राकेश कुमार उपाध्याय का ब्लॉग: 20 डॉलर यानी 1500 रुपये के विवाद में जल उठा अमेरिका!

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: June 3, 2020 03:23 PM2020-06-03T15:23:06+5:302020-06-03T15:23:06+5:30

अमेरिका कोरोना संकट के बीच एक दूसरी परेशानी से भी जूझ रहा है। समूचे अमेरिका के कई शहरों में कर्फ्यू लगा है और अब भी शांति के प्रयास जारी है। आखिर क्या विवाद और उसकी जड़, पढ़िए राकेश कुमार उपाध्याय का ब्लॉग..

Rakesh Kumar Upadhyay blog: America violence, its root and controversy of 20 dollars | राकेश कुमार उपाध्याय का ब्लॉग: 20 डॉलर यानी 1500 रुपये के विवाद में जल उठा अमेरिका!

1500 रुपये के विवाद में जल उठा अमेरिका! (फाइल फोटो)

कोरोना की मार से सबसे ज्यादा आहत अमेरिका में एक दूसरी ही आग भड़क उठी है। यह आग भूख की भट्ठी से ही उठी और देखते ही देखते ‘श्वेत’ सभ्यता पर ‘कृष्णपक्ष’ का ग्रहण लग गया। सारे श्वेत मूल्य अश्वेत टकराव में धराशायी से हो गए। जीसस की करुणा और उनका प्रभाव उनके चाहने और मानने वालों पर ही शून्यवत हो गया, क्योंकि भौतिकता की चकाचौंध में मानवीय मूल्यों की कीमत बताने वाले लोग धीरे धीरे अप्रासंगिक हो गए या बना दिए गए। 

पारिवारिक और मानवीय मूल्यों को छोड़कर जब कोई सभ्यता केवल और केवल बाजारवादी मूल्यों के भरोसे छोड़ दी जाती है तो जो घटित होने लगता है वही अमेरिका में और संपूर्ण आधुनिक विश्व में हो रहा है। इस ताजा घटना में केवल और केवल 20 डॉलर यानी भारतीय रूपयों में 1500 रुपये के विवाद में ही अमेरिकी पुलिस का चेहरा इतना भयानक, बदरंग और क्रूर हो गया कि पूरा अमेरिका प्रभावित सभ्यतागत आधुनिक शहरी विमर्श ही बेपर्दा है जिसमें भूख और भूखे के लिए कहीं कोई आसरा नहीं, कहीं कोई राहत नहीं। 

यहां कोई ईसाई है, कोई मुस्लिम है, कोई काला है, कोई गोरा है, लेकिन कोई मानव, मनुष्य या मैन या आदमी भी है या कहीं मानवता शेष है तो इस विमर्श को इन आधुनिक खित्तों या पढ़े-लिखे समूहों में खोज पाना ही बड़ा मुश्किल है। जगह बदलती है केवल, कुछ शब्दों का हेर-फेर है, बाकी सब कुछ वही है।

जैसे भारत में कुछ समय पूर्व #मुस्लिममैटर हैशटैग और दफ्तीपट तस्वीरों में छाया था वैसे ही #ब्लैकलाइवमैटर का दफ्तीपट अमेरिका में दौड़ रहा है। जैसे यहां दिल्ली में एन चुनाव से पहले वामपंथ और डेमोक्रेट्स का लबादा ओढ़े सियासी मगरमच्छ यहां एक समूह को बढ़ा-चढ़ाकर सड़कों पर खड़ा कर रहे थे वैसे ही अमेरिका में भी एन चुनाव से पहले इस कोरोना आपदा को धता बताकर एन्टीफा नामक वामपंथी समूह और डेमोक्रेट्स के घड़ियाली नेता आंसू बहाते आम लोगों को रिपब्लिकन सरकार के खिलाफ भड़का रहे हैं। 

रिपोर्ट बता रही है कि बड़ी तादाद में एंटीफा के श्वेत अराजकतावादी और रिपब्लिकन विरोधी कई राइटविंग समूह भी इस अश्वेत केंद्रित हिंसा को जायज ठहराकर पूरे अमेरिका को हिंसा और आगज़नी में झोंकने में जुट गए हैं।

समूचे अमेरिका के 40 से ज्यादा शहरों में कर्फ्यू लगा है। लॉस एंजिल्स, सेंट पॉल, अटलान्टा, न्यूयॉर्क सिटी जैसे महत्वपूर्ण शहर धूंधूं कर जल उठे हैं। अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी में प्रदर्शनकारियों ने उग्र और हिंसक डेरा डाल दिया है। बताया जा रहा है कि बीते 50 साल के अमेरिका के इतिहास में ऐसी भयानक हिंसा नहीं देखी गई। अश्वेत दंगाई जगह जगह हिंसा आगजनी लूटपाट कर रहे हैं। यहां तक कि वाशिंगटन डीसी में घेराबंदी की गई, व्हाइट हाउस को इस कदर प्रदर्शनकारियों ने घेरे में लिया कि राष्ट्रपति ट्र्म्प और उनके परिवार को बंकर में एहतियातन शरण लेनी पड़ी। 

फिलहाल हालात लगातार तनावपूर्ण बने हुए हैं। 4500 से ज्यादा प्रदर्शनकारी अब तक गिरफ्तार हो चुके हैं। आर्मी की ट्रेनिंग से लैस नेशनल गार्ड्स के हजारों जवान समूचे अमेरिका में कानून-व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए उतार दिए गए हैं। हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित एरिजोना, टेक्सस और वर्जीनिया में आपातकाल या आपदाकाल घोषित कर दिया गया है। 

घटनाक्रम की शुरुआत 25 मई 2020 की सायंकाल अमेरिका के मिन्नेसोटा राज्य के मिनाएपोलिस शहर से हुई। मिनेपोलिस शहर की पुलिस को एक रेस्टोरेंट से कॉल आई कि एक ग्राहक नकली कूपन का इस्तेमालकर खरीदारी की कोशिश कर रहा है। उसका व्यवहार असंयत है। पुलिस टीम ने फौरन मौके पर पहुंचकर शिकायत की जांच शुरु की तो पता चला कि 46 साल के अफ्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिक जॉर्ज फ्लोएड ने एक रेस्तरां में 20 डॉलर के इस्तेमाल किए जा चुके कूपन को दोबारा इस्तेमालकर कुछ खाने-पीने की चीज खरीदने की कोशिश की। 

रेस्तरां कर्मचारी ने उसके इस फर्जीवाड़े को पकड़ लिया और पुलिस को खबर कर दी। पुलिस आने के पहले संभवतः जॉर्ज फ्लोएड ने मौके से हटने की कोशिश की और वह जाकर अपनी वैन में बैठ गया। मौके से निकल पाता कि पुलिस ने आकर उसकी गाड़ी को घेर लिया। उसे वैन से उतरने को कहा गया लेकिन जैसा कि रिपोर्ट में बताया गया है कि उसने वैन से उतरने में आनाकानी की और इस कारण से पुलिस को उसके साथ जबर्दस्ती करनी पड़ी। जॉर्ज को वैन से उतारे जाने के बाद भी उसकी कहासुनी जारी रही। 

पुलिस ने उसे हथकड़ी लगाकर अपनी वैन में लादने का प्रयास किया। पुलिस का दावा है कि उसने भागने की कोशिश की, धक्कामुक्की में वह दो बार सड़क पर भी गिरा। एक रिपोर्ट में बताया गया है कि वह नशे की हालत में था इसलिए पुलिस को उसे काबू कर पाने में मुश्किल आ रही थी। पुलिस वैन में लादे जाने के खिलाफ वह प्रतिरोध करता रहा और इसी धक्कामुक्की में जब वह दूसरी बार सड़क पर गिरा और तो एक श्वेत पुलिस कर्मी ने सबक सिखाने और काबू करने के लिए उसे सड़क पर ही अमानवीय ढंग से दबोच लिया। उसकी गर्दन को उसने घुटने से दबाकर उसे काबू करने की कोशिश की और दूसरे पुलिसकर्मियों ने उसे पीछे से पकड़ लिया। 

जिस पुलिस अफसर ने जॉर्ज की गर्दन पर घुटना टेककर उसे जबरन सड़क पर अमानवीय तरीके से गिराए रखा, उसका नाम डेरेक शॉविन बताया गया है। यह भी रिपोर्ट है कि उसने 8 मिनट 46 सेकेंड तक उसकी गर्दन घुटने के जोर से बुरी तरह से दबाए रखी और इस दरम्यान अंतिम 2 मिनट 53 सेकेंड तक तो जॉर्ज फ्लोएड सड़क पर अचेत पड़ा रहा। इस पूरी घटना का वायरल वीडियो बेहद भयावह और करुणाजनक है। इसमें जॉर्ज फ्लोएड बार बार पुकार रहा है कि उसकी सांस रुक रही है, वह सांस नहीं ले पा रहा, वह सहायता के लिए आवाज भी दे रहा है लेकिन न तो पुलिस पर उसकी गुहार का कोई असर और ना ही किसी आने-जाने वाले पर, मानो ये रोजमर्रा का पुलिस का काम है तो इसमें कोई क्यों खलल डाले। 

इस घटना की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल होते ही अमेरिका में भूचाल सा आ गया। कोविड-19 के कोरोना आघात से बुरी तरह घिरे अमेरिका के लिए हालात मानो कोढ़ में खाज जैसे हो गए। अश्वेत समाज में गुस्से की लहर दौड़ पड़ी जिसे भांपने में अमेरिकी प्रशासन ने देर कर दी। 26 मई को सवेरे मिन्नेपोलिस शहर में प्रदर्शन सबसे पहले प्रारंभ हुआ जिसे रोकने के लिए पुलिस ने लाठीचार्ज किया, आंसू गैस का इस्तेमाल किया और फिर तो जैसे पूरे पेट्रोल मे ही आग लग गई। समूचे अमेरिका में प्रदर्शनों का सिलसिला शुरु हो गया।

मामले की गंभीरता को देखते हुए मिन्नेपोलिस शहर के पुलिस प्रमुख मेडारिया अरडांडो ने जॉर्ज फ्लोएड के खिलाफ कार्रवाई में शामिल चारों पुलिस कर्मियों को बर्खास्त कर दिया। मामले की जांच सर्वोच्च जांच एजेंसी एफबीआई को सौंपी गई। जॉर्ज की गर्दन को घुटने की जोर से दबाए रखने वाले पुलिसकर्मी डेरेक शॉवेन के खिलाफ कड़ी धाराओं में हत्या का केस दर्ज किया गया। उसे थर्ड डिग्री मर्डर और सेकेंड डिग्री मैनस्लॉटर के आरोप में गिरफ्तारकर जेल भेज दिया गया। आरोपों के तहत अगर सजा मिली तो डेरेक शॉवेन को मृत्युदंड की बजाए 35 साल तक जेल की सलाखों में ही रहना होगा। हालांकि बाकी तीन पुलिस कर्मियों पर हत्या का केस दर्ज नहीं किया गया।

मामले में राजनीतिक मोड़ तब आया जबकि प्रदर्शनकारी इस कार्रवाई पर भी शांत नहीं हुए। प्रदर्शनकारियों की ओर से मांग की गई कि जिन पुलिसकर्मियों ने जॉर्ज फ्लोएड की मांगने पर भी सहायता नहीं की और वो खामोशी से डेरेक शॉवेन की क्रूरता देखते रहे, उन पर भी हत्या का केस दर्ज किया जाना चाहिए। प्रदर्शनों में बड़ी तादाद में शामिल अराजकतावादियों ने जब चारों ओर आगजनी  और लूटपाट शुरु कर दी तो अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की इस चेतावनी ने आग में घी झोंक दिया कि जब लूटिंग शुरु होती है तो शूटिंग भी शुरु होती है। व्हेन लूटिंग स्टार्ट देन शूटिंग स्टार्ट। यानी लूटपाट करोगे तो गोली भी खाओगे। 

ट्रम्प ने राजनीतिक विरोधियों को भी मामले को तूल देने के आरोप में आड़े हाथों लिया और जिन शहरों में वामपंथी और डेमोक्रेट्स नेता मेयर या अन्य निर्वाचित पदों पर थे और जिन्होंने स्वयं प्रदर्शन रोकने में रुचि नहीं दिखाई, उन्हें ट्रम्प ने चेतावनी दे डाली कि अगर आप आगे आकर दायित्व नहीं निभाते हैं तो मेरे नेशनल गॉर्ड्स जिम्मेदारी लेने को तैयार हैं।

पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने बयान में राष्ट्रपति ट्रंप को ये कहते हुए आड़े हाथों लिया कि ज्यादातर प्रदर्शनकारी शांतिपूर्ण, साहसी, जिम्मेदार और प्रेरक भूमिका निभा रहे हैं। उनका समर्थन किया जाना चाहिए ना कि निंदा। ओबामा ने मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए यह भी कहा है कि यही परिवर्तन का सही समय है जबकि पुलिस सुधार का अधूरा काम पूरा किया जाए और फौजदारी न्याय तंत्र को चुस्त-दुरुस्त किया जाए। ओबामा के अनुसार, दशकों से लोग पुलिस के व्यवहार और कार्यशैली में सुधार की मांग कर रहे हैं, उनकी यह मांग वाजिब और वैध है।  

साफ है कि सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष ने मामले में अपने अपने पाले खींच लिए हैं। ट्रम्प जानते हैं कि वोटबैंक की राजनीति में अश्वेत उनके साथ न पहले थे और ना ही आगे रहने वाले हैं। श्वेत समाज की भावनाएं कानून-व्यवस्था को बनाए रखने से जुड़ी हैं। आगजनी, लूटपाट और हत्याएं आदि अमेरिकी सार्वजनिक जीवन में श्वेत वर्ग को मंजूर नहीं हैं लिहाजा ट्रम्प इस मामले में भी अपनी चुनावी जीत का ट्रम्पकार्ड देख रहे हैं, वहीं पूर्व राष्ट्रपति ओबामा ने पुलिस के चेहरे को बदलने और अन्य कानूनी सुधार के सवाल को मुखरकर डेमोक्रेट्स की संभावनाओं को जनता में सौम्य तरीके से आगे बढ़ा दिया है, साथ ही इस बात पर भी जोर दिया है कि हमें हर हालत में अहिंसक होकर ही अपनी बात कहनी है, शांतिपूर्ण तरीके से ही प्रदर्शन करना है।

पुलिस और कानून से जुड़े इन सवालों से इतर सवाल भूख और बाजार से जुड़ा है जिसका जवाब अभी मिलना बाकी है। सवाल है कि कोरोना के संकटकाल में अमेरिका में भूख, गरीबी और लाचारी से निपटने के लिए क्या इंतजाम सरकार और समाज की ओर से किए गए हैं? अमेरिकी समाज की अपनी गति है जिसमें अहम सवाल है कि क्या भूख मिटाने की सारी जिम्मेदारी सरकारी तंत्र के भरोसे ही छोड़ दी जानी चाहिए जबकि वह अपने रोजमर्रा के प्रशासनिक कार्यों के बोझ तले ही दबा पड़ा है। 

नस्लीय भेदभाव संवैधानिक रूप से तो अब अमेरिका का हिस्सा नहीं है लेकिन भूखे लोगों, गरीब और अश्वेत लोगों के सामने तो जीवन में आज भी कठिनाइयों का पहाड़ है जिसमें सामाजिक समरसता लाने की कोई युति अमेरिकी समाज के स्तर पर उस तरह निर्मित नहीं है जिस तरह से होनी चाहिए। जाहिर है जब पैसा सर चढ़कर बोलता है तो फिर समाज में पैसे के बगैर कहां कुछ होता है।

इस चुनौती में से निकला यह आज का सबसे गंभीर प्रश्न है कि कम्यूनिटी किचन, सामाजिक रसोई के इंतजाम, भंडारे, लंगर और नित्य प्रति भूखे-गरीब वर्ग को प्रसाद स्वरूप भोजन का दोनों समय इंतजाम क्या संसार के प्रत्येक शहर और गांव में नहीं किया जाना चाहिए? और यह करने के लिए मानवीय मन की करुणा और ममतामयी भावना कैसी होनी चाहिए, इस लिहाज से जॉर्ज फ्लोएड के साथ बरती गई क्रूरता एक अहम सवाल बनकर खड़ी हुई है जिसमें यह संकेत समझने में किसी को मुश्किल नहीं आना चाहिए कि अमेरिका या यूरोप बनकर मानवीय मूल्यों की रक्षा नहीं की जा सकती। इसका समाधान तो भारत बनकर रहने में ही है। भारत होने का मर्म क्या है और भारत होने का धर्म क्या है, इस विचार को फैलाने और संसार को समझाने का यही समय संकट के रूप में हमारे सम्मुख आ खड़ा हुआ है। पर सवाल है कि क्या भारत भारत में ही जीवित और प्रफुल्लित है? 

विश्व के सभी मानववादी विचार यह मानते हैं कि करुणा, ममता, प्रेम, दया और सबमें एक ही परमात्मा अथवा परम शक्ति की लीला का अहसास कर ही सभी प्रकार के भेदभाव, दारुण दुख से मुक्ति का रास्ता प्राप्त किया जा सकता है। जाहिर तौर पर यह रास्ता आध्यात्मिक रास्ता है और इसकी चाबी भारत की विरासत और सांस्कृतिक परंपरा के पास है जिसमें हर भूखे को भरपेट भोजन की गारंटी हमारे गुरुद्वारे, हमारे मंदिरों और धार्मिक संस्थानों की परंपरा प्रत्येक प्रकार के रुकावटों को दरकिनारकर देती आई है। 

देश के छोटे छोटे मंदिरों में भगवान का भोग लगने के बाद जो प्रसाद बंटता है, वह उसी प्राचीन परंपरा का अवशेष है जिसमें प्रसाद इतना पर्याप्त होता था कि भूखा व्यक्ति पेट के सवाल पर निश्चिंत हो सकता था और शेष समय वह अपनी कृर्तृत्व शक्ति और इच्छाशक्ति को बलवान कर अपने पैरों पर खड़े होने और स्वयं भी समाज के लिए उपयोगी होने के लिहाज से कुछ सोचने और करने की स्थिति में आ सकता था। 

जाहिर तौर पर रोटी का सवाल ही सबसे अहम मुद्दा है जिसमें हर उस मनुष्य को रोटी की गारंटी तो मिलनी ही चाहिए जो कि अक्षम है, लाचार है, भूखा है, गरीब है अथवा किसी कारण से रोटी और रोजगार करने की स्थिति में नहीं है। यह दायित्व परिवार और ग्राम सदियों से निभाते आए हैं लेकिन आर्थिक उदारीकरण और शहरी व्यवस्था ने इसके अस्तित्व के सामने चुनौती प्रस्तुत कर दी है। 

जाहिर तौर पर गुरुद्वारों और मंदिरों की व्यवस्था से सबक लेकर विश्व व्यवस्था को इस लिहाज से नया विकल्प खड़ा करना होगा जिसमें मस्जिदों और चर्च की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण है किन्तु एक वचन तो सभी को उठाना ही पड़ेगा कि भूखे व्यक्ति से उसका मत-मजहब नहीं पूछा जाएगा, दो रोटी और भात-दाल के लिए उसका मत-पंथ उससे नहीं छीना जाएगा। 

क्या पश्चिमी विचार तंत्र के बाजारवाद से प्रेरित और प्रभावित पांथिक सिंडिकेट इस प्रमुख चुनौती को स्वीकार कर सकेंगे कि सभी मत-पंथ उस परमात्मा या परम शक्ति की उपासना का सच्चा मार्ग हो सकते हैं जैसे कि वह खुद स्वयं को मानते हैं। जाहिर तौर पर यह बड़ी मुश्किल डगर है और यहीं सारे मुश्किलों की जड़ भी है। सवाल है कि समाधान कहां और किस चिन्तन में है? क्या वाममार्ग के भरोसे कुछ छोड़ा जा सकता है? क्योंकि वामपंथी बाजीगर इसी मूल्यहीनता के कूड़े का कीड़ा बनकर अपनी क्रूर क्रीड़ा उसी प्रकार प्रारंभ करता है जैसे जीवन के लिए हानिप्रद जीवाणु और विषाणु पहले चैतन्यमय शरीर की दुर्दशा करते हैं, फिर उस देह के मृत हो जाने पर उसका भोगकर खुद भी लुप्तप्राय हो जाते हैं। 

वामपंथी चिन्तन और आंदोलन का निर्माण और सृजन से कोई लेना-देना नहीं, ये लोग दुख-दारिद्र्य और दुरावस्था से दहलती दयालु-दुर्बल दुनियादारी के प्रति दैत्य बनकर केवल दैहिक दुष्कृत्य अर्थात दे दनादन दर्दनाक दानवीय दंद-फंद फैलाते हैं। संसार में किसी मानवीय व्यसन, व्याधि, विवाद, विपत्ति, विकार और विकृति को खत्म करने में इनकी न कभी कोई रुचि रही है और ना ही ये कहीं पर भी प्यासी-पीड़ित-भूखी मानवता का कोई कष्ट हरते नज़र आते हैं सिवाय हिंसाचार और दुराचार फैलाने और चतुर्दिक आग लगाने के इन्हें शायद ही किसी और मानवीय पहलू का कोई पता आजतक मिला हो। ये सर्वत्र सर्वकाल शिकार खोजते हैं शिकार। अमेरिका में सर्वत्र फैला हाहाकार इस वामपंथ के दुष्प्रचार और सियासी शिकार का भी नतीजा है जिसमें डेरेक शावेन जैसा निष्ठुर, संवेदनाहीन, क्रूर पुलिसकर्मी अमेरिकी सभ्यता का डरवाना रूप बनकर दिख रहा है तो जॉर्ज फ्लोएड की सूरत वामपंथ प्रेरित हिंसा के लिए खाद-पानी का काम कर गई है। 

भारत के समस्त राज्यतंत्र, संवैधानिक तंत्र, पुलिस और ब्यूरोक्रेसी को इस अमेरिकी हालात से सबक लेकर स्वयं के भीतर आत्मसुधार का मार्ग अवश्य प्रशस्त करना चाहिए क्योंकि हम भारत भारत की रट कितनी ही क्यों न लगाएं, हकीकत यही है कि हम हर बीतते दिन के साथ भारत को अमेरिका और यूरोप में ही तब्दील करते जा रहे हैं जिसमें भौतिक चकाचौंध और उसके पीछे खड़ा समाज तो खड़ा होता चला ही आया है, खड़ा होता चला जाएगा लेकिन मानवता, पारिवारिक मूल्य और भारत का जो सत्व इस अंधी दौड़ में कहीं खो सा गया है, खोता जा रहा है, वह सदा के लिए खोता ही चला जाएगा। साथ बैठिए, साथ सोचिए, साथ विचारिए और विकल्प की तलाश करिए, विश्व व्यवस्था के सम्मुख यही समय की सबसे बड़ी पुकार है।

(लेखक भारत अध्ययन केंद्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

Web Title: Rakesh Kumar Upadhyay blog: America violence, its root and controversy of 20 dollars

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