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पाकिस्तान और भारत के बीच जंगी झड़पों के दरम्यान क्या रूस कुछ उदासीन सा रहा?

By राजेश बादल | Updated: May 21, 2025 05:28 IST

Pahalgam Terror Attack: एक सवाल भारत अपने आप से भी पूछ सकता है कि यूक्रेन के साथ लंबे समय तक जंग में उलझे रूस के साथ हम खड़े नजर तो आए,

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ठळक मुद्देक्या हम चीन की तरह रूस के पक्ष में खुलकर साथ खड़े थे? नहीं भूलना चाहिए कि रूस अभी भी जंग में उलझा हुआ है. भारत को अपने रवैये में तीव्रता नहीं दिखाने के पीछे क्या संकोच था.

Pahalgam Terror Attack: प्रश्न उठ रहे हैं कि पहलगाम में आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान और भारत के बीच जंगी झड़पों के दरम्यान क्या रूस कुछ उदासीन सा रहा? भारत के बौद्धिक और कूटनीतिक क्षेत्रों में यह महसूस किया जा रहा है. इस वर्ग को लग रहा है कि जब भारत ने पाकिस्तान के आतंकवादी शिविरों पर आक्रमण किया तो जैसे बयान इजराइल से आए, वैसे रूस की ओर से क्यों नहीं आए. इसका उत्तर बहुत कठिन नहीं है तो बहुत आसान भी नहीं है. उसके अनेक कारण गिनाए जा सकते हैं, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि क्या रूस ने पाकिस्तान का उस तरह साथ दिया, जैसा चीन ने दिया तो इसका उत्तर यकीनन हिंदुस्तान के लिए राहत देने वाला है. एक सवाल भारत अपने आप से भी पूछ सकता है कि यूक्रेन के साथ लंबे समय तक जंग में उलझे रूस के साथ हम खड़े नजर तो आए,

पर क्या हम चीन की तरह रूस के पक्ष में खुलकर साथ खड़े थे? नहीं भूलना चाहिए कि रूस अभी भी जंग में उलझा हुआ है. ऐसे में हम उससे किस तरह के समर्थन की अपेक्षा कर रहे थे ? पाकिस्तान और यूक्रेन के मधुर संबंध छिपे हुए नहीं हैं. फिर, यूक्रेन के खिलाफ भारत को अपने रवैये में तीव्रता नहीं दिखाने के पीछे क्या संकोच था.

यह ठीक है कि रूस के साथ बीते तीन वर्षों में भारत के कारोबार में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई है. उससे रूस को काफी मदद मिली है. मगर दूसरी ओर भारत को भी तेल और हथियारों के आयात से लाभ हुआ है. यह कोई एकतरफा व्यापार नहीं है. भारत की रूस के साथ साफ तौर पर खड़े होने में यदि कोई झिझक हो सकती है तो यही कि चीन के साथ भी उसके बेहद मधुर रिश्ते हैं और विश्व पंचायत के स्वयंभू अमेरिका के विरोध में दोनों देश सीना ताने खड़े हैं. भारत को रूस और चीन की दोस्ती के मद्देनजर अमेरिका से भी बेवजह टकराव क्यों मोल लेना चाहिए?

यह कारण बेशक पहलगाम प्रसंग से पहले का था. पाकिस्तान से युद्धविराम के बाद अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों ने जिस तरह गिरगिट जैसा रंग बदला है, वह भारत को झटका देने वाला है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का भारत के प्रति व्यवहार बदला है. इन दिनों वे भारत के साथ हिंसक रूप में सामने हैं. वे एक के बाद एक ऐसे निर्णय ले रहे हैं, जो भारतीय हितों के अनुकूल नहीं हैं.

तो फिर ऐसे कौन से पैमाने हैं, जिनके आधार पर भारत रूस के साथ अपनी दोस्ती का लिटमस टेस्ट कर सकता है? निवेदन है कि इसके लिए रूस को छाती फाड़ कर भारत के लिए प्रेम दिखाने की आवश्यकता नहीं है. यदि एक बार हम रूस के स्थान पर खुद को खड़ा करके देखें तो सारी पहेलियों का उत्तर मिल जाता है.

पहली बात तो हमें स्वीकार करना होगा कि रूस ने आजादी के बाद भारत के पुनर्निर्माण में जो सहायता की है, हिंदुस्तान उसके ऋण से उऋण नहीं हो सकता. यह बात रूस के विचार में क्यों नहीं होनी चाहिए. स्वतंत्रता मिलने के सिर्फ आठ साल बाद रूस ने ( उस समय सोवियत संघ विखंडित नहीं हुआ था ) भारत को 60 करोड़ रूबल से अधिक का उदार कर्ज दिया था.

उस साल यानी 1955 में सोवियत संघ के मुखिया ख्रुश्चेव भारत आए थे. उन्होंने ऐलान किया था कि हम आपके बहुत करीब हैं. अगर आप पहाड़ की चोटी से भी बुलाएंगे तो हम दौड़े चले आएंगे. रूस की सहायता से ही भारत ने अपने पहले चार स्टील प्लांट भिलाई, बोकारो, रांची और दुर्गापुर में लगाए. तेल सप्लाई से लेकर बिजली उत्पादन में सहायता की और 1970 आते-आते 11 बिजलीघर लगा दिए.

उस साल तक भारत में रूसी मदद से 60 से अधिक बड़े कारखाने लगे. भारत का पहला निर्यात रूसी मदद से इसी औद्योगिक तंत्र के सहारे हुआ था. जब भारत आत्मनिर्भर हो रहा था तो रूस ने ही 54 साल पहले भारत के साथ रक्षा और शांति सहयोग संधि की थी. उसी बरस पाकिस्तान के साथ युद्ध में रूस की सहायता तो दोनों मुल्कों के रिश्तों में भरोसे का ऐसा सबूत है, जो पूरा हिंदुस्तान जानता है.

यह भी खुला तथ्य है कि 1947 से लेकर अभी तक अमेरिका ने एकाध अपवाद को छोड़कर हमेशा पाकिस्तान का खुलकर साथ दिया है.  कश्मीर के मामले में उसने कभी अनुकूल रुख नहीं दिखाया, जबकि भारत के पक्ष में रूस चट्टान की तरह खड़ा रहा है. उसने भारत के पक्ष में छह बार वीटो किया है.

दो बार कश्मीर, तीन बार पाकिस्तान के मसले पर और एक बार 1961 में गोवा को पुर्तगालियों के कब्जे से मुक्त कराने के समय भी सोवियत संघ ने भारत के पक्ष में वीटो का इस्तेमाल किया था. यहां तक कि 2019 में भारत ने जब कश्मीर से अनुच्छेद 370 विलोपित किया, तब भी रूस भारत के साथ ही था.

अब हम देखते हैं कि रूस के लिए भारत सुविधाजनक क्यों है. पहली बात यह कि भारत चरित्र और नीतियों से आक्रामक नहीं है. वह हमले की पहल नहीं करता. रूस इतिहास में 100 से ज्यादा युद्ध लड़ चुका है, मगर एक भी जंग भारत के साथ नहीं हुई. अतीत में देखें तो चीन से 96 साल पहले वह पूर्ण युद्ध लड़ चुका है.

इसके बाद 56 साल पहले 1969 में चीन ने उस पर हमला किया था. कुछ द्वीपों को लेकर विवाद था. सात माह तक अघोषित जंग चलती रही. इसमें चीन का पलड़ा भारी रहा. रूस चोट खाकर चुप बैठ गया. ध्यान देने वाली बात यह है कि चीन में व्यवस्थित सरकार बनाने में उसने बड़ा सहयोग किया था. चीन के वाम नेता उसके पास मदद के लिए गिड़गिड़ाते पहुंचे थे.

जब जापान ने चीन पर 1937 में हमला किया तो फिर चीन ने रूस के आगे हाथ जोड़े तो रूस ने हजारों सैनिक चीन में उतार दिए थे. उसी चीन ने तमाम उपकारों को भुलाते हुए रूस से सीमा विवाद पर संघर्ष किया. रूस का सरकारी प्रकाशन कहता है, ‘‘चीनी नेताओं ने घनघोर सोवियत विरोधी प्रचार का सहारा लिया.

बावजूद इसके कि सोवियत संघ की मदद से ही चीनी लोक गणराज्य स्थापित हो पाया था. फिर भी चीन ने सातवें दशक में सोवियत संघ से संबंध बिगाड़ने में कसर नहीं छोड़ी.’’ इतना ही नहीं, जर्मनी से लेकर कई यूरोपीय मुल्कों तक से रूस जंग लड़ चुका है. क्या रूस और भारत के संबंधों का यह लिटमस टेस्ट नहीं है?

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