विजय दर्डा का ब्लॉग: सोना न होता तो भारत बन जाता श्रीलंका

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: May 16, 2022 10:48 AM2022-05-16T10:48:01+5:302022-05-16T10:51:46+5:30

भारत के राजनीतिक नेतृत्व और प्रशासनिक अधिकारियों ने सजगता न दिखाई होती तो हमारी कहानी भी श्रीलंका जैसी हो सकती थी. आज श्रीलंका की जो हालत है, उसके लिए वहां का राजनीतिक नेतृत्व ज्यादा जिम्मेदार है. 

sri lanka economic crisis reserve gold india | विजय दर्डा का ब्लॉग: सोना न होता तो भारत बन जाता श्रीलंका

विजय दर्डा का ब्लॉग: सोना न होता तो भारत बन जाता श्रीलंका

Highlightsतीन दशक पहले भारत जब दिवालिया होने के कगार पर था।हमने 20 टन सोना बेचकर और बाद में तेजी से आर्थिक सुधार करके खुद को बचा लिया था. श्रीलंका पर अभी विदेशी कर्ज का भार 50 अरब डॉलर से ज्यादा का हो गया है.

कहते हैं कि रावण के समय श्रीलंका सोने की थी लेकिन आज श्रीलंका के खजाने में इतना सोना भी नहीं कि उसे बेचकर खुद को दिवालियेपन से बचा ले! ...लेकिन कमाल देखिए कि कोई तीन दशक पहले भारत जब दिवालिया होने के कगार पर था तब हमने 20 टन सोना बेचकर और बाद में तेजी से आर्थिक सुधार करके खुद को बचा लिया था. 

देश की वर्तमान पीढ़ी में से बहुत कम युवा उस दौर की कहानी से वाकिफ होंगे. श्रीलंका के हालात और उसके कारणों की पड़ताल से पहले संक्षेप में जानिए उस हालात के बारे में...!

1990 में गल्फ वार शुरू हुआ और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में आसमान छूने लगीं. 1990-91 में भारत का पेट्रोलियम आयात अचानक 2 अरब डॉलर से बढ़कर 5.7 अरब डॉलर हो गया. 

इस दौरान राजनीतिक अस्थिरता चरम पर थी. 1989 में राजीव गांधी ने गठबंधन सरकार बनाने से कांग्रेस को दूर कर लिया था. विश्वनाथ प्रताप सिंह पीएम बने लेकिन उन्हें भी 1990 में इस्तीफा देना पड़ा. मई 1991 में राजीव गांधी की हत्या कर दी गई. 

हालात इतने खराब हो गए कि अप्रवासी भारतीय अपना पैसा निकालने लगे. यहां तक कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डॉलर से भी कम बचा था. इस पैसे से केवल 20 दिनों के लिए जरूरी आयात का ही भुगतान किया जा सकता था. 

दुनिया के साथ कारोबार के लिए तो पैसा था ही नहीं! तब भारत पर विदेशी कर्ज का आंकड़ा 72 अरब डॉलर पर पहुंच गया था. कर्ज के मामले में भारत से ऊपर दुनिया में केवल दो ही देश थे- ब्राजील और मैक्सिको.

भारत यदि कर्ज का भुगतान न करता तो दिवालिया हो जाता. उस समय चंद्रशेखर प्रधानमंत्री थे. उन्होंने घरेलू राजनीति और आलोचना की परवाह किए बगैर 20 टन सोना बेचकर भारत को भुगतान संकट से उबार लिया था. इस बीच आईएमफ ने 1.27 अरब डॉलर का कर्ज दिया लेकिन हालात सुधरते कैसे? 

खैर, जून 1991 में पी.वी. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने और उन्होंने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के जरिये भारत की अर्थव्यवस्था में काफी बदलाव किए. आयात पर अंकुश लगाया गया, सरकारी खर्चो में भारी कटौती की गई और रुपए में 20 प्रतिशत तक का अवमूल्यन किया गया. बैंकों ने ब्याज दरों में वृद्धि की. इस तरह भारत बच गया!

भारत के राजनीतिक नेतृत्व और प्रशासनिक अधिकारियों ने सजगता न दिखाई होती तो हमारी कहानी भी श्रीलंका जैसी हो सकती थी. आज श्रीलंका की जो हालत है, उसके लिए वहां का राजनीतिक नेतृत्व ज्यादा जिम्मेदार है. 

पिछले महीने तक पूरी सत्ता पर केवल राजपक्षे परिवार का कब्जा था. गोटबाया राजपक्षे राष्ट्रपति हैं. महिंदा राजपक्षे प्रधानमंत्री थे, चमल राजपक्षे सिंचाई मंत्री, बासिल राजपक्षे वित्त मंत्री व नमल राजपक्षे खेल मंत्री थे. इस तरह श्रीलंका के बजट के 75 प्रतिशत हिस्से पर राजपक्षे परिवार का कब्जा था. 

राजपक्षे परिवार ने श्रीलंका को अपनी प्राइवेट कंपनी की तरह चलाया. राजपक्षे परिवार के बच्चे दुनिया की सबसे महंगी और मॉडिफाइड आलीशान गाड़ियों में घूम रहे थे. देश का पैसा उनके लिए उनके बाप का पैसा बन गया था. 

राजपक्षे परिवार ने अपनी चाहत के हिसाब से देश चलाया. न जाने क्यों खेती में फर्टिलाइजर के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया, जिससे पैदावार में तेजी से गिरावट आई. जिस चाय और चावल के निर्यात से श्रीलंका को विदेशी मुद्रा प्राप्त होती थी, उसमें गिरावट आ गई.

श्रीलंका की आमदनी का करीब 20 प्रतिशत हिस्सा पर्यटन से आता है. तमिल समस्या को लेकर उपजे गृह युद्ध के कारण श्रीलंका की माली हालत पहले से ही खराब थी. लेकिन कोविड के कारण वह और बुरी तरह से प्रभावित हुआ. 

इस बीच श्रीलंका अनाप-शनाप कर्ज लेता चला गया. जब चीन के सहयोग से हंबनटोटा पोर्ट की बात ही शुरू हुई थी तब विशेषज्ञों ने कहा था कि श्रीलंका को इसकी कोई जरूरत नहीं है लेकिन चीन की चाल में श्रीलंका फंस गया. 

अब तो कहा यह भी जा रहा है कि चीनी वित्त पोषकों ने क्या इसके लिए राजपक्षे परिवार को लाभ पहुंचाया? पता नहीं इस शंका में कितना तथ्य है लेकिन एक बात तो तय है कि चीन से श्रीलंका ने बेवजह अरबों रुपए का कर्ज लिया. आज हालत क्या है? 

हंबनटोटा पोर्ट 99 साल की लीज पर चीन के पास चला गया है. यहां मैं एक बात जरूर कहना चाहूंगा कि श्रीलंका और पाकिस्तान जैसे देश के हुक्मरान देश को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चलाते हैं. निजी हित में पैसों का दोहन करते हैं लेकिन हमें गर्व है कि हमारे देश में किसी भी पार्टी और किसी भी प्रधानमंत्री ने कभी ऐसा नहीं किया. हमारे यहां देश सर्वोपरि है.

श्रीलंका पर अभी विदेशी कर्ज का भार 50 अरब डॉलर से ज्यादा का हो गया है. श्रीलंका सरकार ने साफ कह दिया है कि वह कर्ज का ब्याज भी चुकाने की स्थिति में नहीं है. इसका सीधा सा मतलब है कि श्रीलंका दिवालिया हो चुका है. 

एक डॉलर की कीमत 360 श्रीलंकन रुपए के पार जा चुकी है. पारंपरिक रूप से यह माना जाता है कि किसी भी देश के पास कम से कम 7 महीने के आयात के लायक विदेशी मुद्रा भंडार होना चाहिए लेकिन श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार कुछ दिनों के आयात की जरूरत के लायक भी नहीं बचा है. 

हालात इतने खराब हैं कि बिजली गुल है. सेना के संरक्षण में पेट्रोल और गैस की आपूर्ति हो रही है. जरूरत का सामान बाजार से गायब है और गरीबों को तो खाने के लाले पड़ गए हैं. कागज के लिए पैसा नहीं है इसलिए अखबार छपने बंद हो गए हैं. 

श्रीलंका असंतोष की आग में जल रहा है. इस बीच प्रधानमंत्री का पद रानिल विक्रमसिंघे ने संभाल लिया है. वे भारत के काफी करीब माने जाते हैं. 

भारत ने राजपक्षे के शासनकाल में भी श्रीलंका की खूब मदद की है लेकिन कोई दूसरा देश कितनी मदद कर सकता है. श्रीलंका का स्वास्थ्य तो वहां के राजनेताओं को ही संभालना होगा. हम सब श्रीलंका के लिए दुआ करें..!

श्रीलंका की इस बदहाली ने पूरी दुनिया को सबक सिखाया है कि कर्ज के जाल में फंसना बहुत खतरनाक है. हमारे भारतीय परिवारों में एक कहावत भी है कि पैर उतना ही पसारना चाहिए जितनी बड़ी चादर हो. और दूसरी कहावत है कि आड़े वक्त के लिए हाथ में कुछ पैसा जरूर होना चाहिए. कहावत के रूप में ये सबक हर परिवार के लिए भी जरूरी है और सत्ता-सरकार के लिए भी! पता नहीं कौन सी आफत कब कहां पैदा हो जाए..!

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