रहीस सिंह का ब्लॉग: यूक्रेन सिर्फ मैदान, युद्ध दो महाशक्तियों के बीच
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: March 5, 2022 10:34 IST2022-03-05T10:32:21+5:302022-03-05T10:34:19+5:30
क्या वास्तव में नाटो ने किसी लोकतंत्र की स्थापना के लिए लड़ाई लड़ी? नहीं, उसने तो लोकतंत्र और मानवता के लिए युद्ध नाम पर बड़े-बड़े अपराध किए हैं। ऐसे बहुतेरे उदाहरण हैं जो अमेरिकी नेतृत्व में नाटो कार्रवाइयों का विकृत चित्र पेश करते हैं।

रहीस सिंह का ब्लॉग: यूक्रेन सिर्फ मैदान, युद्ध दो महाशक्तियों के बीच
रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध अभी जारी है। यह युद्ध संभावनाओं से परे नहीं है। यह हो सकता है कि समय की मांग न हो। दूसरी बात यह कि युद्ध कैसा भी हो, त्रसद होता है। इसलिए युद्ध के परिणामों के साथ-साथ उसके कारणों को जानना भी जरूरी होता है, ताकि ऐसी पुनरावृत्ति न हो। लेकिन क्या दुनिया के ये देश अथवा उनका नेतृत्व कारणों से वाकिफ नहीं हैं? स्पष्टतया हैं। बल्कि यह तो उनके खेल का एक हिस्सा है। इसलिए जब हम रूस-यूक्रेन युद्ध की बात कर रहे हैं तब हमें एकांगिक निष्कर्ष निकालने से पहले कुछ बातों को भी सोचना चाहिए।
पहली यह कि इसे रूस की तरफ से लिया गया एक्शन मानें अथवा रिएक्शन? यदि यह सिर्फ एक्शन है तो फिर रूस पूरी तरह से गलत है लेकिन यदि रिएक्शन है तो फिर कारण जानने जरूरी होंगे। कुछ ऐसे कारण हैं जो लगातार रूस को मुंह ही नहीं चिढ़ा रहे थे बल्कि उसे घेरने की कोशिश का भी हिस्सा थे। इसलिए ऐसा होना संभावित था लेकिन इस आधार पर व्लादीमीर पुतिन के इस कदम को उचित नहीं ठहराया जा सकता। ध्यान रहे कि रूस नाटो को निरंतर आगाह कर रहा था कि वह मॉस्को के करीब न आए। लेकिन क्या ऐसा हुआ? नाटो ने न केवल अपना विस्तार किया बल्कि पूर्व सोवियत राज्यों में कलर रिवोल्यूशन को भी परिणाम तक पहुंचाया।
ऐसा करते-करते वह पुतिन द्वारा खींची गई उस रेड लाइन को भी पार कर गया जहां से रूस के लिए अस्तित्व के लिए चुनौती वाली परिधि आरंभ हो जाती थी। इसके बाद रूस से किसी साधुता की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। यूक्रेन पर हमला इसी का परिणाम है। एक बात और, यदि कोई इस युद्ध को रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध मानकर निष्कर्ष निकालने की कोशिश कर रहा है तो यह पूरी तरह से गलत है। यह युद्ध सीधे तौर पर रूस और अमेरिका के बीच लड़ा जा रहा है।
ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है जब कोई तीसरा देश इन दोनों के लिए खेल का मैदान बना हुआ है बल्कि पहले भी हुआ है। यह अलग बात है कि इस बार कॉमेडियन से नेता बने व्लादीमीर जेलेंस्की इस खेल में फंस गए। इसका खामियाजा यूक्रेनियन भुगत रहे हैं। तमाम पश्चिमी बुद्धिजीवी और पत्रकार रूस और पुतिन को खलनायक का खिताब दे रहे हैं। वे ऐसा कर सकते हैं, क्योंकि पहले भी करते रहे हैं। लेकिन यदि नाटो और अमेरिका को वे इसी नजरिये से देखे होते और उन्हें कठघरे में खड़ा किया होता तो ऐसे हालात कदापि न बनते।
सवाल यह भी है कि उन्होंने कभी ऐसा वैश्विक जनमत बनाने की कोशिश क्यों नहीं की कि शीतयुद्ध के समाप्त होने, सोवियत संघ के विघटित हो जाने और वारसा पैक्ट के खत्म हो जाने के बाद भी नाटो अस्तित्व में क्यों रहा? यही नहीं वे इराक पर अमेरिकी हमले को भी इराकी वार कहकर अमेरिका को सेफगार्ड देते रहे। अफगानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व में नाटो की कार्रवाई को वार इन्ड्यूरिंग फ्रीडम नाम से ग्लोरीफाई करते रहे। पाकिस्तान वैश्विक आतंकवाद का न्यूक्लियस है, ऐसा अमेरिकी एजेंसियां अपनी रिपोर्ट्स के जरिये बताती रहीं पर इस्लामाबाद अमेरिकी पिठ्ठू बना रहा और इनकी कलम ने कुछ भी नहीं उगला।
क्या वास्तव में नाटो ने किसी लोकतंत्र की स्थापना के लिए लड़ाई लड़ी? नहीं, उसने तो लोकतंत्र और मानवता के लिए युद्ध नाम पर बड़े-बड़े अपराध किए हैं। ऐसे बहुतेरे उदाहरण हैं जो अमेरिकी नेतृत्व में नाटो कार्रवाइयों का विकृत चित्र पेश करते हैं। फिर भी नाटो को शांति दूत और सुरक्षा का प्रहरी बनाकर पेश किया जाए, तो अपराध ही कहा जाएगा। पिछले डेढ़ दशक से इसी यूक्रेन में गैर रूसीवाद को प्रश्रय देकर तरह-तरह से लोगों को आंदोलित करने की कोशिशें हुईं जो कि काफी हद तक कामयाब भी हुईं। रूस समर्थक राष्ट्रपति का तख्तापलट भी हुआ। अब इन निरंतर चलने वाले षड्यंत्रों के खिलाफ कोई प्रतिक्रिया तो होनी ही थी, और हुई भी।
तो भारत जैसे देश को अपने नेतृत्व में गुटनिरपेक्ष देशों को एकजुट कर शांति की कोशिशों को तेज करना चाहिए। वैसे भारत का स्टैंड वही है जो होना चाहिए था। भारत दोनों के मध्य में खड़े होकर वार्ता और शांति का प्रयास कर रहा है। यही वजह है कि भारत ने उन प्रस्तावों पर वोट नहीं किया जो अमेरिका द्वारा रूस के खिलाफ सुरक्षा परिषद और संयुक्त राष्ट्र महासभा में लाए गए। भारत ने मानवीय और भू-रणनीतिक हितों को देखते हुए कदम उठाए हैं। यह भी ध्यान रखा गया है कि हम अमेरिका के साथ इंडो-पैसिफिक में एक क्वाड्रिलैटरल (क्वाड) इनिशिएटिव में साझीदार हैं और रूस के साथ भी ब्रिक्स के रूप में।
हम अमेरिका के मेजर स्ट्रैटेजिक पार्टनर हैं तो रूस के परंपरागत रणनीतिक साझीदार। भारत अगर अमेरिका के साथ चार फाउंडेशनल समझौतों और 2 प्लस 2 डिप्लोमेसी के साथ आगे बढ़ रहा है तो 1971 से लेकर एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम डील तक के लंबे सफर में रूस के साथ संवेदनशील रक्षा संबंधों को बनाए रखने में सफल रहा है। इसके साथ ही यह देखते हुए कि चीन के नेतृत्व वाली एशियाई व्यवस्था धीरे-धीरे अपने वास्तविक रूप में आ रही है और यह खतरनाक है, इस दृष्टि से अमेरिका से साङोदारी बेहद जरूरी है। लेकिन रूस और चीन में काफी करीबी तो है, इसमें अवसरवादिता का तत्व अधिक प्रभावी है।
रूस को असली खतरा अमेरिका या पश्चिम से नहीं बल्कि इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते राजनीतिक व आर्थिक प्रभाव से ही है। यह भी संभव है कि भविष्य में अमेरिका अपने अस्तित्व के संकट और वैश्विक हितों को देखते हुए चीन के साथ सामरिक समझ बनाने की कोशिश करे और उस स्थिति में रूस अलग-थलग पड़ जाए। इसलिए भारत और रूस एक दूसरे से कभी भी दूरी नहीं बनाना चाहेंगे।