राजेश बादल का ब्लॉगः चीनी चक्रव्यूह और गड़े मुर्दे उखाड़ने में व्यस्त देश
By राजेश बादल | Published: January 21, 2020 05:36 AM2020-01-21T05:36:56+5:302020-01-21T05:36:56+5:30
सू की ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ 33 समझौतों पर दस्तखत करने के बाद यह बात कही. उन्होंने भारत का नाम लिए बिना साफ कर दिया कि म्यांमार बदल चुका है.
आंग सान सू की का ताजा बयान हैरत में डालने वाला है. भारत के लिए यह बेहद गंभीर है. उन्होंने कहा कि कुछ देश मानव अधिकार, जातीयता और धर्म के बहाने दूसरे देशों के मामलों में हस्तक्षेप करना चाहते हैं. म्यांमार उन्हें कहना चाहता है कि अब वह ऐसे किसी दखल को मंजूर नहीं करेगा. सू की ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ 33 समझौतों पर दस्तखत करने के बाद यह बात कही. उन्होंने भारत का नाम लिए बिना साफ कर दिया कि म्यांमार बदल चुका है. वह पिछलग्गू पड़ोसी नहीं रहा है और भविष्य में भारत के हितों की रक्षा करने की गारंटी नहीं लेने वाला है. म्यांमार की इस सर्वोच्च ताकतवर नेत्नी ने खास तौर पर रेखांकित किया कि उनका देश हमेशा चीन के साथ खड़ा रहेगा. बीते दिनों अमेरिका ने म्यांमार के सेनाध्यक्ष पर रोहिंग्या बवाल के बाद पाबंदी लगा दी थी. म्यांमार ने साफ कर दिया कि वह ऐसे प्रतिबंधों के आगे झुकने वाला नहीं है. वह चीन का उपकार नहीं भूल सकता. इस मसले पर चीन चट्टान की तरह म्यांमार के साथ खड़ा रहा है. इतना ही नहीं, चीन ने इसी मुद्दे पर बांग्लादेश के साथ समझौता भी कराया. भारत इस मामले में ठगा सा देखता रहा.
असल में आंग सान सू की कुछ बरस से भारत के साथ अपने मुल्क को असहज पा रही हैं. हिंदुस्तानी फौज ने वहां सर्जिकल स्ट्राइक के जरिए आतंकवादी ठिकानों को नष्ट किया था. सेना और भारतीय राजनेताओं ने इस पर जिस तरह अपने गाल बजाए, उसने म्यांमार को आहत किया. इसके बाद रोहिंग्या मसले पर मदद के लिए उसने सबसे पहले भारत की ओर ताका. इसका कारण था कि भारत बांग्लादेश और अमेरिका पर भी दबाव डालने की स्थिति में था. अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी उसे हमसे समर्थन की उम्मीद थी. पर ऐसा नहीं हुआ. भारत अपनी ही अंदरूनी समस्याओं पर ध्यान देता रहा. ये समस्याएं खुद भारत ने ही पैदा की थीं. म्यांमार के लिए यह बड़ा झटका था. याद करना होगा कि सू की के लोकतंत्न बहाली आंदोलन को हिंदुस्तान ने ही पाला-पोसा था. भारत एक तरह से उनका दूसरा घर है. दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से उन्होंने राजनीति विज्ञान में स्नातक किया था. वे फर्राटेदार हिंदी बोलती हैं. क्या विडंबना है कि अपने देश में लोकतंत्न बहाली के लिए उन्हें जिस लोकतांत्रिक भारत से भरपूर सहयोग मिला, उसका दामन छोड़ वे उस देश के साथ खड़ी हैं, जहां लोकतंत्न स्थायी रूप से सोया हुआ है.
देखा जाए तो इसमें म्यांमार की गलती नहीं है और न ही यह पहला मामला है. हाल ही में अनेक अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर भारतीय विदेश नीति ने जिस तरह व्यवहार किया है, वह चौंकाने वाला है. इससे पहले ईरान ने अमेरिका के साथ तनाव के मद्देनजर भारत से सबसे पहले सहयोग मांगा था. भारत ने कुछ पहल तो की होगी, मगर उसमें अजीब सा ठंडापन था. इसी बीच पाकिस्तान के विदेश मंत्नी शाह महमूद कुरैशी ईरान और सऊदी अरब गए. इसके बाद वे अमेरिका जा पहुंचे. पाकिस्तान की इस मसले में कोई सीधी भूमिका नहीं थी.
संभव है कि उसके प्रयास बांझ साबित हुए हों. उसने तो अमेरिका को रिझाने के लिए कोई एक साल तक तालिबान के साथ लगातार खुफिया बैठकें कराईं. वह अफगानिस्तान में शांति बहाली के लिए सक्रिय प्रयास करता रहा. यह अलग बात है कि ये कोशिशें भी रंग नहीं लाईं. लेकिन उसे लाभ यह मिला कि अमेरिका ने पाक सेना को प्रशिक्षित करने का करार कर लिया. यह भारत के लिए झटका ही है. ईमानदारी से देखा जाए तो अफगान - तालिबान मसले पर भी भारत के व्यवहार में एक सर्द खामोशी है. ठेकेदार की तरह संसद भवन बना देने से आप वहां की अवाम के दिलों में नहीं धड़कने लगते. यह भी ध्यान देने की बात है कि सऊदी अरब से ईरान के रिश्ते कभी मधुर नहीं होंगे और पाकिस्तान के सऊदी अरब से संबंधों में कभी कड़वाहट नहीं आएगी. ठीक वैसे ही जैसे भारत और अफगानिस्तान के संबंध कभी खराब नहीं होंगे और पाकिस्तान के साथ अफगानिस्तान कभी सहज नहीं रह पाएगा. समीकरणों के इतने साफ होते हुए भी हम विदेश नीति में ऊर्जावान और उत्साह से भरे क्यों नहीं दिखाई देते.
भारतीय विदेश नीति की विकलांगता और आग लगने पर कुआं खोदने की आदत ने भी बड़ा नुकसान किया है. दुनिया इक्कीसवीं सदी में अपने को आधुनिकतम शक्ल देने में लगी है तो हम गड़े मुर्दे उखाड़ कर आपसी सिर-फुटौवल में व्यस्त हैं. तमाम देश आर्थिक और समसामयिक चुनौतियों से लड़ने के लिए आधुनिकतम औजार विकसित कर रहे हैं तो हम यह माथापच्ची कर रहे हैं कि बंटवारे के लिए कौन जिम्मेदार था. विकसित राष्ट्र चकाचौंध करने वाली मंजिलें तय कर रहे हैं तो हम सावरकर के स्वतंत्नता संग्राम और उनके माफीनामे पर सियासत का मजा ले रहे हैं. पश्चिम और यूरोप के देश शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि पर जोर दे रहे हैं तो हम साईंबाबा के जन्म स्थान की खोज पर बांहें चढ़ाए बैठे हैं. अपनी नई पीढ़ी को हम कौन सा संदेश दे रहे हैं! न अब विभाजन की कथा इतिहास से मिटाई जा सकती है और न सावरकर, महात्मा गांधी और साईं बाबा अपने-अपने सच के साथ पुन:अवतरित हो सकते हैं. फिर हम ऐसा क्यों कर रहे हैं.
कहीं अनजाने में अपने लोकतंत्न के खिलाफ कोई साजिश तो नहीं कर बैठे हैं. भारत के मीडिया और प्रचार तंत्न के जरिए जब अंधविश्वास और राष्ट्रीय शर्म की प्रतीक कथाएं समंदर पार पहुंचती हैं तो यकीन मानिए कि हमारी छवि बहुत उज्ज्वल नहीं होती.