US Election Results 2024: भीषण बाढ़, बारिश, तेज ठंड और गर्मी से जूझ रही दुनिया?, जलवायु सम्मेलन पर ट्रम्प के निर्वाचन की छाया
By प्रमोद भार्गव | Updated: November 15, 2024 05:37 IST2024-11-15T05:37:19+5:302024-11-15T05:37:19+5:30
US Election Results 2024: जलवायु परिवर्तन की समस्याओं से निपटने की दृष्टि से अपने पहले कार्यकाल में हाथ खींच चुके हैं.

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US Election Results 2024: दुनिया जलवायु परिवर्तन के चलते आज भीषण बाढ़, बारिश, तेज ठंड एवं गर्मी से जूझ रही है. जलवायु परिवर्तन की इन चुनौतियों का सामना अब लगभग प्रत्येक देश कर रहा है. बावजूद दो सप्ताह तक चलने वाले जलवायु सम्मेलन की शुरुआत में ऐसा नहीं लग रहा कि इसके समाधान के लिए विकसित देश गंभीर हैं. यह आशंका इसलिए और बढ़ गई है, क्योंकि अब अमेरिका की सत्ता उन डोनाल्ड ट्रम्प के पास होगी, जो जलवायु परिवर्तन की समस्याओं से निपटने की दृष्टि से अपने पहले कार्यकाल में हाथ खींच चुके हैं.
इसी का परिणाम है कि अजरबैजान के बाकू शहर में चल रहे सम्मेलन में देखा जा रहा है कि दुनिया के प्रमुख देश अपने वादे से मुकरते लग रहे हैं. ये वही पूंजीपति विकसित देश हैं, जो विकासशील और छोटे देशों को जीवाश्म ईंधन पर अंकुश लगाने के लिए आर्थिक सहायता की प्रतिबद्धता जता चुके हैं. बाकू में यह सम्मेलन इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि यहां दुनिया का पहला तेल का कुआं खोदा गया था.
संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय में 2015 में हुए ऐतिहासिक ‘पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते को बड़ा झटका लगा था. इस समझौते पर भारत समेत 175 देशों ने हस्ताक्षर किए थे. लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए इस समझौते को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अपनी आत्मकेंद्रित दृष्टि के चलते खारिज कर दिया था.
तब ये आशंकाएं उठी थीं कि वैश्विक समस्याओं पर आगे कोई सहमति क्या बन पाएगी? अमेरिका का इस वैश्विक करार से बाहर आना दुनिया के सुखद भविष्य के लिए बेहतर संकेत नहीं था, क्योंकि अमेरिका सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले देशों में से है. 2020 में ट्रम्प के सत्ता से बाहर हो जाने के बाद यह उम्मीद फिर से जग गई थी कि जलवायु सुधार की दिशा में दुनिया आगे बढ़ेगी.
परंतु 2024 में डोनाल्ड ट्रम्प फिर से राष्ट्रपति पद का चुनाव जीत गए हैं. अतएव एक बार फिर यही आशंका जताई जाने लगी है कि काॅप-29 का किसी ठोस नतीजे पर पहुंचना मुश्किल है. अपने औद्योगिक हितों की चिंता और चुनावी वादे की सनक पूर्ति के लिए ट्रम्प ने यह पहल की थी. दरअसल ट्रम्प अमेरिकी कंजरवेटिव पार्टी के उस धड़े से सहमत थे, जो मानता था कि जलवायु परिवर्तन और बढ़ता वैश्विक तापमान एक थोथी आशंका है. इसीलिए कंजरवेटिव पार्टी के लोग कार्बन उत्सर्जन में कटौती से अमेरिका के औद्योगिक हित प्रभावित होने की पैरवी करते रहे हैं.
देश की जीडीपी दर और आर्थिक संपन्न्ता घटने की बात भी कहते रहे हैं. इस गुट की इन्हीं धारणाओं के चलते ट्रम्प ने चुनाव में ‘अमेरिका प्रथम’ और ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का नारा दिया था. 2024 में चुनाव जीतने के बाद एक बार फिर ट्रम्प अमेरिका प्रथम का नारा लगाकर अपने हित संरक्षण की पहल कर चुके हैं.
जबकि आर्थिक रूप से मजबूत देश होने के कारण अमेरिका को समूची धरती को बचाने के प्रयास में अहम भूमिका निभाने की जरूरत है. इटली में दुनिया के सबसे धनी देशों के समूह जी-7 की शिखर बैठक में भी पेरिस संधि के प्रति वचनबद्धता दोहराने के संकल्प पर ट्रम्प ने हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया था.
इसके बाद ट्रम्प ने व्हाइट हाउस के रोज गार्डन में भाषण देकर अपना मत तो साफ किया ही, साथ ही भारत और चीन पर आरोप लगाया था कि इन दोनों देशों ने विकसित देशों से अरबों डॉलर की मदद लेने की शर्त पर समझौते पर दस्तखत किए हैं, लिहाजा यह समझौता अमेरिका के आर्थिक हितों को प्रभावित करने वाला है.
यही नहीं, ट्रम्प ने आगे कहा था कि ‘भारत ने 2020 तक अपना कोयला उत्पादन दोगुना करने की अनुमति भी ले ली है. वहीं चीन ने कोयले से चलने वाले सैकड़ों बिजलीघर चालू करने की शर्त पर दस्तखत किए हैं. साफ है यह समझौता अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचाने वाला है. वैसे भी मैं पिट्सबर्ग के नागरिकों का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया हूं न कि पेरिस संधि के प्रतिनिधित्व के लिए, इसलिए मैं हर उस समझौते को तोड़ दूंगा, जिसमें अमेरिकी हितों का ध्यान नहीं रखा गया है.’ ट्रम्प ने यहां तक कहा था कि संयुक्त राष्ट्र की ‘हरित जलवायु निधि’ अमेरिका से धन हथियाने की साजिश है.
तभी ट्रम्प की इस सोच ने तय कर दिया था कि अमेरिका अब वैश्विक समस्याओं के प्रति उदार रुख नहीं अपनाएगा. अतएव यह आशंका बढ़ गई है कि ट्रम्प वैश्विक समस्याओं के निदान के प्रति उदार दिखाई नहीं देंगे. पिट्सबर्ग के इस इकोनॉमिक फोरम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने निवेशकों के साथ बैठक में हिस्सा लेते हुए ट्रम्प को करारा जवाब दिया था, ‘भारत प्राचीनकाल से ही पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी निभाता चला आ रहा है. हमारे 5000 साल पुराने शास्त्र पर्यावरण संरक्षण के प्रति सजग रहे हैं. अथर्ववेद तो प्रकृति को समर्पित है. हम प्रकृति के दोहन को अपराध मानते हैं.
हम 40 करोड़ एलईडी बल्ब घर-घर पहुंचाकर हजारों मेगावाॅट बिजली बचाकर कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने में लगे हैं.’ यहां यह स्पष्ट करना मुनासिब होगा कि पेरिस समझौते के बाद 2015 में भारत को हरित जलवायु निधि से कुल 19000 करोड़ रुपए की मदद मिली, जिसमें अमेरिका का हिस्सा महज 600 करोड़ रुपए था.
ऐसे में ट्रम्प का यह दावा नितांत खोखला था कि भारत को इस निधि से अमेरिका के जरिए बड़ी मदद मिल रही है. साफ है, यदि ट्रम्प अपना पुराना अड़ियल रवैया अपनाते हैं तो विकासशील देश वित्तीय संसाधनों के अभाव में कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने में कोई उल्लेखनीय पहल नहीं कर पाएंगे.
वैश्विक वचनबद्धता के बावजूद विकसित देशों का कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए दिया योगदान जरूरत से कहीं बहुत कम है. 2022 में यह योगदान 115.9 अरब डाॅलर था, जो बहुत कम माना गया, क्योंकि दुनिया को जलवायु परिवर्तन से जुड़े लक्ष्य हासिल करने हैं तो प्रतिवर्ष 2030 तक एक लाख करोड़ धनराशि के योगदान की जरूरत पड़ेगी. वैसे भी इस समय अनेक विकासशील देश पूंजीपति देशों के कर्ज में फंसे हैं. चीन ने जिन देशों को कर्ज दिया है, उनका तो बुरा हाल है.