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रहीस सिंह का ब्लॉग: कितनी अहम है भारत-जापान साझेदारी?

By रहीस सिंह | Updated: January 28, 2023 08:35 IST

जापान इस समय रक्षा और कूटनीति की दृष्टि से जो कदम उठा रहा है क्या वे वास्तव में चीन की रक्षा दीवार को दरकाने की क्षमता रखते हैं? क्या यह भारत-जापान के बीच परंपरागत मैत्री भर है अथवा इससे बहुत आगे की बात? निष्कर्ष की ओर प्रस्थान से पहले तीन बिंदुओं पर विचार करने की जरूरत है। 

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ठळक मुद्देमहत्वपूर्ण बात यह है कि अमेरिका, जापान अन्य कुछ पूर्वी एशियाई देश भारत से अपेक्षाएं रखते हैं और उसकी तरफ देख भी रहे हैं।इस समय हर वह देश जिसके हित हिंद-प्रशांत क्षेत्र से जुड़े हैं, चीनी रक्षा दीवार को दरकते हुए देखना चाह रहा है।

हिंद-प्रशांत क्षेत्र भू-राजनीतिक दृष्टि से अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय दिख रहा है। इसका कारण यह है कि इस क्षेत्र में चीन आक्रामक है और एक विश्वव्यवस्था का निर्माण करने की कोशिश में है जिसकी केंद्रीय शक्ति वही हो। अमेरिका अपने पुराने युग की ओर देख रहा है और इस उद्देश्य से चीन को रोकना चाहता है। जापान फिर से सैन्य ताकत बनने का सपना देख रहा है और शेष देश इस गेम में चाहे-अनचाहे हिस्सा बनने जा रहे हैं। 

महत्वपूर्ण बात यह है कि अमेरिका, जापान अन्य कुछ पूर्वी एशियाई देश भारत से अपेक्षाएं रखते हैं और उसकी तरफ देख भी रहे हैं। इस समय हर वह देश जिसके हित हिंद-प्रशांत क्षेत्र से जुड़े हैं, चीनी रक्षा दीवार को दरकते हुए देखना चाह रहा है। लेकिन ऐसा लग नहीं पा रहा है कि 'क्वाड्रिलैटरल सिक्योरिटी डायलॉग' जैसा मंच अथवा अमेरिका की पुरानी साझेदारी ऐसा करने में सफल हो पाएगी। 

फिर ऐसी कौन सी पहल हो सकती है जो इस लक्ष्य को पूरा करने में सहायक हो? इन तैयारियों के मद्देनजर भारत-जापान स्ट्रैटेजिक बॉन्डिंग में आ रहे रणनीतिक पुख्तापन को किस नजरिये से देखा जाना चाहिए? यह क्या इंडोपैसिफिक या ट्रांसपैसिफिक में नई दिल्ली-टोक्यो धुरी बनने का संकेत है? यदि नहीं तो फिर इन पहलों के निहितार्थ क्या हैं? 

जापान इस समय रक्षा और कूटनीति की दृष्टि से जो कदम उठा रहा है क्या वे वास्तव में चीन की रक्षा दीवार को दरकाने की क्षमता रखते हैं? क्या यह भारत-जापान के बीच परंपरागत मैत्री भर है अथवा इससे बहुत आगे की बात? निष्कर्ष की ओर प्रस्थान से पहले तीन बिंदुओं पर विचार करने की जरूरत है। 

पहला- वाॅशिंगटन (अमेरिका) स्थित सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज में अपने वक्तव्य में जापान के व्यापार और उद्योग मंत्री यासुतोषी निशिमूरा का यह कथन कि अमेरिका और उसकी जैसी सोच रखने वाले दुनिया के लोकतांत्रिक देशों को एक नई वैश्विक व्यवस्था के निर्माण का प्रयास करना चाहिए। उनका तर्क है कि शीत युद्ध के बाद मुक्त व्यापार और अर्थव्यवस्थाओं के कारण तानाशाही ताकतों को मजबूती मिली है। 

इस संदर्भ में उनका इशारा बीजिंग और माॅस्को की तरफ था। दूसरा- दिसंबर 2022 में जापान ने अपनी रक्षा रणनीति में बदलाव लाने का निर्णय लिया। इसका उद्देश्य है जवाबी कार्रवाई के लिए सैन्य क्षमता में वृद्धि। तो क्या जापान एक नई एशियाई सैन्य शक्ति बनना चाह रहा है? क्या यह फिर से जापानी सैन्यवाद के उस युग की ओर वापस लौटने की कोशिश है जिसका अंतिम परिणाम द्वितीय विश्वयुद्ध अथवा हिरोशिमा, नागासाकी पर परमाणु हमला था? तीसरा है- जनवरी 2023 में भारत के साथ जापान द्वारा पहला संयुक्त सैन्य अभ्यास करना। 

यह युद्धाभ्यास जापान की राजधानी टोक्यो के पूर्वोत्तर में हयाकुरी एयर बेस पर 16 जनवरी से 11 दिनों तक चला, जिसका उद्देश्य जटिल माहौल में हवाई युद्ध लड़ने सहित कई तरह के प्रशिक्षण हासिल करना था। यहां अहम प्रश्न यह है कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से लेकर अब तक जो जापान सैन्य शक्ति के विस्तार और अपग्रेडेशन के विरुद्ध रहा। तो अब ऐसा क्यों? 

क्या जापान ने चीन की सैन्य ताकत को भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक दृष्टि से समझ लिया है? अथवा कारण कुछ और है? हाल के वर्षों में न केवल ट्रांस-पैसिफिक में बल्कि पूरे हिंद प्रशांत क्षेत्र में चीन भू-राजनीति में जिस आक्रामकता का प्रदर्शन कर रहा है, वह किसी भी देश को अपनी रक्षा पंक्ति मजबूत करने और सैन्य गठबंधन को विस्तार देने के लिए विवश कर सकता है। 

उधर चीनी ऋण जाल अपना कार्य तो कर ही रहा है, साथ ही मलक्का से जिबूती तक अपनी मैरी टाइम (सामुद्रिक) शक्ति का विस्तार, चाइना-पाकिस्तान इकोनाॅमिक काॅरिडोर (सीपेक) के जरिये काश्गर से ग्वादर तक सैनिक-आर्थिक दीवार का निर्माण और 'बेल्ट एंड रोड एनीशिएटिव' द्वारा दुनिया में एक नए किस्म के उपनिवेशवाद की बुनियाद रखना नई विश्वव्यवस्था में असंतुलन व नए संघर्षों की संभावनाओं का संकेत है। 

स्थितियां बताती हैं कि जापान के लिए ही नहीं बल्कि भारत सहित अन्य देशों के लिए भी जरूरी है कि वे साझी सामरिक नीति की ओर निर्णायक रूप में बढ़ें। भारत के साथ जापान का साझा युद्धाभ्यास इसी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। 

यह युद्धाभ्यास केवल जापान के भू-सामरिक हितों के लिहाज से महत्वपूर्ण नहीं बल्कि भारत के लिए 'बैक-एंड प्रेशर' (दूसरे छोर पर दबाव) की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है विशेषकर डोकलाम, गलवान और लद्दाख में पीपल्स लिबरेशन आर्मी की हरकतें देखते हुए।

इस तरह की चीनी हरकतों में उसके दो उद्देश्य छिपे हैं। पहला- अपेक्षाकृत छोटे और आर्थिक रूप से कमजोर देशों के अंदर भय पैदा करना कि अगर वे चीनी छतरी के नीचे नहीं आए तो वे जनापेक्षित विकास से वंचित रहेंगे और आर्थिक संकट का शिकार हो सकते हैं। दो-लघु स्तर के युद्ध लड़ना या सीमा पर दबाव बनाना ताकि और शक्तिशाली बनकर उभर सकें। 

इसलिए जरूरी है कि दूसरे देश भी अपनी सैन्य क्षमता को बेहतर बनाएं। ऐसे में नई दिल्ली-टोक्यो बाॅन्डिंग अथवा नई दिल्ली-टोक्यो-वाॅशिंगटन ट्राईलेटरल अथवा नई दिल्ली-टोक्यो-वाॅशिंगटन-कैनबरा क्वाड्रिलैटरल अपेक्षित भी हैं और अपरिहार्य भी हैं।

 

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