के पांच सिद्धांतों वाले शील पर पक्की मुहर लग गई। इस बीच कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पंचशील को लोकप्रियता मिली और अरसे तक समूची दुनिया में ठीक-ठाक सी शांति बनी रही। हिंदुस्तान और चीन के बीच यह समझौता आठ साल के लिए हुआ था। यानी 1962 तक अनुबंध चलता रहा। जैसे ही समझौते की उमर पूरी हुई, चीन ने भारत पर हमला कर दिया। शायद वह इंतजार ही कर रहा था कि करार खत्म हो और वह पंचशील की धज्जियां उड़ा दे। लेकिन हकीकत तो यह है कि 1959 आते-आते चीन के सुर बदलने लगे थे। उसने समझौते को एकतरफा चुपचाप तोड़ना शुरू कर दिया था। वह 1959 से 1962 के बीच सीमा पर सड़कें बनाता रहा। अक्साई चिन में तो उसने 1957 में ही सड़क बना ली थी। यानी उसकी नीयत में खोट था। भारत उसे नहीं पढ़ सका था।

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार संपादक राजेंद्र माथुर ने लिखा था कि पंचशील समझौते के चार-पांच साल बाद से ही भारत के प्रति चीन का रवैया सख्त और बदनीयत वाला होता गया। तिब्बत में बगावत के बाद उसने भारत को जो चिट्ठियां लिखीं, वे इतनी जहरीली और घमंड भरी थीं कि दोस्त तो क्या, दुश्मन देश भी एक-दूसरे को ऐसी चिट्ठियां नहीं लिखा करते। शायद तिब्बत में बगावत के बाद चीन ने तय कर लिया था कि वह अब हिंदुस्तान को चैन से नहीं बैठने देगा। उसी समय जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि चीन ने भारत की दोस्ती की कद्र नहीं की। वह शीत युद्ध की भाषा का उपयोग कर रहा है, जो हजारों साल की संस्कृति वाले देश को शोभा नहीं देता। उसने आरोप लगाया कि भारत ने दलाई लामा को नजरबंद कर रखा है और तिब्बत में वह अंग्रेजों की प्रसारवादी नीति पर अमल कर रहा है। कलिम्पोंग को अड्डा बनाकर उसने विद्रोह भड़काया है। एक बड़े देश की ताकत का घमंड चीन में आ गया है। तब से लेकर आज तक चीन का यही रवैया चला आ रहा है।
 
चीन के सुर बदलने के पीछे की मंशा क्या है, इसकी पड़ताल आवश्यक है, क्योंकि शी जिनपिंग वही हैं जो भारत को हालिया वर्षों में अनेक बार धमका चुके हैं। भारत यात्रा में वे चुप रहते हैं, लेकिन यहां से नेपाल पहुंचते ही चीनी संप्रभुता पर कुचल कर रख देने की चेतावनी दे डालते हैं। उनका गुस्सा ताइवान और तिब्बत पर भारत की नीति के बारे में था। शी जिनपिंग आखिरी सांस तक चीन के चक्रवर्ती बने रहना चाहते हैं। वहां वे क्रूर तानाशाह की तरह बर्ताव करते हैं, आलोचकों को कुचलते हैं, छोटे देशों की संप्रभुता का ख्याल नहीं रखते और उन्हें ऋण जाल में उलझाते हैं।

अपने इस चरित्र को लेकर कुख्यात शी जिनपिंग अचानक जब विश्व मंच पर शांति और पंचशील की बातें करने लगते हैं, तो ताज्जुब होता है। वे नेहरू को याद नहीं करते लेकिन उनका पंचशील-गीत गाते हैं। उसी पंचशील की, जिसकी उनका देश 1962 में खिल्ली उड़ा चुका है। उसी पंचशील का भारत के पड़ोसियों ने भरपूर समर्थन किया था। पर जब चीन ने आक्रमण किया तो उन्हें भी चोट लगी थी। इसलिए 2024 में जब चीन इसी पंचशील के आधार पर नेपाल, श्रीलंका, भूटान, म्यांमार और बांग्लादेश का समर्थन जुटाने की कवायद करता है तो हिंदुस्तान के लिए उसका रुख रहस्यमय हो जाता है।

पंचशील पर लौटने के पीछे चीनी मंशा वैश्विक मंच पर हो रहे ध्रुवीकरण में अपनी चौधराहट साबित करने की भी हो सकती है। अभी तक उसका चेहरा एक कुटिल, चालबाज और धूर्तता का रहा है, जो छोटे देशों को कर्ज या उनके नेताओं को घूस देकर जाल में फांसता है। लेकिन अब वह इस चेहरे पर एक और शांति का मुखौटा लगाना चाहता है। यह मुखौटा लगाने से अगर पश्चिम और यूरोप के देशों से मुकाबले के लिए एशियाई और अफ्रीकी मुल्क उसके झंडे तले एकत्रित होते हैं तो उसका मुखौटा लगाना सार्थक हो जाता है।

इसके अलावा यह मुखौटा रूस और भारत के लिए एक कूटनीतिक संदेश देने का प्रयास कर रहा है। रूस के राष्ट्रपति पुतिन चीन जाते हैं, उत्तर कोरिया जाते हैं। शी जिनपिंग यूरोप जाते हैं। यह अलग बात है कि यूरोपीय राष्ट्रों ने अनमने भाव से उनको महत्व दिया। फिर भी रूस-यूक्रेन जंग और शेष विश्व की आंतरिक परिस्थितियों के चलते एक अलग ढंग से ध्रुवीकरण के संकेत तो मिल ही रहे हैं। भारत को अब उसके नए पैंतरे से सतर्क रहना होगा।

Web Title: Why China's Panchsheel Raga on the world stage

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